महामारी के मद्देनज़र कृषि क़ानून वापस लेना ही समझदारी होगी

कोविड महामारी की दूसरी लहर का कृषि उत्पादन पर असर पड़ने के अलावा सप्लाई चेन भी महामारी की चपेट में आने लगी है, जिससे उत्पादन और वितरण दोनों पर प्रभाव पड़ने वाला है. आमदनी घटने और ख़र्च बढ़ने जैसे कई कारणों के चलते सरकार का नए कृषि क़ानूनों को वापस लेना ज़रूरी है.

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राजस्थान में कृषि कानूनों के खिलाफ हुआ प्रदर्शन. (फोटो: पीटीआई)

कोविड महामारी की दूसरी लहर का कृषि उत्पादन पर असर पड़ने के अलावा सप्लाई चेन भी महामारी की चपेट में आने लगी है, जिससे उत्पादन और वितरण दोनों पर प्रभाव पड़ने वाला है. आमदनी घटने और ख़र्च बढ़ने जैसे कई कारणों के चलते सरकार का नए कृषि क़ानूनों को वापस लेना ज़रूरी है.

राजस्थान में कृषि कानूनों के खिलाफ हुआ प्रदर्शन. (फोटो: पीटीआई)
राजस्थान में कृषि कानूनों के खिलाफ हुआ प्रदर्शन. (फोटो: पीटीआई)

कोविड काल की दूसरी लहर में कृषि क्षेत्र की स्थिति पहली कोविड लहर की तुलना में कहीं अधिक बदतर होने जा रही है. पहली लहर में कृषि उत्पादन पर असर नहीं हुआ था, केवल वापस आए मजदूर ही कृषि क्षेत्र में काम ढूंढ रहे थे जिससे मजदूरी दर में गिरावट आई थी. लेकिन इस बार मज़दूर वापस भी आए हैं, और कोविड महामारी की लहर गांवों तक भी पहुंच गई है. यानी दोहरी मार.

इस दूसरी लहर का दुखड़ा ये भी है कि कृषि उत्पादन पर असर पड़ने के अतिरिक्त सप्लाई चेन भी महामारी की चपेट में आने लगी है, जिससे उत्पादन और उसके वितरण दोनों पर प्रभाव पड़ने वाला है. यानी ज़बरदस्त बरसात होने के बावजूद (जिसकी पूर्ण संभावना है) उत्पादन व वितरण दोनों ही गंभीर रूप से प्रभावित होने वाले है. उसके ऊपर से महामारी का प्रभाव आमदनी पर होगा और स्वास्थ्य सेवा प्रयोग करने पर खर्च और बढ़ेगा. यानी गरीबी में आटा गीला ढीला.

ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार को तीन कृषि कानूनों को वापस लेना समझदारी होगी. सरकार ने डेढ़ साल के लिए उन्हें स्थगित कर ही दिया है. पर कई गंभीर कारण हैं जिनके कारण इन्हें अब वापस ले लेना चाहिए.

किसानों सहित लगभग सभी वर्गों का मानना है कि कृषि विपणन के लिए एपीएमसी-मंडी, कुछ फसलों के लिए 1960 के दशक में शुरू हुईं। एपीएमसी-मंडी की उपयोगिता में कमी आई है. कृषि क्षेत्र की विकास में मंदी के कारण कृषि क्षेत्र में एक नई नीति की जरूरत है.

हाल ही में सरकार ने बाजार की ताकतों को बल प्रदान करने के उद्देश्य से तीन कानून को पारित किया. किसान अब अपने सभी उत्पाद एपीएमसी बाजारों के परिसर के बाहर कहीं भी और किसी को भी बेचने के लिए स्वतंत्र हैं.

इसके अतिरिक्त, कानून किसानों और खाद्य-प्रसंस्करण कंपनियों के बीच साझेदारी स्थापित करने के माध्यम से अनुबंध खेती (contract farming) को बढ़ावा देंगे और विशेष परिस्थितियों को छोड़कर भोजन की असीमित होर्डिंग (इकट्ठा करने) की भी अनुमति देते हैं.

जब हमने हाल ही में किसानों से बातचीत की, तब किसानों द्वारा तीन मुख्य सुझाव दिए गए: एक, उनकी उपज की कीमतें पर उत्पादन की लागत और साथ ही एक उचित मार्क-अप होना चाहिए; दो, कीमतों में उतार-चढ़ाव कम से कम होना चाहिए; और तीन, कानूनी या प्रशासनिक अधिकारियों की कम से कम दखलअंदाज़ी होना चाहिए।

वे ‘साहिबों और पुलिस’ के साथ काम करने में सहज नहीं हैं. वर्तमान कानूनों का मसौदा तैयार करने के तरीके में इन सभी किसान चिंताओं की अनदेखी की गई है. उन्होंने कहा कि अधिक फसलों को शामिल करने के लिए अगर सरकार किसानों को गेहूं से सब्जियों की ओर जाने के लिए प्रोत्साहित करती है, तो सब्जी के बाजारों को उपरोक्त सभी तीन पहलुओं को संबोधित करना चाहिए.

एमएसपी-मंडी का पहला कानून एक ज्ञात शैतान है, लेकिन नए बाजार एक अज्ञात भूत के समान होंगे, जिनके ऊपर किसी का कोई नियंत्रण नहीं होगा. जबकि सरकार कहती है कि मंडी-एमएसपी प्रणाली जारी रहेगी, सवाल यह है कि कब तक?

यदि वैकल्पिक व्यापारी बेहतर मूल्य प्रदान करते हैं, तो किसान वहां जाएंगे और मंडियों में नहीं जाएंगे। (जैसा कि पहले से ही है) 2-3 साल बाद क्या होता है जब विनियमित मंडियां कमजोर हो जाती हैं या व्यवसाय की कमी के कारण बंद होने लगती हैं?

यहां कई मुद्दे हैं: व्यापारी एक से अधिक बहाने से किसान की कीमतों को कम कर सकते हैं, जैसे उत्पाद में दोष ढूंढना; भरमार के बहाने खरीदारी करने से मना करना; भुगतान में चूक, आदि.

चूंकि व्यापारी कम हैं, वे कार्टेल बना सकते हैं, जबकि किसान कई. किसानों को इस तथ्य से और भी परेशानी होती है कि वे किराए के ट्रैक्टरों पर कई क्विंटल/टन उपज का भार लेकर लंबी दूरी से आते हैं; परिवहन लागत के कारण वापस जाना उनके लिए कोई विकल्प नहीं है.

उनकी स्थिति तब और खराब हो जाती है जब उनकी नकदी-जरूरतें तत्काल नहीं होती हैं और यह स्थिति छोटे किसानों के लिए गंभीर होती है. 90 प्रतिशत एमएसपी में मंडियों में बेचने वालों में से हैं.

दूसरे कानून में कुछ इसी तरह के मुद्दे हैं: कॉरपोरेट-खरीददार एक या किसी अन्य बहाने से भुगतान में देरी पर उत्पाद की पूरी मात्रा नहीं खरीद करते; और अगर किसान शिकायत करते हैं, तो कॉरपोरेट्स के पास वकील, कॉन्ट्रैक्ट में फाइन-प्रिंट और सबसे बढ़कर, वे इंतजार करने की क्षमता रखते हैं.

उपरोक्त दोनों मामलों में समस्या असमानों के बीच अनुबंधों की है: चाहे वह व्यापारी हों या कॉरपोरेट्स, वे बहुत कम हैं और गहरी जेब के साथ हैं, और वे छोटे किसानों (गरीब/अल्प-शिक्षित 85% ) से निपट लेंगे।

अन्य मुद्दा विभिन्न क्षेत्रों और फसलों के संबंध में है. एग्री-मार्केटिंग कानूनों के कई प्रस्तावक यह कहते हैं कि उत्तरी भारत में गेहूं-चावल बेल्ट के बाहर के किसान विरोध नहीं कर रहे हैं.

जाहिर है चूंकि देश लगभग 15 कृषि जलवायु क्षेत्रों के साथ विविध है और यहां 50 से अधिक फसलें उगाई जाती हैं. हम यह भी भूल जाते हैं कि किसान उन क्षेत्रों में नीतियों का विरोध करते हैं जहां से वे आते हैं.

अधिक हाल ही में 1990 और 2010 में तमिलनाडु में किसानों ने कावेरी के पानी के लिए विरोध किया था. महाराष्ट्र में कपास किसानों ने बीटी-कपास और अतिरिक्त ऋण (आत्महत्याओं के परिणामस्वरूप) के खिलाफ विरोध किया है. किसान उन समस्याओं का विरोध करते हैं जो उन्हें प्रभावित करती हैं: वे समरूप नहीं हैं.

नई नीति बाजार खोलने के लिए सभी किसानों, सभी भूमि और सभी फसलों के लिए एक समान क्यों है; बाजार जो लगभग पूरी तरह से अपारदर्शी, असमान हैं? अर्ध-शुष्क क्षेत्रों और वहां के किसानों का क्या होता है जहां फसलों के परिणाम अनिश्चित होते हैं; छोटे और सीमांत किसानों के साथ क्या होता है जिनके पास बहुत कम उत्पाद बाजार में बेचने के लिए होता है; यदि किसान गेहूं-चावल की खेती से अधिक अस्थिर फसलों जैसे सब्जियों और फलों, या कपास जैसी कीट-प्रवण फसलों की ओर बढ़ते हैं, तो जोखिम कैसे कम होगा?

कृषि आमदनी में ठहराव और उच्च इनपुट कीमतों की अब तक की उपेक्षित समस्या को स्वामीनाथन आयोग और/या दलवई समिति में प्रस्तावित व्यवस्थित दृष्टिकोण से संबोधित किया जा सकता है. किसान पंजाब-हरियाणा में पांच वर्षों में धान के रकबे को 25-30% तक कम कर दें. अल्पावधि में, सरकार द्वारा मुआवजा दिया जा सकता है. यह पश्चिमी महाराष्ट्र में गन्ने के लिए भी किया जा सकता है.

शॉक ट्रीटमेंट कहीं भी काम नहीं करता है, चाहे वह कृषि, उद्योग या अर्थव्यवस्था हो. 1991 के बाद कई उद्योग एक ‘शॉक ट्रीटमेंट’ के कारण बंद हो गए, जिसके परिणामस्वरूप एक दूसरा डी-औद्योगिकीकरण (deindustrialization) और हजारों औद्योगिक नौकरियों का नुकसान हुआ. कृषि में परिणाम अलग नहीं होने की संभावना है, विशेष रूप से कोविड महामारी के समय में.

(संतोष मेहरोत्रा अर्थशास्त्री हैं, जो जेएनयू में  प्रोफेसर, योजना आयोग के वरिष्ठ नीति निर्णायक और राष्ट्रीय श्रम अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक रह चुके हैं. सारथी आचार्य मानव विकास संस्थान में प्रोफेसर हैं.)

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