क्या कोविड महामारी को सामाजिक बदलाव लाने के मौक़े के तौर पर देखा जा सकता है?

बीते कुछ सालों से बहुसंख्यकवाद पर सामाजिक ऊर्जा और विचार दोनों ख़र्च किए गए, लेकिन आज संकट की इस घड़ी में बहुसंख्यकवादी इंफ्रास्ट्रक्चर कितना काम आ रहा है? महामारी ने यह अवसर दिया है कि अपनी प्राथमिकताएं बदलकर संकुचित, उग्र और छद्म राष्ट्रवाद को त्याग दिया जाए.

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अप्रैल 2021 में गाजियाबाद के एक गुरुद्वारे में निशुल्क ऑक्सीजन सेवा का लाभ लेती एक महिला. (फोटो: रॉयटर्स)

बीते कुछ सालों से बहुसंख्यकवाद पर सामाजिक ऊर्जा और विचार दोनों ख़र्च किए गए, लेकिन आज संकट की इस घड़ी में बहुसंख्यकवादी इंफ्रास्ट्रक्चर कितना काम आ रहा है? महामारी ने यह अवसर दिया है कि अपनी प्राथमिकताएं बदलकर संकुचित, उग्र और छद्म राष्ट्रवाद को त्याग दिया जाए.

उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद शहर के एक गुरुद्वारा में कोविड-19 महामारी के बीच सांस में तकलीफ बाद ऑक्सीजन के सहारे एक महिला. (फोटो: रॉयटर्स)
उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद के एक गुरुद्वारे में निशुल्क ऑक्सीजन सेवा का लाभ लेती एक महिला. (फोटो: रॉयटर्स)

1946 से 1948 के बीच भारतीयों ने हिंदुस्तान के विभाजन से जुड़ी हिंसा का कटु अनुभव किया. उत्तर-पश्चिम से लेकर पूर्वोत्तर तक का क्षेत्र सांप्रदायिक नफरत की चपेट में था. हिंसा और नफरत की लपटों में महात्मा गांधी ने खुद को झोंका. मकसद सिर्फ हिंसा को रोकना न था.

गांधी चाहते थे कि हिंदुस्तानी अपने आक्रोश, दुख और पीड़ा का सकारात्मक प्रयोग करें; देश के दो सबसे बड़े समुदायों के बीच आहत हुए रिश्तों को नए सिरे से जोड़ने का एक माध्यम बनाएं.

इस चाहत के पीछे उनकी जन मनोविज्ञान की एक गहरी समझ थी. नितांत पीड़ा से जूझते समाज में मूलभूत बदलाव की बड़ी शक्ति और संभावना होती है. वह अपने पूर्वाग्रहों को सफलता के साथ छोड़ सकता है. एक नई दशा और दिशा पकड़ सकता है.

इस दौरान गांधी की गतिविधियों का भूगोल नोआखली से दिल्ली तक फैला रहा. इसका इतिहास या उनका लिखा और कहा पढ़ें, तो वह इस जन मनोविज्ञान का प्रयोग करते मिलते हैं. गांधी का प्रयोग कितना सफल रहा और कितना विफल यह विवाद का विषय हो सकता है. पर उनकी जन मनोविज्ञान कि समझ पर कोई विवाद नहीं है.

आज जब हम विभाजन के बाद देश की सब से बड़ी आपदा से जूझ रहे हैं, असहनीय पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं, तब वह समझ प्रासंगिक हो गई है.

बहुसंख्यकवाद का तिलिस्म

पिछले कुछ वर्षों से हम एक बहुसंख्यकवादी समाज और व्यवस्था बनते जा रहे हैं. सांप्रदायिकता से ग्रसित तो हम दशकों से थे, पर बहुसंख्यकवाद का बुखार (या कहिए कि तिलिस्म) नया है.

इसके मूल भाव से पाठक परिचित होंगे इसलिए ज़्यादा कहने की ज़रूरत नहीं है, पर इसके मुख्य परिणाम पर ध्यान जाना चाहिए: देश के दो सबसे बड़े समुदायों के रिश्तों पर निरंतर बढ़ता दबाव और सामुदायिक संबंधों के संकरे होते सामाजिक और सांस्कृतिक दायरे. अगर यह प्रवृतियां मज़बूत होंगी तो क्या होगा?

सामाजिक शांति होगी? नहीं. आर्थिक समृद्धि होगी? नहीं. राष्ट्रीय सुरक्षा बढ़ेगी? नहीं. दुनिया का सम्मान मिलेगा? नहीं.

यहां एक बात और जुड़ती है. देश के दो सबसे बड़े समुदाय दक्षिण एशिया के भी सबसे बड़े समुदाय हैं. बहुसंख्यकवादी विचारधारा से निकली भावनाओं, राजनीति और नीतियों का परिणाम देश की सीमाओं के बाहर भी हो रहा है.

बहुसंख्यकवादी अपनी विचारधारा के बचाव या प्रचार में कई बातें कहते हैं. इनमें से प्रमुख है यह विश्वास कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बैर-भाव हमेशा रहेगा और ऐसा इसलिए क्योंकि उनके बुनियादी मूल्य मेल नहीं खाते.

बहुसंख्यकवाद के अनुयायियों की मानें, तो पिछले 1,200 सालों से दोनों समुदायों के बीच संघर्ष चल रहा है. यह संघर्ष धार्मिक है, सांस्कृतिक है, और सभ्यता का है. यह सोच दिवंगत अमेरिकी स्कॉलर सैमुअल पी. हंटिंग्टन की ‘क्लैश ऑफ सिविलाइज़ेशंस‘ थ्योरी जैसी है.

ऐसा सोचने वाले यह मानते हैं कि इस वक़्त भारत में वह संघर्ष अपने निर्णायक चरण में है, जो यह तय करेगा कि कौन-सा समुदाय अपना सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभुत्व दक्षिण एशिया पर स्थापित करेगा. यह सोच देसी लगती है पर है नहीं. इसके लिए शब्द अंग्रेज़ी में मिलता है- मिलनेरियनिज़्म (Millenarianism).

इतिहास और सामुदायिक संबंधों की दिशा

क्या हमारा इतिहास और समाज के विकास का स्वरूप इस विश्वास को संपुष्ट करते हैं? यह सवाल तथ्यों का तो है ही दृष्टिकोण का भी है.

इतिहास में घटनाएं दो तर्ज की मिलती हैं. एक ओर कलह और टकराव की, तो दूसरी ओर सौहार्द और सहयोग की. आपका दृष्टिकोण तय करेगा कि आप किस तर्ज को और नज़दीक से देखना-समझना चाहते हैं. किसके साथ खड़े होना चाहते हैं, किसे आगे बढ़ाना चाहते हैं.

हाल ही में अमेरिकी इतिहासकार ऑड्रे ट्रश्के की नई किताब छपी है- द लैंग्वेज ऑफ हिस्ट्री. ट्रश्के संस्कृत और फारसी जानती हैं. इस किताब में उन्होंने बारहवीं से अठारहवीं शताब्दी के बीच लिखी गई कई संस्कृत रचनाओं का अध्ययन किया है.

उनके अनुसार, इन रचनाओं में मुसलमान संस्कृति और ताकत तथा भारतीय-मुस्लिम शासन (इंडो-मुस्लिम रूल) को कई तरह से वर्णित किया गया है. आम धारणा के विपरीत, न ही मुसलमान संस्कृति और न ही मुसलमान ताकत को लगातार प्रतिद्वंदी की नज़र से देखा गया. संघर्ष मिलता हैं, पर समायोजन भी. पूर्वाग्रह मिलता है, पर एक नए धर्म और दर्शन को समझने की जिज्ञासा भी.

सोलहवीं शताब्दी के महाराष्ट्र में संत एकनाथ ने ‘हिंदू-तुर्क संवाद’ लिखा. उसे पढ़ने पर पता चलता है कि दकन में दो धर्मों और उनके अनुयायियों को साथ लाने की पहल चल रही थी.

इसी काल में बादशाह अकबर ने हिंदुस्तानियों के लिए एक नए धर्म दीन-ए-इलाही की घोषणा की. अठारहवीं शताब्दी के मुग़ल-मराठा रिश्तों की कई परतें हैं. इनमें से एक है मराठा ताकत की छत्रछाया में अपने आपको कुछ-कुछ सुरक्षित पाता दिल्ली का मुग़ल तख़्त.

1857 का विद्रोह हिंदू-मुस्लिम सहयोग पर चला. 1919 से 1922 के दौरान गांधी ने असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलनों में दोनों समुदायों को साझेदार बनाया. यह कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों की रूपरेखा मात्र है. इसके सहारे एक बात तो निश्चित ही देखी जा सकती है कि दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप में कई सदियों से दोनों समुदायों को साथ लाने की सफल कोशिशें कई स्तरों पर हुईं.

यह भी देखा जा सकता है कि धीरे-धीरे एक साझी समझ, एक साझी संस्कृति का निर्माण होने लगा था. बंटवारा न हुआ होता तो सामुदायिक संबंधों कि दिशा क्या होती यह सवाल वाजिब है.

विभाजन के दुष्परिणाम

आज़ादी के संघर्ष के बीच मुसलमानों के भविष्य का सवाल खड़ा हुआ. देश आज़ाद होगा. जनतांत्रिक व्यवस्था होगी. ब्रिटिश राज न होगा. क्या ‘हिंदू राज’ होगा? आंकड़ों का समीकरण साफ था इसलिए फिक्र स्वाभाविक थी. कांग्रेस का जवाब तसल्ली न दे पाया.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मुहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान नहीं चाहिए था बल्कि आज़ाद हिंदुस्तान में बहुसंख्यक राज न बने इसकी संवैधानिक गारंटी चाहिए थी. कि ‘पाकिस्तान’ मुख्यतः एक नारे का नाम था, जिसके सहारे वह एक उप-महाद्वीपीय महासंघ (सबकॉन्टिनेंटल फेडरेशन) बनवाना चाहते थे, न कि एक राष्ट्र-राज्य जिसमें बहुसंख्यक समुदाय का पलड़ा हमेशा भारी रहे.

जो भी उनकी मंशा. हुआ यह कि 1940 के दशक दौरान चली ‘गर्म हवा’ में हिंदू-मुस्लिम रिश्ते झुलस गए. कई लोग यह मानते थे कि दोनों समुदायों को आज़ाद देश में एक दूसरे के साथ सांस्कृतिक प्रयोग, सामाजिक संवाद और संवैधानिक संघर्ष कर एक नई पहल करने का मौका मिलना चाहिए.

ब्रिटिश हस्तक्षेप के बिना दोनों समुदाय अपनी निजी पहचान को बिना खोए एक अविभाजित हिंदुस्तान में स्वयं और देश को सशक्त, समृद्ध और विकसित बना सकते थे.

विभाजन हुआ तो ऐसे लोग हाशिए पर चले गए. उनकी इस सोच और हिंदू-मुस्लिम इतिहास की उनकी समझ दोनों कि विश्वसनीयता ख़त्म हो गई.

विभाजन के बाद दक्षिण एशियाई स्तर पर दो प्रवृत्तियां बनीं. पहला, हिंदू-मुस्लिम रिश्ते आंशिक रूप से भारत-पाकिस्तान रिश्तों में तब्दील हो गए. यानी अंतर-सामुदायिक रिश्ते अंतरराष्ट्रीय रिश्तों के उतार-चढ़ाव का शिकार होने लगे.

और दूसरा, पहले दो और फिर तीन देशों में दोनों समुदायों के रिश्ते बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक वाली राजनीतिक जटिलताओं में फंस गए. जैसे-जैसे इन प्रवृत्तियों का विकास हुआ समुदायों के बीच के खाई बढ़ी, परस्पर अनजानापन बढ़ा. ऐसा राष्ट्रीय स्तर पर तो हुआ ही, उप-महाद्वीपीय स्तर पर भी हुआ. बल्कि होता चला आ रहा है.

दुर्लभ अवसर

विभाजन के बाद से अब तक देश को ऐसा कोई मौका नहीं मिला जिससे हम सामुदायिक रिश्तों को एक नई दशा और दिशा दे सकें. या यूं कहें कि जिससे सामुदायिक समझ और सौहार्द बनाने वाली वह ऐतिहासिक प्रक्रिया जो 1940 के दशक में रुक गई थी उसे आगे बढ़ाया जा सके. अनुकूल परिस्थितियां न बनी.

पर अब एक दुर्लभ अवसर मिला है. आज कोरोना की दूसरी लहर सुनामी बनकर आई है. इसने समाज के हर तबके, हर धर्म के नागरिकों को पीड़ित किया है.

इतने बड़े विध्वंस के बीच एक नई शुरुआत की बात करना शायद कुछ लोगों को असंवेदनशील या अप्रासंगिक लगे. पर इतिहास गवाह है कि विध्वंस से उबरते समाजों ने अपने बेहतर भविष्य के लिए मूलभूत बदलाव किए हैं. सबसे प्रासंगिक उदाहरण है जर्मन समाज का, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के विध्वंस के बाद नाज़ीवाद और हिटलरवाद को समाज और जनचेतना की जड़ों से उखाड़ फेंकने का निर्णय लिया.

कोरोना काल ने हमें बताया है कि हमारी सार्वजनिक नीति की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए- एक उच्चतर और समावेशी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, न कि कोई धार्मिक कट्टरता का ‘इकोसिस्टम.’ एक पारदर्शी और संवेदनशील राजनीतिक व्यवस्था, न कि इशारों-इशारों में अल्पसंख्यकों के प्रति द्वेष-भाव फैलाने वाली राजनीतिक कुसंस्कृति. विज्ञान प्रसार न की कुज्ञान प्रचार.

दुनिया के अग्रणी सार्वजनिक नीति विशेषज्ञ मानते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य, पर्यावरण और साइबर जगत हमारी असली वैश्विक चुनौतियां हैं. इसकी रोशनी में अपनी तर्क क्षमता और बुद्धि-विवेक का सदुपयोग करने वाला और भविष्य की ओर अग्रसर कोई भी व्यक्ति या समूह अपनी असली प्राथमिकताओं को देख-समझ सकता है.

पिछले दो महीनों में देश के विभिन्न हिस्सों से आती तस्वीरों और कहानियों को देखिए- कहीं किसी अल्पसंख्यक समुदाय के नागरिक ने अपनी गाड़ी बेचकर ऑक्सीजन का इंतज़ाम किया, तो कहीं उसी समुदाय के युवा श्मशान में अंतिम संस्कार में मदद कर रहे हैं.

किसानों के आंदोलन के तहत प्रदर्शन हुए तो बहुसंख्यकवादियों ने एक अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों पर देशद्रोह का इल्ज़ाम लगाया. उस समुदाय के लोग आज ऑक्सीजन लंगर लगा, मरीज़ों तक पहुंचकर उनकी जान बचा रहे हैं.

देश भीड़ या चुनावों में दिखता ‘जन सैलाब’ भर नहीं होता. देश लोगों का बना होता है. लोग जिनकी संवेदनाएं होती हैं. और देशभक्ति दूसरों के दर्द में सहभागी होने, काम आने में होती है.

वह लोग जिनके समुदायों का आए दिन राक्षसीकरण किया जाता है आज मानवता भाव और असली देशभक्ति का उदाहरण बन रहे हैं. हमने हाल में बहुसंख्यकवाद पर सामाजिक ऊर्जा और विचार दोनों ख़र्च किए. इस संकट की घड़ी में बहुसंख्यकवादी इंफ्रास्ट्रक्चर कितना काम आ रहा है?

इस महामारी ने हमें पिछले साल ही यह अवसर दिया था कि हम बहुसंख्यकवाद के अंधे कुएं से खुद को बाहर निकालें. पर हमने इस दौरान दो अल्पसंख्यक समुदायों को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

आज फिर वह अवसर हमें मिला है. अपनी प्राथमिकताएं बदलने का. संकुचित, उग्र और छद्म राष्ट्रवाद को त्यागने का.

हमारा हालिया रिकॉर्ड कोई उम्मीद तो नहीं जगाता. पर इस दुर्लभ अवसर को खोया तो परिणाम सुखद न होंगे. हम अपनी आंखों से जो देख रहे हैं क्या उससे अपना दृष्टिकोण बदल पाएंगे?

(लेखक शिव नादर विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)