मंत्रिमंडल के विस्तार को दंत कथाओं में मत बदलिए. ये सिर्फ राजनीतिक जुगाड़ का विस्तार है. मंत्री फेल नहीं हुए हैं, सरकार फेल हुई है, वो आइडिया फेल हुआ है जिसमें ज़बरन हवा भरी जा रही थी.
कैबिनेट का विस्तार पत्रकारों के लिए सूत्रों के हाथों खेलने का सावन होता है. दिल्ली शहर में सूत्रों के तरह-तरह के बादल घुमड़ते रहते हैं और उनके नीचे हमारे पत्रकार भीगते रहते हैं. कुछ बातें सही होती हैं और कुछ बातें ग़लत होती हैं.
कोई भी कैबिनेट विस्तार तीन चार दिनों की अटकलबाज़ी के बग़ैर नहीं होता है. इसी समय पता चलता है कि मोदी सरकार के भीतर कुछ सूत्र भी हैं. बाकी ख़बरें तो विज्ञापन और प्रेस रिलीज़ से मिल ही जाती हैं. सूत्रों के आधार पर मंत्रियों के आने-जाने की ख़बर बांचने वाले इन पत्रकारों को कभी ऐसे सूत्र नहीं मिलते हैं जो सरकार के भीतर चलने वाले खेल को बाहर ला सकें.
कैबिनेट विस्तार समाप्त होते ही ये सूत्र शिमला घूमने चले जाएंगे. इसके बाद राजनीतिक संपादक कद के पत्रकार ट्वीटर पर सरकार के बचाव में लग जाएंगे और कभी-कभी गोरखपुर कांड जैसी ख़बरों पर आलोचना कर पत्रकार होने का लाइसेंस नया कर लेंगे. यही होता आया है. यही हो रहा है. यही होता रहेगा.
कैबिनेट विस्तार के कई आधार होते हैं. सबसे बड़ा आधार होता है महानतम घोषित हो चुके नेता को फिर से महान बताना. उनकी जयजयकार करना कि कैसे उनकी हर बात पर नज़र है. वे काम में कोताही बर्दाश्त नहीं करते हैं. सचिवों के साथ लगातार समीक्षा बैठक करते हैं. ऐसे वैसे मंत्रिमंडल विस्तार नहीं होता है. पहले एक्सेल शीट बनी है, उस पर सबके प्रदर्शन का चार्ट लिखा है, उसमें जिसके अंक कम होंगे, वही हटाए जा रहे हैं.
राजनीति में कॉरपोरेट के टोटके बड़ी आसानी से चल जाते हैं. अब उस एक्सेल शीट को किसने देखा है, सूत्र ने या पत्रकारों ने? बोगस ख़बरें चल रही हैं कि खुफिया एजेंसियों ने एक मंत्री को भ्रष्टाचार करते हुए पकड़ा है, उन्हें हटाया जा रहा है. यह ख़बर किसके पास है कि भ्रष्टाचार में लिप्त उस मंत्री के ख़िलाफ एफआईआर होगी, संपत्ति ज़ब्त होगी? कब पता चला कि ख़ुफिया एजेंसी ने मंत्री का करप्शन पकड़ लिया है, रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट से पोल खुलने के बाद या पहले? जब पता चला तो प्रधानमंत्री ने क्या किया, सीबीआई से जांच कराई ,या ज्योतिष से मंत्रिमंडल बदलाव की तारीख पूछने लगे?
ज सिंह की कई तस्वीरें आ गईं सृजन घोटाले की प्रमुख पात्रा मनोरमा देवी के साथ, क्या उनके बारे में खुफिया एजेंसियों को कोई जानकारी है. और यह कैसी सरकार है कि मंत्रियों के पीछे ख़ुफिया एजेंसियां लगी हैं, क्या प्रधानमंत्री को अपने मंत्रियों पर भरोसा नहीं हैं? किस्से पर किस्सा चल रहा है.
राधा मोहन सिंह कृषि मंत्रालय से हटाए जाएंगे, वे फेल हुए हैं या मोदी जी फेल हुए हैं? 2022 तक आमदनी दोगुनी करने का झांसा देने वाला आइडिया किसने दिया था, राधा मोहन ने या मोदी जी ने? वादा किया था कि दुगना दाम देंगे, दिया? ये क्या राधा मोहन सिंह ने अपनी मर्ज़ी से नहीं दिया या सरकार को देना ही नहीं था?
मोदी सरकार मंत्रिमंडल विस्तार डायमंड कॉमिक्स का नया अंक लगता है. जिसके नए अंक में बताया जा रहा है कि मोदी जी सांसदों को मंत्री बनाकर अपने वॉर रूम में चले गए थे. वहां से चुपचाप देख रहे थे कि कौन मंत्री काम कर रहा है, कौन नहीं. बिग बॉस की तरह कभी कभी आकाशवाणी के ज़रिए चेतावनी दे दिया करते थे.
मशहूर अमेरिकी सीरियल स्टार ट्रेक के कैप्टन कर्क लगते हैं अपने प्रधानमंत्री. ऐसा लगता है कि यह सरकार नहीं है, यूएसएस इंटरप्राइज नाम का अंतरिक्षयान है. जो भी एलियन से लड़ने में फेल होगा, कैप्टन कर्क उसे हटा देंगे.
कोई नहीं बता रहा है कि ये एक्सेल शीट क्या अगस्त में ही तैयार हुई है या पहले से बनती चली आ रही थी? क्या उस एक्सेल शीट में उनका भी नाम दिखा, जिनकी वजह से जीडीपी 5.7 प्रतिशत पर आ गई, नोटबंदी फेल हो गई, नौकरियां कम हो गईं, मेक इन इंडिया फेल हो गया, मैन्यूफैक्चरिंग का ग्रोथ रेट एक साल में 10 प्रतिशत से घटकर 2.4 प्रतिशत पर आ गया? क्या कैप्टन कर्क इन सब एलियन पर भी नज़र गड़ाए हुए हैं?
पत्रकार मोदी जी की तारीफ में उनका बड़ा नुकसान कर देते हैं. अभी बवाना उपचुनाव हो रहे थे तो ख़बर आई कि प्रधानमंत्री बवाना पर नज़र बनाए हुए हैं. मैं अभी तक हैरान हूं कि वे कैसे नज़र बनाए हुए हैं, अपने अंतरिक्ष यान से बवाना देख रहे हैं या वहीं भेष बदलकर रातों को घूमते हैं. कई बार पत्रकारों के विश्लेषण से लगता है कि मोदी जी प्रधानमंत्री नहीं हैं. शहंशाह फिल्म के किरदार हैं. अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर, एक मसीहा निकलता है…उसे लोग शहंशाह कहते हैं.
मेरी एक सिफारिश है मोदी जी से कि वे ऐसे पत्रकारों और एंकरों से किनारा कर लें. वैसे भी प्रोपेगैंडा का एक सिद्धांत है. जिसका काम हो जाए उसे चलता कर देना चाहिए. उसी काम को करने के लिए नए चेहरे लाए जाते हैं. कई बार जनता इन एंकरों के कारण सरकार से ज़्यादा चिढ़ जाती है. वैसे तो उनकी जीत अब यदा यदा ही नहीं सदा सदा के लिए तय है, फिर भी हार का कोई कारण बन जाए, उसे हटाने में कोई बुराई नहीं है.
सरकार को चाहिए कि मीडिया को गोदी मीडिया में बदलने के बाद उसकी बेवकूफियों पर भी कंट्रोल करे. मोदी सरकार को मंत्रिमंडल ही नहीं, मीडिया में भी फेरबदल की ज़रूरत है. खुशामद की परंपरा कोई नहीं बदल सकता, नए चेहरे हों तो इरशाद में दम आ जाता है.
कैबिनेट विस्तार की रोचक कथाओं का कमाल देखिए. जिन विश्लेषणों में एक मंत्री ख़राब प्रदर्शन के कारण हटाया जा रहा है, उन्हीं विश्लेषणों में कोई सिर्फ इसलिए मंत्री बन रहा है कि उसके राज्य में चुनाव है.
चुनाव सापेक्षिक उपयोगिता का सिद्धांत अजर-अमर है. जब भी मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार की ख़बरें चलती हैं, टीवी स्क्रीन पर अरुण जेटली का चेहरा खूब फ्लैश करता है. क्या रक्षा मंत्री रहेंगे, क्या वित्त मंत्री रहेंगे? मीडिया अपनी तरफ से दोनों में से एक मंत्रालय से जेटली जी को हटाता रहता है और उसमें किसी न किसी को फिट करता रहता है.
इतनी ही दिक्कत है तो कभी अलग से इसी पर चर्चा करने की हिम्मत क्यों नहीं है कि इस देश में कोई फुल टाइम रक्षा मंत्री नहीं है. मगर इस सवाल को वो विस्तार की खबरों के बहाने निपटा देता है.
उसी तरह एक और मंत्रालय है मानव संसाधन. समझ नहीं आता कि इस मंत्रालय में आकर मंत्री फेल हो जाते हैं या मंत्री आकर इस मंत्रालय को फेल कर देते हैं. मंत्री से ज़्यादा तो दीनानाथ बत्रा सुर्ख़िया बटोर ले जाते हैं.
आख़िर जब वे इतने क़ाबिल हैं तो दीनानाथ बत्रा को मानव संसाधन मंत्री बना देने में क्या दिक्कत है. खुदरा खुदरा बदलाव से अच्छा है, एक ही बार में कबाड़ में बदल देने में कोई दिक्कत नहीं है. वैसे भी उनके पहले से ये शिक्षा व्यवस्था कबाड़ में बदल चुकी है.
पूर्ववर्ती सरकारों ने कोई बहुत भला नहीं किया है. जब सबको आकर प्राइवेट दुकान ही खोलनी है और एक्सलेंस के नाम पर सरकारी यूनिवर्सिटी में चाटुकार वीसी ही नियुक्त करने हैं तो यह काम बत्रा जी से बेहतर कौन कर सकता है. आख़िर उनकी बहुमुखी प्रतिभा को नज़रअंदाज़ क्यों किया जा रहा है. जब वही बाहर से कोर्स बदलवा रहे हैं तो उन्हें भीतर क्यों नहीं मौका मिलना चाहिए.
अभी तक हमें नहीं पता कि इस सरकार ने मेरी प्रिय भाषा संस्कृत के विकास के लिए क्या किया है? कोई ठोस कदम उठाया है? न्यूज़ बुलेटिन और शपथ लेने से संस्कृत का विकास नहीं होने वाला है. वैसे दूरदर्शन पर संस्कृत का कार्यक्रम बहुत अच्छा है. क्या संस्कृत के संरक्षण के लिए कोई नई यूनिवर्सिटी बनी है, पुराने जर्जर हो चुके संस्कृत कालेजों में नियुक्तियां ही हो चुके संस्कृत कालेजों की मरम्मत के लिए कितना फंड गया है?
संस्कृत से पास करने वाले कितने युवाओं को सरकारी नौकरी मिली है? ये सारे सवाल आसानी से गायब कर दिए गए हैं या एक्सेल शीट में नहीं आते हैं. 2015 में मेल आनलाइन के लिए आदित्य घोष ने एक ख़बर लिखी है. जर्मनी की मशहूर हाइडलबर्ग यूनिवर्सटी वहां संस्कृत सीखने के लिए दक्षिण एशिया से इतने आवेदन आ गए कि संभाल नहीं सकी.
हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी ने फैसला किया कि वह स्विटज़रलैंड और भारत में भी सेंटर खोलेगी. माननीय भारत सरकार आप अपना रिकॉर्ड बताइये तो. लगे हाथ ये भी बता दीजिए कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कितने पद ख़ाली हैं और आप कब भरने वाले हैं.
कैबिनेट विस्तार की ख़बरों में प्रदर्शन के नाम पर कुछ मंत्रियों का बॉयोडेटा ख़राब हो रहा है. बेचारे राजीव प्रताप रूडी की शक्ल मीडिया में ऐसे दिखाई जा रही है जैसे यही सबसे नकारे हों. इसके पहले इसी रूडी का हंसता खिलखिलाता चेहरा मीडिया के लिए मोदी सरकार की नौजवानी का चेहरा हुआ करता था. अब रूडी का उदास चेहरा मुझे अच्छा नहीं लगा, इसलिए नहीं कि मुझे उनसे सहानुभूति है.
काश वे खुल कर बोल देते कि स्किल इंडिया क्यों फेल हुआ? वे फैसला लेते थे या कोई और फ़ैसला लेता था? स्किल इंडिया फेल हो गया है या रूडी फेल हुए हैं? किसी में न तो यह बताने की हिम्मत है न ही जानकारी क्योंकि सूत्र ये सब जानने नहीं देते हैं. कोई तो बताए कि योजना लागू होती है या सिर्फ विज्ञापन लागू होता है.
मोदी सरकार प्रेस रिलीज़ और विज्ञापन की सरकार है. सरकार के भीतर के अंतर्विरोधों की रिपोर्टिंग बंद हो गई है. सांसद सिर्फ कठपुतली नहीं होता है. जो असली नेता होता है वो एक स्वायत्त स्वभाव का भी होता है.
इंडियन एक्सप्रेस में बीजेपी के ही सांसद नाना पटोले का बयान छपा है. नाना पटोले ने कहा कि प्रधानमंत्री को सवाल पूछना अच्छा नहीं लगता है. जब उन्होंने कुछ मुद्दे उठाए तो प्रधानमंत्री नाराज़ हो गए.
मोदी जी से सवाल पूछो तो कहते हैं कि आपने पार्टी का मेनिफेस्टो पढ़ा है, क्या आप सरकार की योजनाओं के बारे में जानते हैं? मोदी जी गुस्सा गए और चुप रहने के लिए कह दिया. सारे केंद्रीय मंत्री हमेशा डर के माहौल में रहते हैं. मैं मंत्री नहीं बनना चाहता. मुझे किसी से डर नहीं लगता है.
ये एक सांसद का बयान है. इसे बग़ावत समझ कर मत समेटिए. न ही मज़ा लेने की कोई बात है. सासंद पटोले ने वही कहा जो रूडी नहीं कह सकते हैं, जो उमा भारती नहीं कह सकती हैं.
वो जानती हैं कि योजनाएं क्यों फेल हुई हैं मगर उन्हें यह नकारे होने का ज़हर पीना पड़ेगा. वे भी तो चुप थे जब आडवाणी की ऐसी हालत की जा रही थी, अब जब उनकी हालत ऐसी की जाएगी तो चुप तो रहना ही होगा. जो दूसरों के लिए नहीं बोल पाता, वो अपने लिए भी नहीं बोल पाता है.
सांसद पटोले का बयान नया है मगर आप पुरानी ख़बरों को पलट कर देखिए, सांसदो को टास्क दिए जा रहे हैं कि कितने ट्वीट करने हैं, कितने री-ट्वीट करने हैं, कितना शेयर करना है.
लगातार सांसद की भूमिका समाप्त की जा रही है. उसका काम है चुनाव मैनेज करना. सांसदों को भी तय करना होगा कि वे सांसद बनने के लिए सांसद बने हैं या जयजयकार करने के लिए. ये हाल सिर्फ बीजेपी का नहीं है, हर दल के सांसदों का यही हाल है.
मंत्रिमंडल के विस्तार को दंत कथाओं में मत बदलिए. ये सिर्फ राजनीतिक जुगाड़ का विस्तार है. मंत्री फेल नहीं हुए हैं, सरकार फेल हुई है, वो आइडिया फेल हुआ है जिसमें ज़बरन हवा भरी जा रही थी. यह जब कह नहीं सकते तो बेकार में क्यों दो चार मंत्रियों को बदनाम करना है कि देखो यही नकारे हैं.
घास फूस की छंटाई हो गई और काबिलों की सरकार बन गई है. इसलिए ज़्यादा महिमामंडन मत कीजिए. न ही कोल्हू से तेल निकालिए. ये सब होता रहता है,चलता रहता है, कोई बड़ी बात नहीं है.
(यह लेख मूलत: रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ है)