उम्मीदवारों के चयन से उभरे असंतोष और मतदाताओं में बदले जातीय गुणा-गणित से तीसरे चरण के चुनाव में समाजवादी पार्टी की राह मुश्किल हो सकती है
लखनऊ : चुनाव के तीसरे दौर में सपा की राह उतनी आसान नहीं होगी जितनी उन्हें उम्मीद है. इस क्षेत्र में सपा के पास कई सीटें हैं, जहां कई कारणों से इस बार जीत दर्ज कर पाना पार्टी के लिए मुश्किल होगा. इन कारणों में कई जाति आधारित राजनीतिक समीकरणों का बनना-बिगड़ना और उम्मीदवारों का चयन सबसे महत्वपूर्ण है. पिछले विधानसभा चुनावों में सपा ने इस क्षेत्र के मैनपुरी, इटावा, औरैया, बाराबंकी और कन्नौज में बड़ी जीत हासिल की थी. साथ ही उन्हें हरदोई की आठ में से 6, फर्रुखाबाद की चार में से तीन और उन्नाव की पांच में से चार सीटों पर सफलता मिली थी. इन क्षेत्रों में भाजपा और बसपा का प्रदर्शन बहुत ही ख़राब रहा था, पर इस बार लगता है कि बाज़ी पलटने वाली है.
इस बार लखनऊ और कानपुर के शहरी केंद्रों पर बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं. तीसरे दौर के चुनावों में 19 सीटें (कानपुर देहात जिले को छोड़कर) केवल इन दो ज़िलों में आती हैं, जिनमें से ज़्यादातर शहरी सीटें हैं. पारंपरिक तौर पर तो यहां भाजपा का ही प्रदर्शन अच्छा रहा करता था, सपा जिसे ग्रामीण पार्टी समझा जाता था, यहां पीछे रहती थी. पर 2012 के चुनावों में माहौल बदला. जिस तरह से अखिलेश यादव ने सपा की ‘अंग्रेजी नापसंद करने वाली, कंप्यूटर टेक्नोलॉजी से दूर भागने वाली, निरंकुश और भ्रष्ट पार्टी’ वाली छवि को पढ़ी-लिखी, टेक्नोलॉजी जानने वाली, विकास की तरफ़ बढ़ रही युवा छवि में बदला है, उसका असर यहां साफ़ दिखा. पार्टी के फ्री लैपटॉप, बेरोज़गारी भत्ता और पेंशन, साथ ही मुफ़्त स्वास्थ्य सेवाएं देने के वादे से उनके पक्ष में माहौल बना. वहीं बिना किसी प्रमुख चेहरे के भाजपा खुद को अखिलेश या बसपा का विकल्प साबित करने में नाकाम रही. परिणाम रहा कि शहरी इलाकों में भी सपा भाजपा से आगे निकल गई. लखनऊ की नौ सीटों में से सात और कानपुर की 10 में से पांच सीटें सपा के हिस्से में आईं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.
वहीं दूसरी तरफ़ यह भाजपा के लिए सबसे ख़राब अनुभव रहा. उन्हें लखनऊ की 9 सीटों में से बस एक सीट मिली. यहां ख़राब से ख़राब हालात में भी भाजपा 3-4 सीटें जीतती आई थी. वहीं कानपुर की 10 सीटों में से चार भाजपा के हिस्से में आईं जो सपा से कम ही थीं. बाकी बची एक सीट कांग्रेस को मिली थी. पर इस बार कई कारणों से ऐसा लग रहा है कि सपा अपना पिछला प्रदर्शन दोहरा पाने में नाकामयाब रहेगी. सपा अपने किए गए वादों पर खरी नहीं उतरी, जिससे यहां के वोटरों में उसके लिए कोई उत्साह भी देखने को नहीं मिलता, वहीं भाजपा ने उन सभी पहलुओं पर काम किया है, जहां वो 2012 में पिछड़ी थी. इस बार जो लोग भाजपा को वोट देने का दावा कर रहे हैं, उनमें से ज़्यादातर यह स्वीकारते हैं कि उन्होंने 2012 में सपा को वोट दिया था. भाजपा के साथ होने का एक कारण उम्मीदवारों का चयन भी है. लखनऊ पूर्व सीट पर भाजपा के आशुतोष टंडन उर्फ़ गोपाल जी थोड़े कमज़ोर उम्मीदवार थे पर सपा-कांग्रेस गठबंधन के बाद यहां कांग्रेस के अनुराग भदौरिया को मैदान में उतारा गया है. इसके बाद टंडन की जीत के आसार बढ़ गए हैं क्योंकि भदौरिया जनता की नज़र में कमज़ोर उम्मीदवार हैं. उनके बारे में पूछने पर सब यही कहते मिलते हैं कि उन्हें कोई जानता भी नहीं था पहले! ऐसे में फायदा भाजपा उम्मीदवार को मिलने की संभावना है.
ऐसा ही लखनऊ उत्तर सीट का हाल है. यहां सपा के मंत्री और प्रमुख चेहरों में से एक अभिषेक मिश्रा मैदान में है और सामने हैं नीरज वोरा. नीरज 2012 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे पर इस बार वो भाजपा के पाले में हैं. पिछली बार वोरा करीब 2000 वोटों से हार गए थे पर इस बार उनके पास भाजपा का वफ़ादार वोट बैंक है. बख्शी का तालाब और सरोजिनी नगर सीटों पिछली बार दूसरे नंबर पर रहे बसपा के उम्मीदवार भी सपा को तगड़ी चुनौती दे रहे हैं. यहां सपा किकी चुनौती बढ़ाने के लिए उनकी पार्टी के बाग़ी विधायक और पूर्व मंत्री शारदा प्रताप शुक्ला भी हैं, जो सपा से टिकट न मिलने पर रालोद के टिकट पर खड़े हुए हैं. सपा ने उनकी जगह अखिलेश यादव के रिश्तेदार अनुराग यादव को टिकट दिया है.
कानपुर के किदवई नगर में सपा-कांग्रेस के गठबंधन ने राह आसान करने की बजाय मुश्किल और बढ़ा दी है. यहां के वर्तमान विधायक कांग्रेस के अजय कपूर के सामने एक नयी तरह की चुनौती है. ब्राह्मण-विरोधी छवि होने के बावजूद कपूर इस ब्राह्मण बहुल सीट पर कारोबारियों और मुस्लिमों की मदद से जीत जाते थे, क्योंकि ब्राह्मण वोट सपा और भाजपा में बंट जाता था. पर इस बार गठबंधन के बाद ऐसा संभव नहीं होगा. इस विधानसभा क्षेत्र के एक के बाद एक मिलने वाले ब्राह्मण समूहों का तो बस यही कहना है कि इस बार सपा का उमीदवार होगा नहीं तो ब्राह्मण वोट भाजपा पर ही जाएगा. हालांकि शहरी सीटों पर बसपा भी कमज़ोर है, (गोविन्द नगर सीट एक अपवाद है जहां बसपा के निर्मल तिवारी मज़बूत स्थिति में हैं) पर ग्रामीण सीटों बिल्हौर (एससी), बिठूर और घाटमपुर (एससी) ये सपा-कांग्रेस गठबंधन को कड़ी चुनौती दे सकती है.
पहले दो चरणों में तो बसपा की मुस्लिमों को रिझाने की कोशिश उतनी कामयाब नहीं हुई जितना उसने सोचा था पर तीसरे चरण में उनकी बात बन सकती है. बाराबंकी के रामनगर से हफीज़ भारती और दरियाबाद से मोहम्मद मुबाशिर को उनके समुदाय से भारी समर्थन मिलने की उम्मीद है. यहां बात करने पर हर गांव के मुस्लिम ‘हाथी’ के साथ खड़े नज़र आते हैं. इस बदलाव से सपा के ठाकुर नेताओं अरविंद सिंह गोप (रामनगर) और राजीव कुमार सिंह (दरियाबाद) के लिए मुश्किल बढ़ सकती है क्योंकि उनके ज़्यादातर वोटर अल्पसंख्यक समुदाय से ही आते हैं.
पर यह बदलाव सिर्फ़ बाराबंकी तक ही सीमित नहीं है. सीतापुर की लहरपुर और सेवाता, कन्नौज की छिबरामउ, उन्नाव की बांगरमउ, फर्रुखाबाद की फर्रुखाबाद सदर और हरदोई की शाहबाद कुछ ऐसी सीटें हैं जहां के मुस्लिम वोटरों का झुकाव बसपा के मुस्लिम प्रत्याशियों के प्रति साफ़ देखा जा सकता है. यहां तक कि नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी (इटावा) और शशांक शेखर सिंह (भगवंतनगर) जैसे ग़ैर-मुस्लिम बसपा उम्मीदवारों को भी बड़ी संख्या में मुस्लिम समर्थन मिल रहा है क्योंकि वे इन सीटों पर भाजपा को हरा सकते हैं.
इसके साथ ही बसपा ने इस बार चुपचाप ‘ब्राह्मण कार्ड’ भी खेला है. बसपा ने राज्य में 67 ब्राह्मण प्रत्याशियों को टिकट दिया है, जो प्रदेश में सबसे ज्यादा है. बाकी किसी अन्य दल ने इतनी संख्या में ब्राह्मण उम्मीदवार नहीं उतारे हैं. हालांकि यह कितना मददगार साबित होगा यह साफ़ तो नहीं कह सकते पर अलग-अलग क्षेत्रों की अलग-अलग सीटों पर इससे फ़ायदा तो ज़रूर होगा. हरदोई की सवाजीपुर और बिलग्राम-मल्लावां सीटों पर खड़े बसपा के अनुपम दुबे और अनुराग मिश्रा को उनके समुदाय से भारी समर्थन मिल रहा है. ऐसा ही हाल औरैया की डिबियापुर और इटावा की इटावा सदर सीट का है. यहां बसपा ने रामकुमार अवस्थी और महेंद्रनाथ चतुर्वेदी को ब्राह्मण वोट काटने के लिए मैदान में उतारा है. डिबियापुर विधासभा क्षेत्र के कुढ़रा, महातेपुर, उमर साना और बुढ़ा दाना गांवों में बस एक ही बात सुनने को मिलती है, ‘दिल से तो हम भाजपा के साथ है पर इस बार वोट तो अवस्थी को ही देंगे.’ वहीं इटावा शहर के मतदाताओं का कहना था, ‘लोग नहीं जानते कि इटावा एक ब्राह्मण बहुल सीट है पर इस बार हम यहां से ब्राह्मण विधायक बनाकर ये बात साबित कर देंगे.’
सपा के अन्दर मचे घमासान का असर इटावा और मैनपुरी की सीटों पर साफ़ देखने को मिलता है. ऐसा कहा जा रहा है कि यहां शिवपाल खेमे के लोग बसपा उम्मीदवारों की मदद कर रहे हैं. इटावा से वर्तमान विधायक रघुराज सिंह शाक्य को इस बार शिवपाल यादव के करीबी होने की वजह से टिकट नहीं दिया गया जिससे उनके समर्थक खासे नाराज़ हैं. मैनपुरी जिले की किशनी (एससी), करहल और भोगांव (एससी) सीटों पर सपा सामने कुछ कमज़ोर उम्मीदवार और कुछ भाजपा की अंदरूनी कलह की वजह से फायदे में नज़र आती है पर मैनपुरी सदर सीट पर सपा को बसपा और भाजपा दोनों से कड़ी टक्कर मिलने वाली है. यहां शिवपाल समर्थक खुले तौर पर वर्तमान विधायक राजकुमार यादव के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं. राजकुमार रामगोपाल यादव के क़रीबी हैं. वहीं सीतापुर में सेवाता से सपा के वर्तमान विधायक महेंद्र कुमार सिंह उर्फ़ झिन बाबू और बिसवां से रामपाल यादव टिकट न मिलने पर बाग़ी हो चुके हैं और यहां पार्टी को कमज़ोर करने में लगे हैं.
सपा के लिए एक मुश्किल बाराबंकी-सीतापुर क्षेत्र में कुर्मियों का असंतुष्ट होना भी है. ऐसी ख़बर है कि सपा से राज्यसभा सांसद और बाराबंकी के कुर्मी नेता बेनी प्रसाद वर्मा सपा द्वारा उनके बेटे को टिकट न देने से नाराज़ होकर बसपा के लिए काम कर रहे हैं. हालांकि ऐसा ऊपरी तौर पर नहीं कहा गया पर अंदर ही अंदर पूरी बिरादरी को बसपा को समर्थन देने का संदेश दिया जा चुका है. गांव दर गांव कुर्मी वोटर बसपा को समर्थन देते दिखते हैं. (बाराबंकी की छह सीटों में से बसपा ने दो सीटों पर कुर्मी प्रत्याशी उतारे हैं जबकि भाजपा ने एक पर) इन लोगों की शिक़ायत थी कि सपा इस ज़िले से कुर्मी नेतृत्व ही हटा देना चाहती थी. (बाराबंकी में सपा ने एक भी कुर्मी प्रत्याशी नहीं उतारा है)
सपा के लिए एक बड़ी चुनौती अनुसूचित जातियों की बदली समीकरण भी है. इस क्षेत्र में पासी एक प्रभावी समुदाय है, जो सालों से सपा और बसपा को समर्थन देता आया है. पर 2014 के बाद से भाजपा ने इस समुदाय को प्रभावित किया है. बाराबंकी के सांसद भी पासी समुदाय से आते हैं. आरके चौधरी जैसे इस इलाके के प्रभावशाली पासी नेता के भाजपा में आने से भाजपा को मजबूती तो मिली है. चौधरी लखनऊ की मोहनलालगंज (एससी) सीट से भाजपा प्रत्याशी हैं. इसके अलावा भाजपा ने बालामऊ (एससी) और संडी (एससी) सीटों पर हरदोई ज़िले के सबसे बड़े पासी नेता रहे कुबेर के परिजनों को टिकट दिया है. इस इलाके से गुज़रते हुए पासियों का भाजपा को समर्थन साफ़ दिखाई देता है.
जहां एक ओर बसपा और भाजपा ने हर ज़िले में सपा के जातीय समीकरण को पलटकर अपने लिए समर्थन जुटाया है, वहीं कांग्रेस के साथ जुड़ने से सपा को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ है. 2012 में इस पूरे क्षेत्र में कांग्रेस मात्र एक सीट पर जीती थी. अगर यही हालत रही तो विधानसभा चुनाव का यह तीसरा चरण सपा के लिए काफ़ी महंगा साबित होगा.