पुण्यतिथि विशेष: इतिहासकार बिपन चंद्र का कहना था कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ होते ही सांप्रदायिक दल लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों का गला घोंटने का प्रयास करेंगे.
1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के करीब एक पखवाड़े पहले प्रो. बिपन चंद्र अपनी टीम के साथ केरल में थे. एक व्याख्यान के दौरान उनसे पूछा गया कि वो अलग खालिस्तान राष्ट्र की मांग करने वाले जरनैल सिंह भिंडरावाले के बारे में क्या सोचते हैं?
उस वक़्त तक भिंडरावाले भारतीय राज्य के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन चुका था. पंजाब और दिल्ली के लोगों के लिए उसके खिलाफ बोलना तो सरासर जान का खतरा मोल लेना था.
लेकिन उन्होंने बिना डरे दो टूक लहजे में कहा, उसका तुरंत सफ़ाया कर दिया जाना चाहिए. बिपन (वो खुद को सिर्फ पहले नाम से बुलाया जाना पसंद करते थे) के साथी उनकी इस बेबाकी से चिंतित हो गए क्योंकि सबको लौटकर तो फिर दिल्ली ही आना था. लेकिन उन्होंने सबकी चिंता को हंसकर टाल दिया और हिम्मत बंधाते हुए कहा कि मुझे जो सही लगा, बोल दिया. अब भला इसमें डरना कैसा?
एक बुद्धिजीवी के लिए निडरता शायद सबसे बड़ी ज़रूरत होती है. बुद्धिजीवी का काम कठिन से कठिन समय में समाज को राह दिखाना है. इसलिए जरूरी नहीं कि इस जिम्मेदारी को निबाहते समय हमेशा वही बोला जाए जो लोग सुनना चाहें.
कई बार दवा के कड़वे घूंट की तरह कड़वा सच भी बोलना पड़ता है. भले ही उसकी कीमत कुछ भी हो- जान पर बन आए या आप एकदम अलग-थलग हो जाएं. इतिहास लेखन की दुनिया में बिपन इसीलिए अनूठे हैं क्योंकि उन्होंने जो समझा, वही कहा और जरूरत पड़ने पर अलोकप्रिय हो जाने का खतरा उठाने से कभी परहेज नहीं किया.
इसकी एक नहीं कई मिसालें दी जा सकती हैं. बिपन प्रतिबद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार थे. लेकिन जैसे ही उन्होंने मार्क्सवाद की परंपरागत रूढ़ियों से इतर नए तर्क और निष्कर्ष प्रस्तुत करना शुरू किए, कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए बिपन बेगाने हो गए.
रूढ़िवादी मार्क्सवाद की नज़र में उपनिवेशवादी आंदोलन बुर्जुवा हितों का पोषक या पूंजीपति समर्थक आंदोलन था. बिपन के लिए यह सभी वर्गों को साथ लाकर अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का एकजुट मुक़ाबला करने वाला राष्ट्रीय आंदोलन था.
रजनी पाम दत्त जैसे कम्युनिस्ट इतिहासकारों के लिए गांधीजी क्रांति की राह का रोड़ा थे. बिपन के लिए गांधीजी दुनिया के सबसे बड़े जननेता और क्रांतिकारी थे जो कि अंग्रेजी राज के खिलाफ़ लड़ने के अलावा भारतीय समाज के आमूलचूल परिवर्तन के लिए काम कर रहे थे.
अकादमिक लेखन की दृष्टि से कहें तो बिपन चंद्र भारत के विश्व बुद्धिजीवी थे. आधुनिक भारतीय इतिहास का शायद ही कोई ऐसा आयाम था जिसे लेकर उनकी बहस ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज की साम्राज्यवादी इतिहास लेखन परंपरा से न हुई हो.
वहीं दूसरी तरफ, इतिहास में रुचि रखने वाले आम भारतीय पाठक के लिहाज से कहें तो बिपन चंद्र भारत के सबसे लोकप्रिय जनइतिहासकार थे. एक पारम्परिक इतिहासकार अमूमन शुष्क ऐतिहासिक लेखन को ही इतिहास मानता है. लेकिन बिपन चंद्र के लिए इतिहास का आम पाठक ही इतिहास का सबसे बड़ा श्रोता था. लाखों की तादाद में बिकी उनकी किताबें इस बात की गवाह हैं.
उनकी किताबें इतनी सरल और सहज भाषा में लिखी हैं कि वे किसी भी सामान्य पढ़े-लिखे व्यक्ति के मन में दिलचस्पी पैदा कर देती हैं. फ़िराक गोरखपुरी कहते थे कि साहित्य इतना सरल होना चाहिए कि आठ साल के बच्चे से लेकर अस्सी साल के बूढ़े तक को समान रूप से समझ आए.
बिपन चंद्र ने तो इतिहास जैसे गंभीर और वैज्ञानिक विषय को ऐसे लिखा कि वो फ़िराक की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा उतरता है. कहा जा सकता है कि बिपन भारतीय राष्ट्र की इतिहास-दृष्टि को तराशने वाले इतिहासकार थे.
यही वजह है कि दिल्ली के उच्च अकादमिक केंद्रों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक आधुनिक भारत के इतिहास पर चली कोई बहस बिपन चंद्र के बिना पूरी नहीं होती.
भारतीय समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की एक और मिसाल देखिए. वो अपने शिष्यों से हमेशा कहते थे कि ऑक्सफ़ोर्ड-कैंब्रिज या किसी बड़ी जगह से बुलावा आए तो जाना न जाना तुम्हारी मर्ज़ी है. लेकिन अगर भारत के किसी छोटे शहर-क़स्बे से कोई आमंत्रण आए तो जरूर जाना है भले ही अपने पैसे लगाकर जाना पड़े. इसलिए बिपन और उनके शिष्य उन गिने-चुने इतिहासकारों में हैं जिन्होंने लगभग पूरा देश घूमकर लोगों को इतिहास पढ़ाया है.
आम शिक्षित भारतीयों तक इतिहास की सही समझ पहुंचाने के लिए वो कितना प्रतिबद्ध थे इसकी मिसाल उनके देहांत के बाद हुई एक श्रद्धांजलि सभा में प्रख्यात इतिहासकार रोमिला थापर देती हैं.
1960 के दशक में एनसीईआरटी ने बच्चों के लिए इतिहास की स्तरीय पाठ्यपुस्तकें लिखवाने का निर्णय लिया था. जब इस काम के लिए रोमिला थापर आदि से संपर्क किया गया तो उन्हें यह काम हाथ में लेने से बहुत संकोच हुया.
उनका मानना था कि पोस्ट ग्रेजुएट और रिसर्च स्कॉलर्स को पढ़ाने वाले उन जैसे लोगों के लिए छोटे बच्चों के लिए सरल भाषा में पाठ्यपुस्तकें लिखना बहुत कठिन काम है. लेकिन बिपन ने अपने चिर-परिचित जोशीले अंदाज़ में कहा कि अगर हम सबके अंदर थोड़ा-सा भी सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना और राष्ट्रप्रेम है तो हमें बच्चों के लिए यह क़िताबें जरूर लिखनी चाहिए.
आज के कठिन राजनीतिक परिदृश्य में बिपन की कुछ अंतर्दृष्टियां बहुत प्रासंगिक हो उठी हैं. उनका हमेशा से मानना था कि सांप्रदायिक ताकतों को राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने से हर हाल में रोकना चाहिए. क्योंकि राजनीतिक सत्ता पर काबिज होते ही सांप्रदायिक दल लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों का गला घोंटने का प्रयास करेंगे.
गैर-कांग्रेसवाद की सीमाओं को भी वो भली-भांति पहचानते थे और इसीलिए आरएसएस जैसे दक्षिणपंथी चुनौती के सामने वो कांग्रेस के नेतृत्व में सभी धर्मनिरपेक्ष दलों को साझा मोर्चा बनाने की हिदायत अपने लेखन के माध्यम से देते थे.
आज अगर आरएसएस-भाजपा एक प्रचंड बहुमत के साथ देश की सत्ता पर काबिज हैं तो उसकी वजह अतीत में छुपी हुई हैं. धुर कांग्रेस विरोध के नाम पर डॉ. राममनोहर लोहिया से लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों तक ने जिस तरह समय-समय पर मंच साझा किए उससे आरएसएस एक राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित होता गया.
गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस जिस कदर हाशिये पर चला गया था उसके लिए इस तरह के अवसरवादी राजनीतिक गठबंधन संजीवनी बन गए. जबकि कांग्रेस को हटाकर जो निर्वात राजनीतिक आकाश में पैदा होना था उसे भरने की ताकत किसी गैर कांग्रेस दल में नहीं थी.
दूसरा, उनका मानना था कि सांप्रदायिक ताकतों का मुक़ाबला करने के लिए उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विरासत सबसे प्रभावी हथियार है.
वो हमेशा मानते थे कि सांप्रदायिकता खुद में राष्ट्रवाद की विरोधी विचारधारा रही है क्योंकि आज़ादी की लड़ाई के दौरान मुस्लिम लीग और आरएसएस जैसे सांप्रदायिक दलों ने अंग्रेजों का साथ देते हुए कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर करने की कोशिशें की थीं. यानी उनके मुताबिक़ सांप्रदायिकता का मुकाबला राष्ट्रवाद के हथियार से ही किया जा सकता है.
तीसरा, बिपन मानते थे कि भारत के उपनिवेशवादी आंदोलन की सभी धाराओं और सभी नायकों के बीच एक आम सहमति का सामान्य आधार मौजूद था. वो सभी मिल-जुलकर अंग्रेजी राज के विरुद्ध लड़ रहे थे न कि आरएसएस की व्याख्या के अनुसार एक-दूसरे के विरुद्ध.
इसके अलावा, वे सभी धाराएं और नायक लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और गरीबों के प्रति पक्षधरता जैसे मुद्दों पर पूर्णतः एकमत थे. चूंकि भारतीय स्वाधीनता संघर्ष ने अपने समय के श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों को राजनीतिक पटल पर सक्रिय कर दिया था, उनके बीच वैचारिक मतभेद लाजमी थे. लेकिन इन मतभेदों का स्वरूप पूरी तरह राजनीतिक और व्यापक था, न कि व्यक्तिगत और क्षुद्र.
भारत में सांप्रदायिकता को लेकर बिपन की समझ बहुत गहरी और बारीक थी. यही वजह है कि मोदी सरकार ने अपने तीन साल के कार्यकाल में बिपन की दो लोकप्रिय किताबों को बाज़ार से हटाने का निष्फल प्रयास किया है.
मजेदार बात यह है कि इन किताबों के अंग्रेजी संस्करणों पर अभी तक कोई हमला नहीं हुआ है लेकिन चूंकि हिंदी संस्करण की पहुंच आम जनता तक होती है, उनको निशाना बनाकर बदनाम करने की कोशिश की गई है.
स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास को समग्र रूप से समेटने वाली उनकी क़िताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ को हटाने के लिए बिपन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने भगत सिंह को आतंकवादी कहकर संबोधित किया है. जबकि सच यह है कि बिपन ने जब यह किताब लिखी थी तब उन्होंने क्रांतिकारी आतंकवादी शब्द खुद भगत सिंह के लेखन से उठाया था क्योंकि भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारी खुद की राजनीतिक विचारधारा को इसी नाम से पुकारते थे. लेकिन 21वीं सदी की शुरुआत से जिस तरह इस्लामिक आतंकवाद एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा, बिपन खुद इस शब्द को लेकर असहमत हो गए थे.
2007 के अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि जब भी इस किताब का संशोधित संस्करण प्रकाशित होगा, यह शब्द निश्चित रूप से हटा लिया जाएगा. लेकिन अपनी दिनोंदिन कमजोर होती आंखों की रौशनी और भगत सिंह पर एक किताब लिखने की उनकी तमन्ना के चलते यह काम अधूरा ही रहा गया.
अब किताब के सहलेखकों-मृदुला मुख़र्जी, आदित्य मुख़र्जी और सुचेता महाजन- ने इस किताब के हिंदी संस्करण को संशोधित कर दिया है फिर भी यह किताब बाज़ार में फ़िलहाल उपलब्ध नहीं है.
इस किताब को लेकर आरएसएस की आपत्ति दरअसल दो वजहों से है- पहली तो यही कि ये किताब भारतीय जनमानस को भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की वह महागाथा सुनाती है जिसमें आरएसएस ने भाग लेने की बजाय अंग्रेजों से वफादारी निभाई थी.
दूसरी वजह यह है कि इस किताब के तीन अध्याय विस्तार से भारत में सांप्रदायिकता के उद्भव और विकास की कहानी बयान करते हैं जिससे मुस्लिम लीग और आरएसएस जैसे सांप्रदायिक दलों की कलई खुल जाती है.
ध्यान रहे उनकी दूसरी किताब ‘साम्प्रदायिकता: एक प्रवेशिका’ गुजरात दंगों के बाद लिखी गई थी जिसका उद्देश्य आम लोगों को सहज भाषा में सांप्रदायिकता के खतरे से आगाह करना था. इस किताब के हिंदी संस्करण को भी इसके प्रकाशक नेशनल बुक ट्रस्ट ने आगे और छापने से इनकार कर दिया है.
आज़ादी के लड़ाई की हमारी वर्तमान ऐतिहासिक समझ के लिए हम सब बिपन के ऋणी हैं. एक प्रबुद्ध विचारक की तरह वो न सिर्फ़ हमें स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास से परिचित कराते हैं बल्कि उसे वर्तमान संदर्भों से जोड़ते हुए एक विचारधारा का निर्माण भी करते हैं.
एक ऐसी विचारधारा जो आज़ादी की लड़ाई को अपने राष्ट्र की बुनियाद मानती है और उस बुनियाद पर टिके रहकर ही आगे बढ़ने में विश्वास रखती है. इस राह में उन्हें न सिर्फ़ दक्षिणपंथ की कटुता का सामना करना पड़ा बल्कि मुख्यधारा के वामपंथ ने भी उनसे दूरी बना लेना ही बेहतर समझा.
इस मामले में कहें तो बिपन इतिहास लेखन के गांधी हैं जिन्हें दोतरफ़ा हमलों का सामना करना पड़ा लेकिन वो अपने विचारों पर टिके रहने का जोखिम लेने और उसकी कीमत चुकाने को हमेशा तैयार रहे.
30 अगस्त 2014 को यानी आज ही के दिन बिपन हमें छोड़कर चले गए थे. यह महज संयोग है कि उनके जाने का समय लगभग वही था जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत महसूस की जाने वाली थी. जो बातें बिपन लगभग पिछले तीन दशकों से कह रहे थे, आज कई बुद्धिजीवी बिना उनका नाम लिए वही बातें दोहरा रहे हैं.
इतिहास लेखन की तमाम बहसों में उलझे रहे बिपन को शायद ही कभी यह अंदाज़ा रहा होगा अपनी मृत्यु के बाद वो भारतीय राजनीति को उसके सबसे बुरे संकट से उबारने की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण बुद्धिजीवी हो जाएंगे.
ध्यान रखिए, आरएसएस की राजनीति और रणनीति की सबसे प्रभावी काट अगर किसी एक बुद्धिजीवी के पास इतनी समग्रता के साथ मौजूद है तो वो बिपन चंद्र हैं.
(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं)