जनता को झूठे सपनों, निराधार तथ्यों और धर्म की भांग ने मदमस्त कर रखा है

कभी-कभी मोमबत्तियां लेकर, मानव श्रृंखला बनाकर खड़ा होने वाला भारत का बौद्धिक वर्ग छोटे-छोटे स्वार्थों, छोटी-छोटी नौकरियों और बड़े-बड़े पैकेजों के चक्कर में अपना दायित्व भूल गया है.

//
Bhopal: Journalists, social workers and members of various organisations hold protest against the killing of journalist Gauri Lankesh, in Bhopal on Thursday. PTI Photo (PTI9_7_2017_000135B)

कभी-कभी मोमबत्तियां लेकर, मानव श्रृंखला बनाकर खड़ा होने वाला भारत का बौद्धिक वर्ग छोटे-छोटे स्वार्थों, छोटी-छोटी नौकरियों और बड़े-बड़े पैकेजों के चक्कर में अपना दायित्व भूल गया है.

Bhopal: Journalists, social workers and members of various organisations hold protest against the killing of journalist Gauri Lankesh, in Bhopal on Thursday. PTI Photo (PTI9_7_2017_000135B)
मध्य प्रदेश के भोपाल में गुरुवार को पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में विभिन्न संगठनों ने प्रदर्शन किया. (फोटो: पीटीआई)

विचारों की हत्या के इस दौर में चार्ल्स डिकेन्स से उपन्यास ‘अ टेल आॅफ टू सिटीज़’ की निम्न पंक्तियों को काफी उद्धृत किया जा रहा हैः

‘यह सर्वश्रेष्ठ समय था, यह सबसे बुरा समय था, यह बुद्धिमत्ता का काल था, यह बेवकूफी का काल था, यह विश्वास का युग था, यह अविश्वास का युग था, यह प्रकाश का मौसम था, यह अंधेरे का मौसम था, यह उम्मीद का वसंत था, यह नाउम्मीदी का शीतकाल था, हमारे सामने सब कुछ था, हमारे सामने कुछ भी नहीं था, हम सभी सीधे स्वर्ग को जा रहे थे, हम सब सीधे दूसरी तरफ जा रहे थे.’

भारतीय परंपरा और संस्कृति में किसी निहत्थे पर वार करना कायरता है और स्त्री को मारना तो उससे भी बड़ी. उसके अलावा लेखक और पत्रकार को तो डाकू वीरप्पन से लेकर माधव सिंह और मोहर सिंह भी नहीं मारते थे. इसलिए यह सवाल अहम है कि लंकेश पत्रिका की अग्निशिखा संपादक गौरी लंकेश को किसने मारा?

क्या वह किसी निहित स्वार्थ का प्रतिनिधि है? क्या वह किसी विचार का प्रतिनिधि है? क्या वह किसी संस्कृति का प्रतिनिधि है? देश में कुछ सहज और स्वाभाविक प्रतिक्रियाएं हो रही हैं. वे हिंदी फिल्म के उस गीत पर आधारित हैं कि ये पब्लिक है सब जानती है. लेकिन यह सवाल अभी भी अहम है कि गौरी लंकेश के शरीर का दुश्मन कौन था?

क्या वह वही था जो उनके विचारों का दुश्मन था या जिसे उन्होंने अपने विचारों का दुश्मन मान लिया था? तभी तो उन्होंने अपने सवा तीन बजे के पोस्ट में कहा भी था कि जब दुश्मन एक है तो सबको अलग रहने और आपस में लड़ने की क्या जरूरत है.

शायद एक हद तक देश ने उनकी बात को स्वीकार किया और पूरे देश में बड़ी संख्या में पत्रकार, लेखक, साहित्यकार उनके साथ एकजुटता जताने के लिए निकले. लोगों ने भय को तोड़ने की कोशिश की.

लेकिन क्या इससे भय टूट रहा है या और बढ़ रहा है? कुछ एंकरों ने तो कहा भी कि अब डर लगता है कुछ बोलते हुए? पत्रकारों और लेखकों का परिवार उन्हें रोक रहा है कि क्या तुम्हीं बने हो शहीद होने के लिए. लेकिन देश और समाज उन्हें पुकार रहा है कि गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, लोहिया, जयप्रकाश जैसे महान नेताओं के प्रयासों से मिले लोकतंत्र को बचाना है तो आगे आना ही होगा. लेकिन फिर वही सवाल खड़ा होता है कि आखिर कौन बचाएगा इस लोकतंत्र को?

क्या इस लोकतंत्र को मीडिया बचाएगा? क्या इस लोकतंत्र को यहां की कार्यपालिका बचाएगी? क्या इस लोकतंत्र को विधायिका या उससे जुड़ी राजनीति बचाएगी? क्या इस लोकंतंत्र को संविधान की रक्षक और समय समय पर हस्तक्षेप करने वाली न्यायपालिका बचाएगी? या अंत में जिसके पास सत्ता लौट कर जाती है वह जनता बचाएगी?

एक भारी भ्रम और निराशा का दौर है. भारत की पार्टी प्रणाली क्षेत्रवाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार, व्यक्तिवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और भय के चक्रव्यूह में फंस गई है. उसमें अंतिम द्वार तो क्या, आरंभिक द्वार भी तोड़ने की सामर्थ्य नहीं दिखती.

न्यायपालिका समय समय पर गर्जना तो करती है लेकिन उसका तड़ित किसी वर्षा में परिवर्तित नहीं हो पाता. कार्यपालिका स्वायत्त नहीं है और जिस हद तक है, उतने में उसके भीतर पक्षपात का घुन लग गया है. उस पर काडर आधारित पार्टियों के संगठनों का गहरा प्रभाव है इसलिए वह निष्पक्ष होकर कानून के आधार पर कार्रवाई को तत्पर नहीं है.

न्यायपालिका की पीठ तक तो न्याय का सवाल देर से पहुंचता है पहले तो न्यायिक प्रशासन की इकाइयां काम करती हैं और वह पक्षपाती हो चुकी हैं. जनता की स्थिति कुएं में भांग पड़ने जैसी है. उसे कुछ झूठे सपनों, निराधार तथ्यों और धर्म की भांग ने मदमस्त कर रखा है.

कभी कभी मोमबत्तियां लेकर, मानव श्रृंखला बनाकर खड़ा होने वाला भारत का बौद्धिक वर्ग मुक्तिबोध की परिभाषा से आगे नहीं गया है. वह आज भी क्रीतदास है और किराये के विचारों का उद्भास कर रहा है. वह छोटे छोटे स्वार्थों, छोटी छोटी नौकरियों और बड़े बड़े पैकेजों के चक्कर में अपना दायित्व भूल गया है. उसके भीतर भय की भावना भी है. गांधी ने कहा था कि भारत गुलाम इसलिए हुआ क्योंकि उसके भीतर लालच आ गई थी.

उदारीकरण ने इस देश का वही हाल किया है लेकिन उसी के साथ आए मंडल आयोग और मंदिर आंदोलन ने इस देश को इतना बांट दिया है कि वह भयभीत हो गया है. देश के इस दौर में न मरने का साहस है न जीने का हौसला, सिर्फ मारने वालों की कायरता दिखाई दे रही है.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq