एक के बाद एक नोटबंदी और जीएसटी को लागू किए जाने को व्यापक स्तर पर रुकावट पैदा करने वाले कदमों के तौर पर देखा जा रहा है.
राजनीतिक तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों को यह यकीन दिलाने की कोशिश की थी कि नोटबंदी गरीबों के हित में उठाया गया कदम है, जिसका मकसद तुलनात्मक रूप से अमीर लोगों के पास मौजूद काला धन को बाहर निकालना है.
भारतीय रिज़र्व बैंक ने आख़िरकार अब जाकर नोटबंदी से संबंधित आंकड़े जारी किए हैं, जो ये दिखाते हैं कि पिछले साल नवंबर में चलन से बाहर किए गए नोटों का 99 फीसदी हिस्सा बैंकों में लौट आया है.
इसका मतलब ये है कि काला धन रखने वाले लोग अपने पैसे को बैंकिंग व्यवस्था में वापस लाने में कामयाब रहे हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली भले ही इन आंकड़ों को किसी नए तरीके से घुमाने की कोशिश करें, लेकिन यह साफ है कि नोटबंदी एक बहुत बड़ी नीतिगत नाकामी साबित हुई है.
पिछले साल नवंबर में देश के साथ जो मौद्रिक खिलवाड़ किया गया उसका नतीजा नोटबंदी के बाद औद्योगिक विकास में गिरावट, बैंकों द्वारा दी जाने वाले क़र्ज़े में कमी और रोज़गार निर्माण में आई सिकुड़न के तौर पर सबके सामने है.
याद कीजिए, हमें कहा गया था कि नोटबंदी से बैंकों के पास जमा रकम (बैंक डिपाॅजिट्स) में भारी इज़ाफा होगा, जिसका इस्तेमाल व्यापार जगत को क़र्ज़ देने के लिए किया जा सकेगा. लेकिन हकीकत ये है कि बैंकों द्वारा दिए जाने वाले क़र्ज़ की वृद्धि दर पिछले 60 सालों में सबसे निचले स्तर पर है.
वित्त मंत्री जैसा काबिल कहानीकार भी ऐसे नकारात्मक आंकड़ों के सहारे कोई खुशनुमा कहानी बुनने में कामयाब नहीं हो सकता. ये अलग बात है कि इसके बावजूद उन्होंने इसकी कोशिश छोड़ी नहीं है.
बुधवार की शाम को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक हैरान करने वाला दावा किया कि बंद कर दिए गए नोटों के 99 फीसदी हिस्से के बैंकों में लौट आने में कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि काले धन को जब्त करना कभी सरकार का लक्ष्य था ही नहीं. उन्होंने कहा, ‘हम अर्थव्यवस्था के व्यवहार में बदलाव चाहते थे’.
चलिए, हम उनके इन दोनों दावों की जांच करते हैं. पहला, किसी और ने नहीं, ख़ुद वित्त मंत्री ने ही नवंबर में यह दावा किया था कि पहले के अनुभवों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चलन से बाहर की गई मुद्रा का 15-20% हिस्सा यानी करीब 3 लाख करोड़ रुपया बैंकिंग सिस्टम में वापस नहीं लौटेगा. इसे जब्त किया गया पैसा माना जा सकता है जो आरबीआई की संपत्ति होगा. यह पैसा आख़िरकार सरकार को गरीबों के कल्याण के लिए दे दिया जाएगा.
उस समय के अटाॅर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने यह बात कही थी. आखिर, अब जेटली यह कैसे कह सकते हैं कि काले धन को जब्त करना कभी सरकार का मकसद था ही नहीं? जो नकद सिस्टम में वापस नहीं लौटता है, वह ख़ुद-ब-ख़ुद जब्त हो जाता है. यह एक तरह से 100% की दर से कर लगाया गया पैसा है.
वित्त मंत्री कहानी को नए तरीके से घुमाने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि चलन से बाहर किए गए लगभग सारे नोट वापस लौट आए और कुछ भी नष्ट नहीं किया गया, न ही जब्त किया गया.
सरकार के लिए यह एक बेहद शर्मिंदगी वाली स्थिति है कि आरबीआई को नए नोटों की छपाई और नोटबंदी से जुड़े दूसरे इंतज़ामातों पर 30,000 करोड़ से ज़्यादा ख़र्च करना पड़ा.
तथ्यों के लिहाज़ से देखें, तो आरबीआई को नोटबंदी के कारण जितना ख़र्च करना पड़ा, वह जब्त किए गए 1000 या 500 के नोटों की कुल रकम- 16,000 करोड़ की तुलना में कहीं ज़्यादा है. इसी घाटे के कारण आरबीआई 2016-17 के लिए केंद्र को पिछले साल की तुलना में बेहद कम डिविडेंट दे पाया.
हकीकत ये है कि नोटबंदी के बाद पहले दिन से मोदी का लहज़ा काले धन को जब्त करने की धमकी देने वाला था. देशभर में बड़े पैमाने पर छापेमारी भी हुई. शुरुआती हफ्तों में सरकार और आरबीआई की तरफ से जबरदस्त उत्साह का प्रदर्शन किया गया.
बैंकों में जमा हो रहे नकद की हर रोज़ जानकारी दी गई. लेकिन, दिसंबर में अचानक आरबीआई ने इस बारे में दैनिक रिपोर्ट देना बंद कर दिया, क्योंकि सरकार को यह एहसास हो गया कि बैंकों में जिस मात्रा में बंद किए गए नोटों की वापसी हो रही थी, उससे प्रधानमंत्री की छवि ख़राब होने का ख़तरा पैदा हो गया था.
दिसंबर के अंत तक करीब 13 लाख करोड़ रुपये बैंकों में वापस लौट आए थे. संभवतः आरबीआई पर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर जमा हो रहे नकद के बारे में और जानकारी न देने का दबाव बनाया गया.
इसी दरमियान केंद्र ने नोटबंदी के मुहावरे को नया रूप देने की कोशिश करते हुए इसका लक्ष्य अर्थव्यवस्था का ज़्यादा डिजिटलीकरण, जाली नोटों और आतंकी फंडिंग पर लगाम लगाना बताना शुरू कर दिया.
यह समग्र विफलता और भी स्पष्ट तरीके से तब दिखाई देती है जब हम यह महसूस करते हैं कि काले धन पर होने वाली पूरी बहस कुल काली संपत्ति, जो जीडीपी का करीब 40 फीसदी है, के सिर्फ नकद हिस्से पर केंद्रित है.
इस तरह से देश में कुल काली संपत्ति करीब 800 अरब डॉलर के करीब है और इसका नकद हिस्सा महज 6% यानी 50 अरब डॉलर है. काली संपत्ति का बाकी बचा हुआ 750 अरब डॉलर का हिस्सा रियल एस्टेट, सोना और इसी तरह के दूसरे क्षेत्रों में है, जिसे अभी तक छुआ भी नहीं गया है. ज़ाहिर है, अभी बहुत लंबी दूरी तय की जानी है.
जेटली ने कहा कि सरकार बेनामी संपत्तियों पर संशोधित कानून के तहत कार्रवाई करेगी, लेकिन अभी तक हमने इस नाम पर आयकर विभाग द्वारा विपक्षी पार्टियों की बेनामी संपत्तियों को निशाना बनाने के अलावा कुछ और नहीं देखा है.
हाल ही में लोकसभा में ओडिशा के सांसद जय पांडा ने सरकार से शेल कंपनियों के बेनामी लाभ-प्राप्तकर्ताओं की पहचान करने को कहा, जिनके पास खूब संपत्ति हो सकती है. पांडा को जवाब देते हुए जेटली ने कहा कि कंपनियों के निदेशकों के तौर पर दर्ज ‘रसोइयों और ड्राइवरों’ को भी नए बेनामी कानून में शामिल किया जाएगा.
क्या किसी को एनडीए सरकार के एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री के स्वामित्व वाली पूर्ति ग्रुप आॅफ कंपनीज़ के डायरेक्टर बने रसोइयों/ड्राइवरों के बारे में याद है? इसलिए जेटली नोटबंदी की चाहे जो भी नई कहानी बनाएं, लोग तब तक संतुष्ट नहीं होंगे जब तक ज़मीन पर ठोस कार्रवाई नहीं होती है.
बुधवार को वित्त मंत्री ने दावा किया कि असली लक्ष्य ज़्यादा डिजिटलीकरण और व्यवहारगत बदलाव लाना था न कि काले धन को जब्त करना. लेकिन, आरबीआई के आंकड़े बताते हैं कि इस साल अप्रैल में डिजिटल लेन-देन में पिछले महीने की तुलना में 27% की गिरावट आई.
फ्लिपकार्ट और दूसरी महत्वपूर्ण आॅनलाइन खुदरा कंपनियां नोटबंदी से पहले के स्तर की नकद खरीदारी देख रही हैं, जब कुल खरीद का 60% हिस्सा नकद आधारित था. मेरे एक मित्र ने जब दिल्ली में अपना मकान बेचना चाहा तो मकान के जो खरीदार आए, वे 50% रकम नकद में देना चाहते थे. क्या व्यवहार में इसी बदलाव की बात जेटली कर रहे हैं?
जेटली ने यह दावा भी किया कि व्यवहार में अंतर की जांच करने के लिए नोटबंदी को जीएसटी लागू करने के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए.
यह सही है कि अगर जीएसटी को सही तरीके से लागू किया जाता है तो इससे छोटे प्रतिष्ठानों के काम करने के तरीके में बड़ा बदलाव आएगा. लेकिन, अगर उद्देश्य यही था, तो इसके लिए अकेले जीएसटी ही काफी था. और तथ्य यह भी है कि जीएसटी की तैयारी तो पहले से ही हो रही थी और इसका किसी को कोई अंदाज़ा नहीं था कि जीएसटी लागू करने से ठीक पहले नोटबंदी का सामना करना पड़ेगा.
वास्तव में एक के बाद एक नोटबंदी और जीएसटी को लागू किए जाने को व्यापक स्तर पर रुकावट पैदा करने वाले कदमों के तौर पर देखा जा रहा है, जो साफ तौर पर छोटे कारोबारों के लिए बहुत अच्छा नहीं है.
अंत में जेटली ने यह तर्क दिया है कि सरकार द्वारा बनाई जा रही राजनीतिक फंडिंग में सुधार की योजना को भी नोटबंदी के पैकेज के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए.
यह पूरी तरह से हास्यास्पद है, क्योंकि एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक हाल के वर्षों में कॉरपोरेट के कुल चंदे का 80% अकेले भाजपा को गया है.
अपने काले धन को सफलतापूर्वक सिस्टम में खपाने वाले कॉरपोरेट इस धन का 80% भाजपा को देंगे. और सरकार द्वारा लाए गए नए कानून के मुताबिक इस धन को सार्वजनिक करने की भी ज़रूरत नहीं है. दिलचस्प ये है कि यह सब पारदर्शिता के नाम पर किया जा रहा है!
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