भाजपा ने देश में सांप्रदायिकता और नफ़रत का जिन्न छोड़ दिया है

आम आदमी पार्टी से जुड़े आशीष खेतान का कहना है, यूपीए सरकार भले ही अयोग्य रही हो, वह इन समूहों की विचारधारा से इत्तेफ़ाक नहीं रखती थी, लेकिन वर्तमान सत्ता को इन्हीं समूहों से समर्थन मिलता है.

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आम आदमी पार्टी से जुड़े आशीष खेतान का कहना है, यूपीए सरकार भले ही अयोग्य रही हो, वह इन समूहों की विचारधारा से इत्तेफ़ाक नहीं रखती थी, लेकिन वर्तमान सत्ता को इन्हीं समूहों से समर्थन मिलता है.

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बाएं से: नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश (फोटो: पीटीआई और ट्विटर)

जुलाई 2016 में मुझे एक अनाम मेल मिला, जिसमें लिखा था, ‘तुमने सनातन संस्था और प्रतिष्ठित हिंदुओं के बारे में अपशब्द कहते हुए सारी हदें पार कर दी हैं. तुमने सनातन संस्था को बदनाम करने की साज़िश करते हुए इस पर बैन लगाने की बात कही. अब तुम्हारी इन सब घटिया हरकतों का हिसाब देने का समय आ गया है.’

इस ख़त को मेरे सभी ‘पापों’ का लेखा-जोखा, जिसमें नरोदा पाटिया और गुलबर्ग सोसाइटी मामलों में दी गई मेरी गवाही भी शामिल थी, के बारे में बताते हुए इन लाइनों से ख़त्म किया गया था, ‘जैसा कि तुम जानते हो कि हम जानते हैं कि तुम कहां रहते हो और क्या कर रहे हो. दाभोलकर और पानसरे जैसे हाल के लिए तैयार हो जाओ.’

ये धमकी मिलने के बाद मैंने दिल्ली पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई, पर उन्होंने इस पर कोई जवाब नहीं दिया और फिर मैं भी इसके बारे में भूल गया.

एक साल बाद, मई 2017 में मुझे ऐसी ही धमकी भरी एक और चिट्ठी मिली. ये हिंदी में लिखी थी और इसमें लिखा था कि मेरी मौत करीब है.

इसमें लिखा था,

‘अब समय आ गया है कि दुष्ट शिशुपाल की तरह तुम्हारे पापों का संहार किया जाए. तुम्हारे जैसे पत्रकारों की वजह से साध्वी प्रज्ञा सिंह जैसे संतों को सालों तक जेल में सड़ना पड़ा… वीरेंदर सिंह तावड़े (सनातन संस्था के सदस्य और नरेंद्र दाभोलकर की हत्या में आरोपी) जैसे सज्जनों को जेल भिजवाने में भी तुम्हारा हाथ था… तुम्हारे जैसे दुर्जन हिंदू राष्ट्र में मृत्युदंड के पात्र हैं और यह कार्य ईश्वर के इच्छा से बहुत जल्द ही संपन्न होगा.’

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इस बार मैंने इसे लेकर पुलिस और अदालत जाने की सोची. जब मेरे कई बार चिट्ठी भेजने के बावजूद दिल्ली पुलिस ने कोई जवाब नहीं दिया, तब मैंने सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया. वहां दो जजों की एक बेंच ने मेरा केस सुना. एक ने कहा कि मुझे पहले हाईकोर्ट जाना चाहिए था, एक ने कहा कि स्थानीय मजिस्ट्रेट के पास.

यहां सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2009 में गुजरात दंगों के गवाहों को समुचित सुरक्षा देने के आदेश की पूरी तरह अवहेलना की गई. मेरी याचिका ख़ारिज कर दी गई. जब लोकतंत्र ख़तरे में हो तब उच्च न्यायपालिका से उम्मीद की जाती है कि ये स्थिति को भांपकर उस हिसाब से कदम उठाए, लेकिन यह दुख की बात है कि कोर्ट तकनीकी बातों में उलझकर रह गया.

इसके बाद मैंने हाईकोर्ट की शरण ली. यहां पुलिस की ओर से अदालत के सामने गोलमोल बयान दिया गया. इस पर मेरे वक़ील ने इस बात पर ज़ोर दिया कि दिल्ली पुलिस को लिखकर देना चाहिए कि सुरक्षा संबंधी कोई ख़तरा नहीं है. इस बात को महीने भर से ज़्यादा बीत चुका है, लेकिन दिल्ली पुलिस ने अब तक मुझे लिखित में कोई दस्तावेज नहीं दिया है.

एक इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट (खोजी पत्रकार) के बतौर आप खतरों के साथ रहते ही हैं. एक रिपोर्टर के रूप में 15 सालों के दौरान, जहां कई बार मैंने छुपकर भी काम किया, मैं कई बार बाल-बाल बचा. उन 6 महीनों के दौरान, जब मैं 2002 के गुजरात में हुए नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार लोगों के बीच एक कट्टर स्वयंसेवक के भेष में ख़ुफ़िया तौर पर उनके हत्या, बलात्कार और लूटपाट करने के कुबूलनामे रिकॉर्ड कर रहा था, तब कई बार मेरी पहचान ज़ाहिर होते-होते बची.

तब भी मुझे कभी अपनी जान जाने की फिक्र नहीं हुई. हां, दिसंबर 2004 में जब मैं स्पाई कैमरा पहनकर वडोदरा के दबंग नेता और भाजपा विधायक मधु श्रीवास्तव के यहां, उनके द्वारा ज़हीरा शेख़ को पाला बदलने के लिए दी गई रकम के बारे में जानकारी निकालने गया था, मैं मानता हूं मैं नर्वस था, पर डरा हुआ नहीं.

पीछे देखता हूं तो लगता है कि तब मुझमें एक सहज आत्मविश्वास था कि आखिरकार क़ानून उनकी तरफ है जो सही हैं. इसी भरोसे पर मैं और बाकी पत्रकार काम करते रहे. मुझे लगता था कि हिंदुत्व ब्रिगेड की ये कट्टरता अपवाद है, 2002 के दंगे, बेस्ट बेकरी नरसंहार, ये सब अपवाद मात्र हैं.

मेरा सोचना था कि दक्षिणपंथी हिंसा तब ही करते हैं, जब वे भीड़ का हिस्सा होते हैं. वे कायर हैं. साथ ही उनमें अदालत और क़ानून का डर भी है. असल में, वे मुझ जैसे पत्रकारों से डरते हैं, और अगर वे जानते भी कि मैं कौन हूं तब भी वे मुझे नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते.

लेकिन आज मुझे यह समझ आ गया है कि वो किसी अलग वक़्त की बात है. आज मुझे अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की चिंता होती है. इसी हफ़्ते बेंगलुरु शहर के बीचों-बीच एक साहसी और स्वतंत्र पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर हत्या कर दी गई.

यहां एक अजीब-सा पैटर्न है. बीते 3 सालों में तर्कवादियों, उदारवादियों और आज़ाद ख़याल लोगों को धमकियां मिलने की घटनाएं बढ़ने लगी हैं. कुछ मामलों में ये धमकियां सिर्फ सोशल मीडिया तक ही सीमित रहती हैं. पर कई बार, जैसे मेरे साथ हुआ, ये धमकियां सीधे दी गईं.

दाभोलकर, सीपीआई (एम) कार्यकर्ता गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या समान परिस्थितियों में हुईं. दक्षिणपंथी मंचों से लगातार उन्हें निशाना बनाया गया, उन्हें कई बार धमकियां दी गईं और आखिरकार उनकी हत्या कर दी गई.

आज देश में कई दक्षिणपंथी समूह सक्रिय हैं. इनमें सनातन संस्था, अभिनव भारत, हिंदू जनजागृति समिति, हिंदी रक्षक समिति, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, श्रीराम सेना, विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख हैं.

इन समूहों के कार्यकर्ता अक्सर एक-दूसरे से मेल खाते हैं. जो बात इन्हें एक साथ बंधे रखती है, वो है इनकी नफ़रत और हिंसा की विचारधारा. इनके निशाने पर वे लोग होते हैं जिनकी विचारधारा इनसे नहीं मिलती.

महाराष्ट्र में सनातन संस्था के दफ्तरों पर सीबीआई के छापों में कई पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम की ‘हिट लिस्ट’ बरामद हुई थी. पर इसके बाद इस एजेंसी द्वारा इस बारे में कोई कार्रवाई नहीं हुई.

सनातन संस्था के कई सदस्य, जिन पर गोवा और महाराष्ट्र के बम विस्फोट समेत दाभोलकर और पानसरे जैसे हत्याओं के मामले से जुड़े होने का शक़ है, एक दशक से फ़रार हैं. मालेगांव और हैदराबाद मक्का मस्जिद विस्फोटों के लिए बम बनाने वालों को 10 सालों में गिरफ्तार नहीं किया जा सका.

यूपीए सरकार भले ही अयोग्य रही हो, वह इन समूहों की विचारधारा से इत्तेफ़ाक नहीं रखती थी. लेकिन वर्तमान सत्ता को इन्हीं समूहों से समर्थन मिलता है. नफ़रत के इन झंडाबरदारों में सज़ा मिलने के प्रति एक अनकही बेफिक्री दिखाई देती है.

उन्हें लगता है उन्हें कुछ नहीं होगा क्योंकि सरकार उनके साथ है. मैंने सज़ा मिलने के बारे में ऐसी ही बेफिक्री गुजरात दंगों के आरोपियों में देखी थी. पर वो इतनी निरंकुश नहीं थी.

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुई जांच बाबू बजरंगी, माया कोडनानी और उनके जैसे सैकड़ों की गिरफ्तारी और सज़ा तक पहुंची. हत्या करने वाले पुलिस वालों को सस्पेंड और गिरफ्तार किया गया. मैंने दंगों के तीन मामलों में- गुलबर्ग सोसाइटी, नरोदा ग्राम और नरोदा पाटिया में सैकड़ों अन्य गवाहों के साथ गवाही दी थी, जो अदालत में केंद्रीय सुरक्षा बलों की निगरानी में कई हफ़्तों तक रिकॉर्ड की गई.

पांच साल बाद आज मैं मुझे धमकियां भेजने वालों के ख़िलाफ़ एक्शन लेने के पुलिस और अदालत से गुज़ारिश कर रहा हूं. मैं उन गवाहों की हालत सोचकर कांप जाता हूं जो आरोपी के पड़ोस में रहते हैं. उनके पास कॉलम लिखने या सुप्रीम कोर्ट तक जाने का विकल्प नहीं है.

दक्षिपंथियों की कटु आलोचक रहीं गौरी लंकेश की निर्मम हत्या से नफ़रत फैलाने वाली ताकतों ने ये साफ कर दिया है अब वे कुछ भी कर सकती हैं, वे ही सत्ता हैं. धमकाना, हिंसा और यहां तक कि हत्या की घटनाएं उनके लिए आम हो गई हैं क्योंकि वे जानते हैं इस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी.

भाजपा नेताओं ने आशा के अनुरूप ही प्रतिक्रिया दी है. लंकेश की हत्या को राज्य सरकार की नाकामी बताने की कोशिश की जा रही है. मामला कुछ भी हो, लेकिन यह तो मानना होगा कि भाजपा ने सांप्रदायिकता और द्वेष का एक ऐसा जिन्न छोड़ दिया है, जो लिंचिंग, हत्या और अन्य जघन्य अपराध कर रहा है.

(आशीष खेतान दिल्ली सरकार के दिल्ली डॉयलाग कमीशन के अध्यक्ष हैं.)

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