इस वक़्त बड़ी चुनौती आतंकियों पर दबाव बनाने की है. इसके लिए समझदारी की ज़रूरत है लेकिन यह सेना प्रमुख के बयान और मोदी सरकार के इससे निपटने के तरीके में कम ही दिखता है.
एक हॉलीवुड फिल्म का मशहूर डायलॉग है, ‘विथ ग्रेट पावर कम्स ग्रेट रिस्पॉन्सिबिलिटी’ यानी बड़ी ताकत के साथ बड़ी ज़िम्मेदारियां भी आती हैं. नए सेना प्रमुख बिपिन रावत शायद अभी यह सीख ही रहे हैं कि जब आप उच्च पद पर हों, तब आपका सोच-समझकर बयान देना कितना ज़रूरी हो जाता है.
इस बात में कोई शक़ नहीं है कि घाटी में सेना के ऑपरेशन के समय बाधा डालने वालों या किसी एनकाउंटर में उनका सहयोग न करने वालों को ‘आतंकियों जैसा ही समझना’ वाला उनका बयान ग़ुस्से में दिया गया था, पर इस बयान में अतिरेक है यह स्पष्ट नज़र आता है. साथ ही यह कानूनी मानकों के अनुरूप भी नहीं है. ख़ासकर उनका यह सोचना कि आईएसआईएस या पाकिस्तान के झंडे दिखाना आतंकवाद के समकक्ष आता है.
उनका प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ कड़ा क्रदम उठाने की चेतावनी देना जवाब से ज़्यादा सवाल खड़े करता है, क्योंकि सेना की भाषा में समझें तो ‘कड़े कदम’ का मतलब ‘शूट टू किल’ समझा जा सकता है.
कोई भी स्वाभिमानी सेना निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियां नहीं बरसाएगी, भले ही वे पत्थरबाज़ी कर रहे हों; उनका कर्तव्य हथियारबंद आतंकवादियों से निपटना है न कि आम प्रदर्शनकारियों से.
आम जनता से निपटने की ज़िम्मेदारी पुलिस की है. किरण रिजिजू का रावत के बयान के समर्थन में आकर यह कहना कि ‘एक्शन उनके ख़िलाफ़ लिया जाएगा जो राष्ट्रहित में काम नहीं करते क्योंकि राष्ट्रहित सर्वोपरि है’ बिल्कुल मूर्खतापूर्ण है.
राष्ट्रहित की किसी भी दुहाई से आप निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर चलाई गईं गोलियों को उचित नहीं ठहरा सकते, और अगर देखा जाए तो ऐसा करना एक वॉर क्राइम तो होगा ही, साथ ही राष्ट्रविरोधी भी होगा.
सेना प्रमुख हाल ही में घाटी में लगातार जान गंवा रहे सैनिकों की बढ़ती संख्या को लेकर चिंतित हैं. पर इसके दो कारण हैं. पहला तो ये कि सुरक्षा बल सर्दियों में घाटी के सीमा से सटे इलाकों में उन आतंकवादियों को पकड़ने के लिए ऑपरेशन लॉन्च करते हैं जो मौसमी कारणों से जंगल से निकलने को मजबूर होंगे.
दूसरा, सरकार और सुरक्षा बलों ने कश्मीर समस्या को लेकर अपना रुख़ इतना सीमित कर लिया है कि आतंकवाद-विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए कोई सार्थक उपाय निकालने की बजाय डंडे के ज़ोर से स्थितियां बदलने की कोशिश की जा रही है.
यहां सबसे ज़्यादा ज़रूरी है पूरे मुद्दे को समझना. पत्थरबाज़ी हिंसक है पर आप इसकी तुलना हथियारों से लैस आतंवादियों से नहीं कर सकते. हथियारबंद आतंकियों से बदूंक के ज़रिये ही निपटा जा सकता है जबकि पत्थर फेंकने वालों से निपटने का तरीका कुछ भी हो पर गोलियां बरसाना तो नहीं हो सकता.
एक और बात, कश्मीर में सरकार-विरोधी हर अतिवादी आतंकवादी नहीं है. हां, पर जो जान-बूझकर सामान्य नागरिकों को अपना निशाना बनाते हैं, उन्हें आतंकवादी कहा जा सकता है.
इसका अर्थ यह है कि आप बुरहान वानी की मौत के लिए सुरक्षा बलों को दोषी नहीं मान सकते. बुरहान ख़ुद को जिहादी कहा करता था और मरो या मारो की नीति पर चलता था. पर फिर भी उसे ‘आतंकवादी’ कहना ग़लत होगा क्योंकि हमारे लिए भले ही वो एक ग़लत रास्ते पर चला गया युवक हो, उसके और घाटी के ढेरों लोगों के दिमाग में उसकी छवि एक सैनिक की थी, जो किसी कारण विशेष के लिए लड़ रहा था.
और जहां तक मेरी जानकारी है वानी और उसके साथी आतंकियों ने कभी मासूमों को अपना निशाना नहीं बनाया. कश्मीरी अलगाववादियों को कमज़ोर करने की गरज़ से उनके लिए ‘आतंकी’ शब्द प्रयोग करने से मुश्किल कम होने की बजाय बढ़ेंगी ही.
यह अनुचित तो होगा ही साथ ही इससे ग़लत परिणाम ही सामने आएंगे. इस मामले पर कोई स्पष्ट नज़रिया न रखकर सरकार अपने लिए ही मुश्किलें खड़ी कर रही है. ये ठीक है कि वो आतंकियों से बातचीत की उम्मीद नहीं कर सकते पर अतिवादियों से तो इसकी गुंजाइश है. (याद करें डोवाल की एनएससीएन (आईएम) से बातचीत)
किसी हिंसक नागरिक विरोध का हिंसक हथियारबंद आतंकवाद में तब्दील हो जाना कोई अच्छा संकेत नहीं है. जनरल रावत का आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन में बाधा डालने वालों को चेताना बिल्कुल जायज़ है.
ऐसा कई बार हो जाता है कि किसी मुठभेड़ के समय बड़ी भीड़ इकट्ठी होकर प्रदर्शन करने लगती है. यह रिस्की तो है ही साथ ही यह भी दिख जाता है कि इस ऑपरेशन में बाधा डालने के उद्देश्य से यह भीड़ जमा हुई है. अगर इस तनाव भरे माहौल में ग़लती से ही किसी ग्रेनेड या एके-47 का निशाना चूक जाए तो तबाही हो सकती है.
शायद नागरिक संस्थाओं और सुरक्षा बलों को इस स्थिति से निपटने का कोई दूसरा रास्ता तलाशने की ज़रूरत है. हालांकि यहां एक परेशानी और है कि वर्तमान में मारे गए कई आतंकी कश्मीरी ही हैं और जब भी ये मारे जाते हैं तब आसपास रहने वाले इनके परिजन और रिश्तेदार ग़ुस्सा हो जाते हैं.
दूसरी ओर, केंद्र सरकार के रवैये पर भी कई सवाल खड़े होते हैं. सरकार ने आतंकवादियों से निपटने का एकआयामी तरीका ही बना रखा है जिसमें इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता कि जिस कारण के लिए वो (आतंकी) लड़ने का दावा करते हैं, उस पर उन्हें जनता से कितना समर्थन मिला हुआ है.
देश के कई तथाकथित सेंट्रल इंटेलिजेंस विशेषज्ञ भारत के इस ‘इज़रायली’ तरीके को सही मानते हैं पर भारत और इज़रायल की स्थितियों में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है. वहां लगातार हुए सेना ऑपरेशनों के चलते किसी को कोई उम्मीद नहीं रह गई है कि कभी इन स्थितियों में कोई सुधार होगा और शायद इसीलिए इज़रायली कोई राजनीतिक वार्ता भी नहीं चाहते.
इसके अलावा विरोध से निपटने का एक दूसरा श्रीलंकन तरीका भी है जहां ‘स्कॉर्च्ड अर्थ पॉलिसी’ पर काम किया जाता है. इस नीति के अंतर्गत जहां भी विद्रोह उपजता है वहां के सभी संसाधनों को नष्ट कर दिया जाता है या फ़सलों को आग लगा दी जाती है, जिसका नतीजा बेकसूर भुगतते हैं, हज़ारों लोग विस्थापितों का जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं.
पाकिस्तानियों का तरीका भी कुछ ऐसा ही है. जहां भी वे हमला करने के लिए पहुंचते हैं, वहां से पहले सामान्य नागरिकों को हटा दिया जाता है. घाटी में आतंकवाद की समस्या वज़ीरिस्तान या श्रीलंका जितनी ख़राब कभी नहीं हुई. आज उन आतंकियों के पास ज़्यादा से ज़्यादा एके-47 और ग्रेनेड होंगे. ऐसे में इज़रायली या श्रीलंकाई तरीका प्रयोग में लाना हथौड़े से मक्खी मारने जैसा होगा, जिसके परिणाम भीषण होंगे.
इस वक़्त सबसे बड़ी चुनौती आतंकियों पर दबाव बनाए रखने की है. इसके साथ ही राजनीतिक तरीकों से उन्हें कमज़ोर करने के बारे में भी सोचा जा सकता है. इसके लिए समझदारी और धैर्य की ज़रूरत है जो वर्तमान मोदी सरकार के इस समस्या से निपटने के तरीके में कम ही दिखता है.
इसलिए परिणाम यह है कि स्थितियां 1997-2004 जैसी हो चुकी हैं, जब हर साल सुरक्षा बलों के सैकड़ों जवान अपनी जान गंवा देते थे. साल 2000 में तो जवानों की मौत का यह आंकड़ा 638 तक पहुंच गया था. 2007 से 2012 के बीच यह आंकड़ा 100 से 17 पर पहुंच गया था.
यहां प्रशासन को यह सोचने की ज़रूरत है कि क्यों बीते दो सालों में इन आतंकियों को घरेलू समर्थन बढ़ा है, क्यों जनता जान-बूझकर उन जगहों पर भीड़ बनकर इकट्ठी हो जाती है जहां गोलीबारी या मुठभेड़ चल रही होती है.
सरकार में बैठे मंत्री कहते हैं कि लोगों को पत्थर फेंकने के लिए पाकिस्तान द्वारा पैसा दिया जाता है पर ऐसा सोचने वाली बात है कि क्या कोई निहत्थी भीड़ जान हथेली पर रखकर सेना द्वारा चलाई जा रही गोलियों के बीच पैसे के लिए सेना पर ही पत्थर फेंकने आ सकती है?
सरकार को चिंतन करने की ज़रूरत है. उन्हें इससे भी बचना है कि कहीं 1993 में बिजबेहारा जैसी कोई घटना न दोहराई जाए, जहां प्रदर्शनकारियों की निहत्थी भीड़ पर गोलियां चलवानी पड़ें. 1993 में बिजबेहारा में हुई वो घटना आज भी देश की छवि पर कलंक है.
(लेखक आॅब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट शोधकर्ता हैं)