वह चुनाव अभियान जिसने सांप्रदायिक राजनीति को बदल दिया

वर्ष 2002 में नरेंद्र मोदी के पहले राजनीतिक चुनाव प्रचार ने सबकुछ बदल दिया. पहली बार किसी पार्टी के नेता और उसके मुख्य चुनाव प्रचारक ने मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरा प्रचार अभियान चलाया.

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Gujrat Riot Reuters

वर्ष 2002 में नरेंद्र मोदी के पहले राजनीतिक चुनाव प्रचार ने सब कुछ बदल दिया. पहली बार किसी पार्टी के नेता और उसके मुख्य चुनाव प्रचारक ने मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरा प्रचार अभियान चलाया.

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नरेंद्र मोदी के 2002 के पहले चुनाव प्रचार ने सांप्रदायिक राजनीति की दिशा बदल दी. (फोटो: पीटीआई)

पंद्रह साल पहले, ठीक इन्हीं तारीखों के आसपास, पहली बार भारत एक ऐसे चुनाव प्रचार का गवाह बना, जिसमें एक राजनीतिक पार्टी और उसके नेता द्वारा द्वारा खुलेआम बहुसंख्यक गर्व और पहचान का दोहन किया गया.

1952 में हुए पहले आम चुनावों के वक्त से ही भारतीय राजनीति में धर्म की अहम भूमिका रही है. उस समय कांग्रेस ने भी अपने कद्दावर मुस्लिम नेताओं को उन्हीं सीटों पर खड़ा किया, जहां मुस्लिमों की ठीक-ठाक उपस्थिति थी. उदाहरण के लिए मौलाना अबुल कलाम आजाद को उत्तर प्रदेश के रामपुर से खड़ा किया गया था.

इसी तरह से दिल्ली में जहां, मुस्लिम आबादी 1941 के 33 प्रतिशत से घटकर 1951 में 6 फीसदी से कम रह गई थी, किसी राष्ट्रीय पार्टी ने 1977 तक, यानी चुनावों के शुरू होने के करीब चौथाई सदी के बाद किसी मुसलमान को अपना उम्मीदवार बनाया.

तब सिकंदर बख्त को जनता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर दिल्ली से खड़ा किया गया था. 1985 से किसी भी बड़ी राजनीतिक पार्टी ने राजधानी के किसी लोकसभा सीट के लिए किसी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया है.

1977 में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम ने आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार द्वारा अति उत्साही तरीके से जबरन नसबंदी कराने के जवाब में विवादास्पद तरीके से मुस्लिमों को कांग्रेस के खिलाफ वोट करने का ‘निर्देश’ दिया था.

1983 में इंदिरा गांधी ने जम्मू और कश्मीर के विधानसभा चुनावों में सांप्रदायिक तिकड़मों का इस्तेमाल किया था और ‘हिंदू’ जम्मू क्षेत्र में जीत हासिल की थी जबकि ‘मुस्लिम’ बहुमत वाली घाटी में नेशनल कांफ्रेंस की बड़ी जीत हुई थी.

लेकिन, फिर भी ऐसे तिकड़म पहले दबे-छिपे होते थे. यहां तक कि राजीव गांधी ने 1984 में सीमाओं के लोगों के घरों के चौखट तक आ धमकने की बात की थी और पार्टी के नारे को पगड़ी पहनने वाले लोगों के साये में गढ़ा था.

लेकिन, 2002 में नरेंद्र मोदी के पहले राजनीतिक चुनाव प्रचार ने सबकुछ बदल दिया. पहली बार किसी पार्टी के नेता और उसके मुख्य चुनाव प्रचारक ने मुस्लिमों के खिलाफ नफरत से भरा प्रचार अभियान चलाया.

इससे पहले इंदिरा गांधी द्वारा जरूर ‘विदेशी हाथ’ की बात की गई थी, लेकिन मोदी ने यह प्रचार किया कि गुजराती मुसलमानों, परवेज (मियां) मुशर्रफ, पाकिस्तान और आतंकवादियों के बीच सीधा रिश्ता है.

यहां यह याद रखना जरूरी है कि यह चुनाव सिर्फ गोधरा के बाद के घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में नहीं हुआ था, बल्कि 9/11, श्रीनगर में विधानसभा और संसद पर दुस्साहसी हमले के बाद भी हुआ था. मोदी का निर्माण करने में बड़ी भूमिका निभाने वाले 2002 के गुजरात विधानसभा चुनाव को भारत में चनुाव प्रचार का सांप्रदायीकरण करने के रास्ते का एक निर्णायक मील का पत्थर माना जा सकता है.

जहां, इससे पहले नेता लोग मंदिर, मस्जिद, दरगाह या गुरुद्वारे में जाने जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल किया करते थे, वहीं मोदी ने ऐसी सारी पर्देदारी समाप्त कर दी. वे कोई लिहाज किए बगैर प्रत्यक्ष भाषा, जो कई बार अपमानजक हुआ करती थी, के इस्तेमाल पर उतर आए.

गुजरात में चुनाव, 2003 की पहली तिमाही में कराए जाने थे, लेकिन दंगों के ठीक बाद मोदी ने ‘फायदों’ को ज्यादा से ज्यादा करने की कोशिशें शुरू कर दीं.

गुजरात के मुख्यमंत्री ने विधानसभा को भंग करने की सिफारिश करके पहले चुनाव कराने को कहा. लेकिन, चुनाव आयोग मोदी की चाल में नहीं आया और यह कहा कि राज्य में हालात तुरंत चुनाव कराने के लायक नहीं हैं.

हालांकि, भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने इस पर एहतियात बरतते हुए प्रतिक्रिया दी, लेकिन, मोदी ने जुबानी हमला बोल दिया. उन्होंने जिस तरह से चुनाव आयुक्त को संबोधित किया, उसकी गूंज आज भी इसके पीछे छिपी नीयत के कारण सुनाई देती है: ‘जेम्स माइकल लिंगदोह’. एक बार नहीं, चार-चार बार. उनका समर्थन एक विहिप नेता ने किया, जिसने चुनाव आयोग पर ‘अपने समुदाय के एक व्यक्ति (सोनिया गांधी) के निर्देश पर काम करने’ का आरोप लगाया.

चुनाव आयुक्त को उनके पूरे नाम के साथ संबोधित किया गया. ऐसा सिर्फ जनसभाओं में ही नहीं किया गया था, जिसमें कटुता कोई अप्रत्याशित चीज नहीं होती, बल्कि राज्य सरकार द्वारा जारी की जाने वाली आधिकारिक विज्ञप्तियों में भी ऐसा ही किया गया था.

लोगों तक खुले तौर पर यह संदेश पहुंचाने की कोशिश की गई चुनाव आयुक्त राज्य सरकार की सिफारिश के खिलाफ इसलिए काम कर रहे हैं क्योंकि वे ईसाई हैं. लेकिन तब तक चुनावों की घोषणा नहीं हुई थी, इसलिए आदर्श आचार संहिता के लागू न होने के कारण इस धृष्टता को चुनौती नहीं दी जा सकी.

भले ही दंगों से प्रभावित हुए लोगों का जीवन अभी अस्त-व्यस्त ही था, मगर मोदी ने अपना चुनाव प्रचार जारी रखा. उनकी नीयत स्पष्ट थी: अपने और अपने रुख के इर्द-गिर्द वोटरों को जमा करना और विपक्षियों और मीडिया द्वारा लगाए गए आरोपों को टिकने नहीं देना.

उन्होंने अपने अभियान को, जिसमें जुलूस और सार्वजनिक सभाएं शामिल थीं, ‘गौरव यात्रा’ का नाम दिया. इसका मकसद राजनीतिक संदेश से ज्यादा भावनाओं को जगाना था.

इस अभियान के जरिये मोदी ने खुद को गुजराती अस्मिता के एकमात्र रखवाले और इसकी ‘सांप्रदायिक’ संस्कृति और मूल्यों के रक्षक के तौर पर नियुक्त कर लिया. एलके आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा का अनुकरण करते हुए मोदी ने सितंबर, 2002 में एक अन्य महत्वपूर्ण मंदिर- खेड़ा जिले के फागवेल गांव के 200 साल पुराने भाथीजी महाराज मंदिर, से अपनी यात्रा की शुरुआत की.

यात्रा का आगाज करने के मौके पर मोदी जो भाषण दिया उसने ‘हिंदू हृदय सम्राट’ की उनकी छवि के निर्माण में अहम भूमिका निभाई. अपने भाषण में उन्होंने मुस्लिमों का जमकर मखौल उड़ाया और कड़वाहट से भरी कई टिप्पणियां कीं.

उन्होंने जो बातें रखीं, वे सब संघ की झूठ फैक्टरी से ली गई थीं. इसमें सबसे अहम यह था कि मुस्लिम ज्यादा तेजी से ‘बच्चे पैदा करते हैं’ और जल्द ही मुस्लिमों की आबादी हिंदुओं से आगे निकल जाएगी.

मोदी ने शुरुआत की, ‘हम परिवार नियोजन को सख्ती से लागू करना चाहते हैं,’ और प्रथम पुरुष में बोलते हुए, ‘मुस्लिम की तरह हम पांच, हमारे पच्चीस’ कह कर मखौल उड़ाने के अंदाज में हंसने लगे. उन्होंने पूछा क्या गुजरात में परिवार नियोजन अनिवार्य नहीं है, जिसका सीधा मतलब था कि मुस्लिम इसका विरोध करते हैं.

इसी भाषण में मोदी ने दंगा पीड़ितों के लिए राहत शिविरों को ‘बच्चे पैदा करने की फैक्टरी’ कहा था और मुस्लिमों को ‘पंक्चर चिपकाने वाले’ बताकर उनका मजाक बनाया था.

इस चुनाव अभियान के दौरान मुस्लिमों को देशद्रोही और पाकिस्तान और आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले के तौर पर पेश किया गया. उन्होंने यह दावा किया था कि उन पर मुस्लिम और उनके विरोधी, जिनमें ‘सीधे इटली जाने वाले और चुनाव आयोग से चुनाव रोकने की गुहार लगाने वाले’ शामिल हैं, इसलिए हमला करते हैं, क्योंकि ‘हम बेचाराजी के लिए फंड का आवंटन करते हैं, और अगर हम सावन के महीने में नर्मदा का पानी लाते हैं, तो ये बात भी उन्हें नागवार गुजरती है. तो हमें क्या करना चाहिए? क्या हम राहत शिविर चलाएं?…बच्चे पैदा करने की फैक्टरियां खोल लें?’

2002 का गुजरात दंगा

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने इस भाषण की भड़काऊ प्रकृति के कारण इसकी एक कॉपी सुपुर्द करने को कहा. राज्य सरकार ने यह कहते हुए उसे इसकी कॉपी देने से इनकार कर दिया कि ‘सरकार के पास मुख्यमंत्री के भाषण का कोई टेप या ट्रांसक्रिप्ट नहीं है’ यह घोषणा मोदी के मुख्य सचिव पीके मिश्रा ने की थी, जो वर्तमान में प्रधानमंत्री कार्यालय में मुख्य सचिव हैं.
इस भाषण के कई वर्षों के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) ने सीधे सवाल पूछा: ‘क्या ये टिप्पणियां मुस्लिमों को लेकर की गई थीं?’

अपने जवाब में मोदी ने अपनी टिप्पणियों के असली मंतव्य को स्वीकार नहीं किया और कहा: ‘यह भाषण किसी खास समुदाय या धर्म पर उंगली नहीं उठाता. यह एक राजनीतिक भाषण था, जिसमें मैंने भारत की बढ़ती जनसंख्या की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की…कुछ तत्वों के द्वारा मेरे भाषण को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है.’

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सन 2002 में हुए गुजरात दंगे की फाइल फोटो. (रॉयटर्स)

इस पर एसआईटी ने पलट कर ऐसा कोई सवाल नहीं पूछा कि भाषण के किसी हिस्से को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया और किस हिस्से का गलत अर्थ निकाला गया.

गौरव यात्रा से शुरू होने वाले करीब दो महीने चले चुनाव प्रचार में मोदी ने चुनावी संघर्ष को विचारधारा की लड़ाई में तब्दील कर दिया. इसी रणनीति का इस्तेमाल मोदी ने भाजपा की कमान संभालने के बाद हर चुनाव में किया है.

उन्होंने कहा कि उनके विरोधी गुजरात के गर्व और अस्मिता को नष्ट कर रहे हैं और खुद इसका रक्षक होने का दावा किया. इस लड़ाई में मोदी ने जोर देकर यह ऐलान किया कि उनका मिशन किसी धर्मयुद्ध से कम नहीं है. ‘मैं शक्तिपीठ पर बैठा हूं, मां बेचाराजी के चरणों में नतमस्तक हूं,…मैं मौत के सौदागरों को यहां बसने नहीं दूंगा, जो गुजरात को नष्ट करना चाहते हैं और मासूमों को सताना चाहते हैं.’

2002 में मां के इस आह्वान की तुलना 2014 में वाराणसी में मोदी के ‘मां गंगा ने मुझे बुलाया है’ वाले नाटकीय भाषण से की जा सकती है. मोदी पर किसी भी चीज पर आरोप लगाया जा सकता है, लेकिन छवियों और प्रतीकों का चालाकी के साथ इस्तेमाल करने के मामले में किसी चूक या निरंतरता में कमी का आरोप उन पर नहीं लगाया जा सकता.

खुद को राष्ट्र और राष्ट्रीय पहचान के बराबर ला खड़ा करने की उनकी क्षमता का इतिहास भी 2002 से शुरू होता है. उस समय उन पर और उनकी सरकार की आलोचना को गुजरात और इसके (हिंदू) लोगों पर किए जाने वाले हमलों के तौर पर पेश किया गया.

उन्होंने विपक्ष पर गुजरात को बलात्कारियों और हत्यारों के राज्य के तौर पर बदनाम करने का आरोप लगाया. इस तरह मोदी का बचाव करना और उनके लिए वोट करना मतदाताओं के लिए एक ‘उप-राष्ट्रीय’ कर्तव्य बन गया.

उन्होंने कांग्रेस और दूसरी पार्टियों पर गुजरातियों को हाथ में छुरी लिए हिंसक लोगों के तौर पर दिखाने का आरोप लगाया और जनता को इस अभियान का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए उनके पास मौजूद एक मात्र हथियार- उनके वोट, का इस्तेमाल करने का आह्वान किया.

15 साल पहले शुरू हुई गौरव-यात्रा बिना किसी रुकावट के चुनावी अभियान में बदल गई. हालांकि, इसका असली मकसद दंगों का चुनावी फायदा उठाना था, लेकिन इसका उद्देश्य इससे कहीं व्यापक था.

इस यात्रा ने एक एक ऐसी ‘एकता’ और ‘आत्म-सम्मान’ की भावना को जन्म दिया, जो इस मकसद से कहीं आगे निकल गया. मोदी के सत्ता में बने रहने को लोगों की विशिष्टता और श्रेष्ठता के प्रतीक के तौर पर देखे जाने में इसकी बड़ी भूमिका रही.

समय के साथ एक के बाद एक शातिर चालों के जरिये मोदी ने इस ‘उप-राष्ट्रीय’ गौरव को हर चीज पर छा जाने वाली राष्ट्रीय योजना में तब्दील कर दिया है. इस सरकार की उपलब्धियों और कमियों को लेकर लोगों का आकलन चाहे जैसा भी हो, इस बात को लेकर लगभग एकराय की स्थिति है कि प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने भारतीय गौरव को बढ़ाया है.

गौरव यात्रा के विचार ने बुनियादी मॉडल का काम किया है. इस अभियान की और गहराई से जांच करने से हमें मोदी की चुनावी और राजनीतिक रणनीति और शब्द-भंडार के बारे में और ज्यादा अंतर्दृष्टि हासिल होगी.

(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक एवं पत्रकार हैं. उन्होंने ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ और ‘सिख्स: द अनटोल्ड एगॅनी ऑफ 1984’ जैसी किताबें लिखी हैं.)

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