पश्चिम बंगाल: सेक्स वर्कर्स द्वारा चलाए जा रहे उनके बैंक पर महामारी की मार

कोलकाता का उषा बहुउद्देश्यीय कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड भारत का इकलौता ऐसा बैंक है जिसे सेक्स वर्कर्स द्वारा उन्हीं के समुदाय के लिए चलाया जाता है. वर्तमान में बैंक की बढ़ती चुनौतियां दिखा रही हैं कि कोरोना महामारी के चलते यह समुदाय भी आर्थिक रूप से बेहद प्रभावित हुआ है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

कोलकाता का उषा बहुउद्देश्यीय कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड भारत का इकलौता ऐसा बैंक है जिसे सेक्स वर्कर्स द्वारा उन्हीं के समुदाय के लिए चलाया जाता है. वर्तमान में बैंक की बढ़ती चुनौतियां दिखा रही हैं कि कोरोना महामारी के चलते यह समुदाय भी आर्थिक रूप से बेहद प्रभावित हुआ है.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

कोलकाता: उषा बहुउद्देश्यीय कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड भारत का एकमात्र और दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा ऐसा वित्तीय संस्थान है जो सेक्स वर्कर्स (यौनकर्मियों) की आर्थिक बेहतरी के लिए विशेष तौर पर यौनकर्मियों द्वारा ही चलाया जाता है. सालों से से यौनकर्मियों को आर्थिक सुरक्षा और सहयोग प्रदान करता रहा यह संस्थान अब कोरोना महामारी की चपेट में आ गया है.

बीते वर्ष की शुरुआत में लगे लॉकडाउन के बाद से अब तक महामारी की दो लहरों का सामना कर चुके इस संस्थान की आय में भारी गिरावट देखी गई है. बैंक के आर्थिक प्रबंधक शांतनु चटर्जी बताते हैं, ‘महामारी के दौरान यह सहकारी बैंक वित्तीय तौर पर कमजोर हो गया है. अगर हमें प्रतिमाह लगभग 30-35 लाख रुपये की जमा राशि प्राप्त हो रही है, तो निकासी औसतन 50 लाख रुपये प्रति माह है.’

चटर्जी ने बताया कि इस दौरान उन्हें कुछ बड़े फिक्सड डिपॉजिट तुड़वाने पड़े हैं जिससे इन पर मिलने वाले ब्याज का नुकसान हुआ है. साथ ही, निवेशों से होने वाली आय का भी नुकसान हो रहा है क्योंकि जमाकर्ताओं को भुगतान करने के लिए कुछ निवेशों को वापस लेना पड़ा है.

हालांकि, चटर्जी बताते हैं कि एक बहुउद्देश्यीय सहकारी समिति होने के नाते बैंक की कई और भी संबद्ध गतिविधियां हैं, जिनके चलते अभी भी लाभ की स्थिति बनी हुई है.

वे बताते हैं, ‘हम अभी भी मुनाफा कमा रहे हैं. ज्यादातर मुनाफा अचल संपत्तियों और विभिन्न सहायक गतिविधियों जैसे कि कंडोम, सैनिटरी नैपकिन, सैनिटाइजर और मास्क की बिक्री से होने वाली आय के कारण हो रहा है.’ बता दें कि समिति कंडोम की बिक्री एक पैसा प्रति कंडोम के लाभ पर करती है.

वहीं, गौरतलब है कि उषा सहकारी बैंक अपने जमाकर्ताओं को जमा राशि पर अन्य राष्ट्रीयकृत व निजी बैंकों की तुलना में अधिक ब्याज का भुगतान करता था. यहां बचत खाते पर ब्याज की दर छह प्रतिशत है. चूंकि अब जमा राशि में कमी आई है, इसलिए जमाकर्ताओं को ब्याज के रूप में किया जाने वाला भुगतान भी कम हो गया है. यह एक और कारण है जिसके चलते बैंक अभी भी मुनाफा कमा रहा है.

वर्ष 1995 में 13 यौनकर्मी सदस्यों और 40,000 रुपये की साझा पूंजी के साथ शुरू हुए इस बैंक के अब पूरे पश्चिम बंगाल में 36,000 सदस्य हैं. इसका पेड-अप शेयर कैपिटल, यानी निवेशकों को बेचे गए शेयर से अर्जित पूंजी, 35 लाख रुपये है. वित्तीय वर्ष 2017-18 में बैंक का वार्षिक कारोबार 21 करोड़ रुपये था, जो वित्त वर्ष 2019-20 में बढ़कर 27 करोड़ रुपये दर्ज किया गया.

चूंकि महामारी से प्रभावित रहे वित्तीय वर्ष 2020-21 का ऑडिट अभी तक नहीं किया गया है, इसलिए महामारी आने के बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं है.

बहरहाल, महामारी के दौरान भी बैंक में पांच हजार से अधिक नये सदस्य बने. लेकिन इसका कारण अलग है. सरकार की निशुल्क भोजन योजना के तहत यौनकर्मियों में फूड कूपन के वितरण के लिए उषा सहकारी बैंक की पासबुक को आवासीय प्रमाण के दस्तावेज के तौर पर मंजूरी दी गई थी.

चूंकि बैंक में खाता खोलने के लिए केवल 115 रुपये लगते हैं, इसलिए विशेष तौर पर सोनागाछी क्षेत्र के ‘फ्लाइंग’ सेक्स वर्कर्स ने इस बैंक में खाते खोल लिए और बैंक की पासबुक का इस्तेमाल फूड कूपन पाने के लिए किया.

यहां ‘फ्लाइंग’ सेक्स वर्कर्स से आशय उन यौनकर्मियों से है जो शहर के करीबी क्षेत्र में रहते हैं और रोजगार के अभाव में मजबूरन अपनी जीविका चलाने के लिए रेड लाइट एरिया में जाते हैं. इनमें अविवाहित महिलाओं, गृहणियों और छात्रों की संख्या अधिक है.

कोलकाता में यौनकर्मियों का यह समुदाय, वेश्यालय आधारित यौनकर्मियों की तुलना में अधिक संवेदनशील और असुरक्षित माना जाता है.

बहरहाल, उषा सहकारी बैंक ने एक जमाकर्ता की बैंक में जमा धनराशि के आधार पर उसे पैसा उधार देने की नीति अपनाई है. वह संपत्तियों को गिरवी रखकर उधार नहीं देता है. इसलिए उधार मांगने वालों की संख्या भी कम है, क्योंकि अधिकांश यौनकर्मियों की जमा धनराशि कम थी, जिससे उधार लेने की उनकी गुंजाइश भी सीमित थी.

चूंकि सोनागाछी के यौनकर्मियों के महामारी के बाद के वित्तीय हालातों पर कोई हालिया सर्वेक्षण नहीं हुआ है, इसलिए इस बात की कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं है कि उनमें से कितनों को निजी साहूकारों से कर्ज़ लेना पड़ा है.

इस संबंध में, भारत में यौनकर्मियों के सबसे बड़े संगठन ‘दरबार महिला सम्मान समिति’ की प्रवक्ता महाश्वेता मुखर्जी कहती हैं, ‘यौनकर्मी समुदाय कोरोना महामारी के दौरान सबसे अधिक प्रभावित होने वाले तबकों में से एक है. बीते 16 माह के दौरान उनकी आय पूरी तरह खत्म हो गई है. सरकार, विभिन्न गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) और हमारे संगठन ने सुनिश्चित किया है कि वे भूखे न रहें, लेकिन भोजन के अलावा भी अनेक खर्चे होते हैं. सोनागाछी में रहने वालों को रहने का मासिक किराया भी देना पड़ता है और उनमें से अधिकांश को कुछ पैसे अपने घर भी भेजने पड़ते हैं.’

बता दें कि दरबार समिति कोलकाता के सोनागाछी से संचालित होती है. सोनागाछी एशिया का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया माना जाता है. वहीं, दरबार समिति वह संगठन भी है,जिसने उषा सहकारी बैंक का संचालन किया है.

उषा की योजना अपने सदस्यों की आर्थिक बदहाली देखते हुए उन्हें जितना कम हो सके, कम से कम पांच रुपये, की बचत प्रतिदिन करने को कहती है. यह राशि बैंक के एजेंटों द्वारा सदस्यों के घर-घर जाकर एकत्रित की जाती है.

इस योजना ने राज्य के यौनकर्मियों, विशेषतौर पर सोनागाछी में रहने वालों, के जीवन पर एक महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव डाला है. वहीं, बैंक ने भी इतना अच्छा प्रदर्शन किया कि उसे वर्ष 2014 में राज्य सरकार द्वारा सर्वश्रेष्ठ सहकारी समिति के पुरुस्कार से भी सम्मानित किया गया था.

हालांकि वर्तमान में बैंक की बढ़ती आर्थिक चुनौतियां, यौनकर्मियों पर पड़े महामारी के व्यापक आर्थिक दुष्प्रभावों को दर्शाती हैं. देश के अलग-अलग हिस्सों में यौनकर्मियों पर हुए शोध व अध्ययन भी ऐसे ही दुष्प्रभावों की ओर इशारा करते हैं.

पिछले साल महामारी की पहली लहर के दौरान ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स (एआईएनएसडब्ल्यू) ने पश्चिम बंगाल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र और केरल में 250 यौनकर्मियों पर एक अध्ययन किया था. एआईएनएसडब्ल्यू के एक प्रवक्ता ने बताया कि तीस फीसदी यौनकर्मियों ने अपने रोजमर्रा के खर्चों को पूरा करने के लिए कर्ज़ लिया था, जबकि 47 फीसदी को बैंकों में जमा अपनी बचत राशि निकालनी पड़ी थी.

महाराष्ट्र स्थित आशा केयर ट्रस्ट ने भी पिछले वर्ष एक सर्वे किया था, जिसमें सामने आया था कि यौनकर्मियों के एक बड़े हिस्से ने महामारी का मुश्किल भरा दौर बिताने के लिए विभिन्न प्रकार के कर्ज़ लिए थे. ज्यादातर मौकों पर कर्ज़ वेश्यालय के मालिकों या दलालों से लिए गए थे.

बीते वर्ष ही महामारी के दौरान यौनकर्मियों पर एक ऐसा ही सर्वे दरबार महिला सम्मान समिति ने पश्चिम बंगाल में भी कराया था. सर्वे में शामिल 615 यौनकर्मियों में से 60 प्रतिशत ने किसी न किसी प्रकार का कर्ज़ लेने की बात कही थी.

तफ्तीश, मानव-तस्करी का विरोध करने वाले लोगों का एक मंच है, जिसमे वकील, शोधकर्ता, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और मानव-तस्करी का शिकार बने पीड़ित भी शामिल हैं. इसने भी हाल ही में एक सर्वे किया था, जिसमें सामने आया कि मानव-तस्करी की अंधेरी दुनिया से जो लोग किसी तरह बच निकले हैं, ऐसे समुदाय के सदस्य भी कर्ज़ के कुचक्र में फंसे हैं.

सर्वे रिपोर्ट में उल्लिखित है, ‘यौन कार्य कर रही महिलाएं जो पहले से ही सामाजिक सुरक्षा तंत्र से बाहर होने के चलते बदहाली व असुरक्षा के माहौल में जी रही थीं, महामारी और उससे जुड़े प्रतिबंधों ने उनकी आर्थिक चुनौतियों को और बढ़ा दिया है.’

रिपोर्ट में आगे कहा गया है, ‘इस अवधि के दौरान उनके ऊपर बढ़े कर्ज़ के बोझ की राशि में बढ़ोत्तरी हुई है. शोध में यौन कार्य में शामिल और व्यावसायिक यौन शोषण से बच निकलीं 142 महिलाओं के आर्थिक हालात का विश्लेषण किया गया. महामारी की दूसरी लहर के दौरान इनमें से 99 ने 5,000 रुपये से 5,50,000 रुपये के बीच कर्ज़ लिया है.’

यह अध्ययन मई 2021 में पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में किया गया था. इसमें यह भी बताया गया कि कर्ज़ दो से बीस प्रतिशत प्रतिमाह की ब्याज दर पर लिया गया है.

महाराष्ट्र में यौनकर्मियों के उत्थान के लिए काम कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता प्रीति पाटकर के अनुसार, महामारी की पहली लहर के दौरान भी कई यौनकर्मियों को निजी ऋणदाताओं से ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज़ लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

प्रेरणा नामक एनजीओ चलाने वालीं पाटकर कहती हैं, ‘हमने पहली लहर के दौरान एक सर्वे किया था जिसमें सामने आया कि यौनकर्मियों के लिए अपना गुजारा करना तक मुश्किल हो रहा था. इसके लिए उन्हें कर्ज़ लेना पड़ रहा था. पेट भरने को दो वक्त की रोटी के लिए वे पूरी तरह से दान पर निर्भर थीं. हमने दूसरी लहर के दौरान ऐसा कोई सर्वे नहीं किया है, लेकिन सुनने में आया है कि इस बार भी यही सब हुआ है.’

वे आगे कहती हैं कि महाराष्ट्र सरकार ने आर्थिक राहत पहुंचाने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन वह सभी तक नहीं पहुंची.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)