आज़ादी या बंटवारा?

आज़ादी के 72 साल: विभाजन का भय धीरे-धीरे आज़ादी के विचार को विस्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. ये हालात अपने भीतर काफी बड़े ख़तरे की आहट थामे हुए हैं.

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Pakistani Rangers and Indian Border Security Force personnel (obscured) lower the flags of the two countries during a daily flag lowering ceremony at the India-Pakistan joint border at Wagah, December 14, 2006. REUTERS/Mian Khursheed/Files

आज़ादी के 72 साल: विभाजन का भय धीरे-धीरे आज़ादी के विचार को विस्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. ये हालात अपने भीतर काफी बड़े ख़तरे की आहट थामे हुए हैं.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

पिछले दो दशकों (या उससे भी ज्यादा) से हमारे आजादी के जश्न के साथ कुछ अघटित सा घटित हो रहा है. ऐसा लगता है जैसे बंटवारे का खौफ धीरे-धीरे आजादी के भरोसे के पांव उखाड़ने और अगस्त 1947 की अहम घटनाओं के बारे में हमारी सोच पर हावी होने की ओर बढ़ रहा है. यह बदलाव कैसे प्रकट हुआ और इसके प्रभाव क्या हैं?

आजाद मुल्कों के तौर पर तारीख के पन्ने नए सिरे से लिखने के शुरुआती दौर में ही भारत और पाकिस्तान ने बंटवारे के दौरान हुए कत्ल-ए-आम को भूलने की कोशिश शुरू कर दी थी.

हालांकि भूल जाना या भुला देना उन तमाम रास्तों में से एक है जिनके जरिए जख्म खुद का उपचार करते हैं, लेकिन इन मुल्कों का यह कदम सियासी दांवपेच का ही एक हिस्सा था.

क्योंकि उस वक्त दोनों मुल्कों के नेता महसूस कर रहे थे कि ऐसे बेरहम वाकयों का सियासी दस्तावेजों में दर्ज होने से न केवल ‘आजादी’ का वजन कम हो सकता है, बल्कि मजहब के लिहाज से अल्पसंख्यक लोगों के लिए जोखिम भी पैदा कर सकता है, जो शायद इसके जिम्मेदार भी हों…

निशानदेही के लिए बंटवारे की एक भी यादगार न होने के बावजूद, इसका दर्द सालों से दो समुदायों की यादों में कराहता रहा. एक ओर मजहबी लोग थे, जो अल्पसंख्यकों की तरफ नरम रवैया रखने के कारण नए मुल्कों की वफादारी विदेशी ताकत के प्रति देखते थे.

जबकि दूसरी ओर खड़े लोग इन्हें यानी दोनों मुल्कों को पूंजीपति वर्ग का एजेंट जान इनको अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद का वफादार मान रहे थे. एक दूसरे के प्रबल विरोधी होने के बावजूद, यह चौंकाने वाली बात है कि अपने इतिहास के बारे में ऐसे कमोबेश षड्यंत्रकारी विचार को दोनों ने थोड़ा बहुत ही सही लेकिन साझा कैसे किया.

भूलना भी इक खूबी है

बेशक अपनी तबाह कर देने वाली ताकतों की वजह से ‘बंटवारा’ दुनियावी इतिहास में दर्ज होने वाला वाकया था और इसलिए इसे याद रखना बिल्कुल सही है. लेकिन सियासत और ईमानदारी के लिहाज से इसे भुला देना भी कम जरूरी नहीं… क्योंकि जब इसे इंसाफ और माफी के साथ रखकर देखा जाता है, तो यही एकमात्र गुण है जो हिंसा से विभाजित समाजों को एक साथ जोड़ सकता है.

गांधी जी ने हमेशा यही कहा कि ‘इतिहास के यूरोपियन मानसिकता और उस पर आधारित राष्ट्रीय, सांप्रदायिक और दूसरी तमाम पहचानें पुरातन गौरव को फिर से पाने या मौजूदा परिस्थितियों के प्रति रोष जाहिर करने की कवायद में केवल हिंसा को ही जन्म देती हैं.’

हालांकि आजादी के तुरंत बाद शायद भारतीय और पाकिस्तानी नेताओं की दिलचस्पी इंसाफ और माफी में नहीं थी, लेकिन वे भूलने की अहमियत खूब जानते थे. वे जानते थे कि यदि वे महज अपने राजनीतिक फायदे के बारे में साचें, तो भी देश की आजादी को ‘मारपीट और कत्ल-ए-आम’ से जोड़ना बेहद खतरनाक साबित होगा.

यह न केवल स्वतंत्रता की वैधता पर सवालिया निशान लगा सकता है और जनता में कलह पैदा कर सकता है. बल्कि अपने दुश्मनों के हाथों में दाएं से बाएं उछाले जाने को मजबूर एक कड़वे और उन्मादवादी राष्ट्रवाद का खतरा भी खड़ा कर सकता है.

अधूरे काम

अमन की इस दीवार में पहली दरार न तो भारत में आई और न ही पाकिस्तान में. यहां तक कि बंटवारा भी इसका कारण नहीं था. आजादी की कहानी में बदलाव का आना, 1971 में एक भीषण नरसंहारक के बीच बांग्लादेश के जन्म लेने के साथ शुरू हुआ. अपने जन्म के समय हुई मारकाट के इतर बांग्लादेश का निर्माण उस समय हुआ, जब नरसंहार और मानवता के खिलाफ अपराध अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लागू कानून की कोटि में आ चुके थे.

लिहाजा बांग्लादेशी राष्ट्रवाद को ‘एक आतंक’ के रूप में परिभाषित किया गया, लेकिन पाकिस्तान या उसकी सेना को उसके अपराधों के लिए दोषी ठहराने में असमर्थ होने के कारण बांग्लादेश के संस्थापकों और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों ने उत्तरोत्तर अपना ध्यान आतंकवादियों और सहयोगियों को अंदर ही अंदर खोजने पर केंद्रित किया है.

इस जोखिम के लिए जो भी इंसाफ किया जाए, पर इसने एक ऐसी हिंसक और प्रतिकूल राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण किया है जो अपने कटु अनुभवों से आगे बढ़ने में असमर्थ है.

जब हिंसा का इतिहास आजादी के विचार को अपने साए में ले लेता है, तो या तो उसके नाम पर आजादी को बलिदान किया जा सकता है या अधकचरा और पिछड़ा बने रहने दिया जा सकता है. और जैसा कि बांग्लादेश के मामले में लगता है, यह आज शायद दक्षिण एशिया का सबसे अधिक सत्तावादी राज्य है. जिस तरह बांग्लादेशियों के लिए 1947 एक अर्थहीन संख्या है, उसी तरह भारत में भी वहां की हिंसा केवल अस्सी के दशक में महज टिप्पणी का विषय बनी. यह दरअसल पंजाब विद्रोह के बाद हुआ, जब यह स्पष्ट हो गया कि अभी बंटवारे के बहुत से अधूरे काम बाकी हैं.

इसी समय से कला, सिनेमा और साहित्य में बंटवारे के पुराने चौकस और चालाक मसले अकादमिक अध्ययन में तब्दील हुए, जो कि आजादी की हिंसा का कहीं ज्यादा स्पष्ट आह्वान थे.

Pakistani Rangers and Indian Border Security Force personnel (obscured) lower the flags of the two countries during a daily flag lowering ceremony at the India-Pakistan joint border at Wagah, December 14, 2006. REUTERS/Mian Khursheed/Files
(फोटो: रॉयटर्स)

इस हिंसा की जिम्मेदारी अंदरूनी दुश्मनों पर डालने वाली दक्षिण और वामपंथी दलीलों के उलट, उदारवादियों ने बंटवारे के समय प्रकट हुई अमानवीयता और दागदार मानवीयता के लिए दोनों पक्षों को साझा तौर पर जिम्मेदार माना.

इसके लिए पुराने राष्ट्रवादियों के साथ-साथ ब्रिटिशों को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता था और निश्चित रूप से वे दोषी थे भी, लेकिन ऐसे कदम का मतलब है –किसी एक समूह को इल्जाम से बरी कर देना. हमेशा देर से खेल में दाखिल होने वाले खिलाड़ी यानी पाकिस्तान में बंटवारा महज एक सार्वजनिक बहस का मुद्दा भर बना.

वो भी हाल ही में क्योंकि भारत, जहां आजादी हमेशा से एक मिलीजुली नेमत रही, के विपरीत पाकिस्तान में आजादी एक बड़ी जंग जीतने जैसा अहसास था.

पाकिस्तान में बंटवारे के दौरान हुई हिंसा को प्रकट करने का मतलब है- मुल्क की वैधता पर सवाल खड़े करना. वो भी दक्षिण अथवा वामपंथ से राजनैतिक या सैद्धांतिक रूप से जुड़े बिना. लेकिन क्या मुल्क के इस हिंसक इतिहास, जो कि दिलचस्प तौर पर ब्रिटिश इंडिया के दो विभाजित प्रांतों में उभर रहा है, की बहाली ने हमें आजादी का एक स्पष्ट विचार दिया है या इससे अधिक अस्पष्ट किया है?

सांप्रदायिकता की विफलता

मैं यह सुझाव देना चाहूंगा कि यह कितना भी जरूरी क्यों न हो, बंटवारे और उस दौरान मची मारकाट पर फोकस किए रहने का मतलब है कि स्वतंत्रता के विचारों को अस्पष्ट कर देना, फिर चाहे वह ऐतिहासिक हों या आदर्शवादी.

इन दिनों विभाजन की बौद्धिक और शौकिया दोनों तरह की खोजें, खासतौर पर वे जो मौखिक इतिहास पर निर्भर हैं, 1947 की रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में कहीं सुनी जाने वाली परंपरागत कथाओं को अपनी जगह से हटाने की ओर बढ़ रही हैं.

ये कहानियां बंटवारे की जिम्मेदारी को ज्यादा बारीकी से बांटती हैं. सम्मोहक होते हुए भी यह कहानियां आजादी के विचार को भटका देती हैं. वास्तव में वे सांप्रदायिक या धार्मिक निष्ठा के लंबे समय से चले आ रहे हिसाब को सुदृढ़ करती हैं.

लेकिन क्या सच में विभाजन सांप्रदायिक निष्ठा की जीत दर्शाता है या नफरतों की? हालांकि इतिहासकारों और अन्य लोगों ने इस तरह की हिंसा के बारीक मायनों पर जोर दिया है, लेकिन कभी-कभी वे औपनिवेशिक राज्य या ‘धर्मनिरपेक्ष’ दल और राजनेताओं की घातक भूमिका की वजह से कमजोर पड़ जाते हैं.

वे धार्मिक रुकावटों के उस मूलभूत विश्वासघात की सबसे ज्यादा उपेक्षा करते हैं, जो उन्हें संदर्भ प्रदान करते हैं. क्योंकि भारत का विभाजन सांप्रदायिक निष्ठा की शक्ति का प्रदर्शन करने के बजाय, विश्वासघात को कहीं बड़े पैमाने पर प्रदर्शित करता है, जैसे कि दोनों देशों में हिंदू और मुसलमानों का स्वेच्छा से अपने सहधर्मियों को त्याग देना.

गांधी और जिन्ना जैसे लोग, जिन्होंने देश को एक साथ बांधे रखने के लिए और समझौतों पर अधिक बल देने के लिए सांप्रदायिक निष्ठाओं पर भरोसा किया, वे यह देखकर चकित थे कि कितनी आसानी से यह उधड़ गया.

दूसरे देश पर भरोसे के कारण भारत और पाकिस्तान के नेताओं ने विभाजन की इजाजत नहीं दी थी, बल्कि इसके पीछे प्रसिद्ध ‘बंधक’ सिद्धांत काम कर रहा था जिसके तहत यह सोचा जा रहा था कि दोनों देशों में हिंदू-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को अच्छी तरह से रखने की गारंटी उनके साथी हैं.

वे लोग जिनके साथ उन्होने एक साझा अतीत जिया था. लेकिन इन तमाम दावों के बावजूद दोनों देशों के बहुसंख्यक अपने अल्पसंख्यक साथियों को खतरे में डालकर खुश थे और आज भी वे यही कर रहे हैं.

शायद विभाजन का सदमा कुछ कम हो जाता, अगर हिंदू, मुसलमान और सिखों के बीच हुई उग्र हिंसा को कम करने के लिए कुछ कदम उठा लिए गए होते. इतना सब होने के बावजूद आज यह अब इतनी आसानी से कहा जा सकता है, मानो इस तरह की कहानियों में किसी भी दुखती रग का वजूद झुठला दिया जाए.

इसके बजाय यह आज भी एक ऐसी अकथनीय स्मृति है और अपने ही धार्मिक समुदाय के खिलाफ धोखे व विश्वासघात का ऐसा सच… जो बंटवारे के गुस्से को आज भी उतना ही भड़का सकता है जितना कि उसने अपने समय में भड़काया था. गांधी ने पाकिस्तानी शरणार्थियों से हुई अपनी मुश्किल बातचीतों में यह पहले ही स्पष्ट कर दिया था.

साहित्य और दृष्टान्त में दर्ज ये बातें उन लोगों के बारे में निश्चित रूप से सत्य हैं जिन्होने भारत छोड़ा था. इसका मतलब यह है कि विभाजन से उत्पन्न समस्या केवल हिंदू-मुस्लिम-सिख समस्या नहीं, बल्कि यह एक ऐसी समस्या है जिस पर यदि किसी संकल्प तक पहुंचना है तो आपसी-संवाद जरूरी है. ख़ासतौर पर अब जबकि इस तरह के विश्वासघात को दोनों देशों के धार्मिक अल्पसंख्यकों पर आरोपित किया जा रहा है.

जहां तक भारत-पाकिस्तानी संबंधों का सवाल है, गांधी की यह बात बिल्कुल सही थी कि दोनों के बीच तब तक शांति संभव नहीं है, जब तक कि वे सभी जिन्हें दूर किया गया है उन्हें वापस लौटने का अधिकार नहीं दे दिया जाता. जब तक कि उन्हें उनके जीवन और संपत्ति के नुकसान का प्रायश्चित या पुनर्वास के रूप में मुआवजा नहीं दिया जाता. हालांकि यह भरपाई काफी नहीं, पर जरूरी है.

यह विश्वासघात इसलिए समस्या नहीं क्योंकि यह घटित हुआ, बल्कि इसलिए क्योंकि यह अधूरे तरीके से कायम हुआ. बेशक नागरिकों की एक-दूसरे के प्रति उदासीनता ने भारत और पाकिस्तान को एकजुट रखा है. अन्य देशों में, बलूचिस्तान या पंजाब जैसे स्थानों पर, उग्रवाद और प्रांतीय गृहयुद्ध उन्हें विखंडन की ओर ले गए. लेकिन दक्षिण एशिया में ऐसा हो सकता है कि एक प्रांत अशांत हो और दूसरा बिल्कुल शांत.

हो सकता है कि इन विविध समाजों को जोड़े रखने वाली शक्ति राष्ट्रीय चरित्र के बजाय साम्राज्यवाद हो. नागरिकों का पारस्परिक संबंध न तो प्रेम से परिभाषित होता है और न ही नफरत से बल्कि वह परिभाषित होता है उदासीनता से. सांस्कृतिक या धार्मिक एकता की तड़प और विश्वासघातियों का शिकार इस एकता को महज जोखिम में ही डालेगा.

(फ़ैसल देवजी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास के अध्यापक है. यह लेख मूल रूप से द हिंदू में प्रकाशित हुआ था.)