आज उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कवर करने के क्रम में उन्नाव आया हूं. उन्नाव रेलवे स्टेशन के पास चौराहे पर निराला की प्रतिमा लगी है. इसका भी एक इतिहास है जो ज़िले की राजनीति की झलक दिखाता है.
बचपन से हाई स्कूल तक मैनपुरी के जिस स्कूल में पढ़ा हूं उसमें सुबह की प्रार्थना थी- वर दे, वीणा वादिनी वर दे. बहुत बाद में पता चला की इसके रचयिता थे सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, हिंदी साहित्य के बड़े नामी पुरखे. लेकिन ये परिचय भी बाद ही का है, शुरू में तो निराला की कविताओं का आकर्षण था. सम्मोहक भाषा और शब्दों से चित्र खींच देने की क्षमता. पर हिंदी पढ़ने को बेइज्ज़ती मानने वाले और बच्चों को दसवीं के बाद जबरदस्ती साइंस पढ़वाने वाले उत्तर भारतीय मध्यवर्ग का कोई लड़का कितने दिन साहित्य में डूब-उतरा सकता है, सो ये बात भी बिसर गयी.
जब JNU में MA करने गया तो मुझे मेस में 12 रोटियां खाते देखके भारतीय भाषा केंद्र के दोस्त लोग कहते थे- तुम बैसवाडा के किसान हो बे! देश-दुनिया की समस्याओं के अध्ययन के क्रम में एकेडमिक्स और एक्टिविज्म के अंतर को गायब कर देने वाली और साहित्य, समाज विज्ञानों तथा दर्शन केअलग अलग सुरों को एक राग में साधने वाले कैंपस की वामपंथी राजनीति के ज़रिये एक बार फिर परिचय हुआ बैसवाडा के सूर्यकांत त्रिपाठी से, जो अपनी मेधा के चलते महाप्राण ‘निराला’ हो गए.
आज उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कवर करने के क्रम में उन्नाव आया हूं. उन्नाव रेलवे स्टेशन के पास चौराहे पर निराला की प्रतिमा लगी है. ऊपर धूल खायी प्रतिमा है, सरकारी लैंप की पीली रौशनी में नहाई हुई, नीचे के हिस्से में काठ-कबाड़ भर रखा है पास के दुकानदारों ने. पर इस प्रतिमा का भी एक इतिहास है जो ज़िले की राजनीति की एक झलक दिखाता है.
90 के दशक के आखिरी सालों में ज़िले के एक ठाकुर राजनेता ने अपनी दबंगई से उन्नाव और लखनऊ में विशेष पहचान बनायी, जिसके बाद उन्हें समाजवादी पार्टी और भाजपा, दोनों ने विधान परिषद भेजा. इन्हीं अजित सिंह के बारे में कहा जाता है की उन्होंने किसी विवाद पर शिवपाल यादव का भी गिरेबान पकड़ लिया था. निराला की प्रतिमा का अनावरण करने के लिए उस दौर में मंत्री रहे हरिशंकर तिवारी को आना था, पर अजीत के सक्रिय विरोध के चलते वे ऐसा नहीं कर सके. लखनऊ के ठेकों को लेकर रायबरेली के विधायक अखिलेश सिंह के साथ उनका विवाद पहले से चल रहा था. इसी क्रम में सितंबर 2004 को, अपनी ही जन्मदिन पार्टी में गोली लगने से उनकी मौत हो गयी. मारने वाले ने धोखे में हुई ‘हर्ष फायरिंग’ (जी हां, उत्तर प्रदेश में यही शब्द इस्तेमाल होता है ख़ुशी के मौकों पर अंधाधुंध गोलियां चलाने की हरकत के लिए) की आड़ ली पर घर वालों का आरोप था की अखिलेश के इशारे पर उनकी हत्या हुई है.
इन्ही अजित सिंह का बेटा- शशांक शेखर सिंह इस बार जिले की भगवंतनगर सीट से बसपा के टिकट पर मैदान में है. ब्राह्मण बहुल इलाके में ठाकुर प्रत्याशी होने के बावजूद शशांक शेखर ने भाजपा के ह्रदय नारायण दीक्षित की नींद हराम कर रखी है. वहीं बसपा प्रत्याशी के पक्ष में ठाकुर मतों के ध्रुवीकरण के चलते कांग्रेस के ठाकुर प्रत्याशी अंकित परमार काफी कमजोर दिख रहे हैं. 2012 में इस सीट से सपा के टिकट पर चुनाव जीते कुलदीप सिंह सेंगर इस बार भाजपा उम्मीदवार बनके बांगरमऊ सीट पर चले गए हैं. यूं सीट बदल के लड़ना कुलदीप सेंगर की आदत रही है पर जिले की राजनीति पर नज़र रखने वालों का कहना है की कुलदीप ने इस बार सीट शशांक के डर से बदली है. ‘बच्चे से हार गए तो सारी प्रतिष्ठा झड़ जाएगी’, एक स्थानीय पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं.
कुलदीप के समर्थक उन्हें तूफानी विधायक कहते हैं, जो ज़िले की तीन सीटों से लड़ के जीत चुके हैं. पर सामान्य लोग दबी आवाज़ में उन्हें खनन माफिया बोलते हैं. लगभग हर पार्टी के चक्कर लगा चुके कुलदीप इस बार भाजपा में हैं और उनका मुकाबला बसपा के मोहम्मद इरशाद और सपा के मौजूदा विधायक बदलू खां से है. बालू के अवैध खनन से प्रदेश सरकार को करोड़ों की चपत लगाने का आरोप उन पर पहले भी लगता रहा है, अब कमल का दामन थाम के वे प्रदेश को अपराधियों और गुंडागर्दी से मुक्ति दिलाना चाहते हैं. बगल की सफीपुर सुरक्षित सीट से सपा के मौजूदा विधायक सुधीर कुमार रावत का मुकाबला बसपा के राम बरन कोरी और भाजपा के बम्बा लाल से है. सपा सरकार में चिकित्सा राज्य मंत्री रहे सुधीर कुमार के क्षेत्र में जगह-जगह ग्रामीण मतदाता ख़राब स्वास्थ्य सुविधाओं की शिकायत करते हैं और इसका दोष ‘मंत्रीजी’ को देते हैं.
जहां भगवंत नगर में एक पुत्र अपने पिता की सहानुभूति लहर पर सवार होकर विधानसभा पहुचने की फिराक़ में है वहीं उन्नाव सदर में एक पत्नी अपने स्वर्गीय पति के नाम पर वोट मांग रही है. उन्नाव शहर में सपा की प्रत्याशी मनीषा दीपक के पति दीपक कुमार 2012 में यहां से सपा के विधायक थे. निषादों के बड़े नेता कहे जाने वाले दीपक की मौत के बाद हुए चुनाव में भाजपा के पंकज गुप्ता यहां बाज़ी मारने में सफल रहे, पर इस बार मनीषा और बसपा के ब्राह्मण प्रत्याशी पंकज त्रिपाठी के चलते मुकाबला मुश्किल हो गया है. मुश्किल सपा के उदय राज सिंह यादव की भी बढ़ी हुई है क्योंकि चार बार से पुरवा सीट पर जीतते आ रहे यादव जी इस बार घनघोर एंटी-इन्कम्बेंसी का सामना कर रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि ज़िले की लगभग आधी सीटों पर मुख्य लड़ाई बसपा और सपा के बीच है और भाजपा उन पर कमज़ोर है.
बैसवाडा के इलाके में घूमते हुए निराला के गांव के बारे में पूछता हूं. लगभग हर आदमी को निराला और उनके गांव के बारे में पता है. गढ़ा कोला जाने से पहले निराला के नाम पर बना डिग्री कॉलेज मिलता है. अंदर जाता हूं तो राजकुमार त्रिपाठी से मुलाक़ात होती है. निराला की बेटी सरोज के कोई संतान नहीं थी, बेटे रामकृष्ण के परिवार वाले ज़रुर इलाहाबाद में बसे हुए हैं. दूसरे कुटुम्बी भी धीरे-धीरे अन्य जगहों पर बस गए.
राजकुमार जी के बाबा निराला के भाई थे, वे अपना गांव-जवार छोड़कर नहीं गए. आज राजकुमार जी अपने चचेरे बाबा के नाम पर बने महाविद्यालय में चपरासी की नौकरी कर रहे हैं. 1994 में जब कॉलेज खुला था तो कुछेक सौ रुपये पर भर्ती हुए थे, आज चारेक हज़ार रूपये महीना मिलता है. निराला के पैतृक मकान में भी उन्हीं का परिवार रहता है. एक पार्क भी बनवाया गया था उनके नाम पर गांव में, जिसमें गाय-भैसें जुगाली करती मिलती हैं. मकान पर बने स्मारक पर पहुंचता हूं. छोटा-सा मकान है, एक कच्चा हिस्सा ढह चुका है, कुछ नया बना है. निराला का बस्ट लगा है संगमरमर का. चारों तरफ उनकी कविताओं की पंक्तियां लिखीं हैं. शाम हो रही है इसलिए फोटो खींच कर जल्दी जल्दी कानपुर के लिए निकलता हूं. मोटरसाइकिल पर चलते-चलते डूबते सूरज को देख रहा हूं, मूर्ति के नीचे लिखी पंक्तियां दिमाग में बज रही हैं-
दिवसावसान का समय,
मेघमय आसमान से उतर रही है,
वह संध्या,
सुंदरी परी सी,
धीरे, धीरे, धीरे!
-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’