सांख्यिकी मंत्रालय के राष्ट्रीय सर्वेक्षण संगठन ने 2017-18 में वार्षिक श्रम बल सर्वेक्षण करना शुरू किया, जो अब तक केवल हर पांच वर्षों पर होता था. हाल में एनएसओ ने अपना तीसरा वार्षिक सर्वेक्षण 2019-20 जारी किया, जिसके आंकड़ों से पता चलता है कि श्रम बल भागीदारी की स्थिति अब भी दुरुस्त नहीं है.
भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय के राष्ट्रीय सर्वेक्षण संगठन (एनएसओ) ने 2017-18 में वार्षिक श्रम बल सर्वेक्षण करना शुरू किया, जो अब तक केवल हर पांच वर्षों पर होता था. एनएसओ ने अभी अपना तीसरा वार्षिक सर्वेक्षण (2019-20) जारी किया, जो 30 जून 2020 तक की अवधि को कवर करता है.
2017-18 में एनएसओ ने बताया कि बेरोजगारी 45 साल के उच्च स्तर पर पहुंच गई थी और युवा बेरोजगारी 2011-12 और 2017-18 के बीच तीन गुना बढ़कर 18% से अधिक हो गई थी. यह भी सर्वविदित है कि इसके बाद खराब आर्थिक प्रबंधन के परिणामस्वरूप मार्च 2020 तक नौ तिमाही तक प्रत्येक तिमाही आर्थिक विकास धीमा हो गया.
नए आंकड़ों से पता चलता है कि स्थिति गंभीर बनी हुई है. पहली नजर में 2017-18 से तीन वर्षों में श्रम बल भागीदारी (एलएफपीआर) और कार्यबल (डब्ल्यूपीआर) भागीदारी दरों में मामूली वृद्धि (जो कामकाजी उम्र यानी 15 वर्ष और उससे अधिक की आबादी में लोगों के हिस्से के रूप में मापा जाता है) सकारात्मक विकास के रूप में देखा जा सकता है.
हालांकि ध्यान रखें कि भारत में श्रम बल भागीदारी 40.9% (2019-20, दो साल पहले 38.1%) थी जो वैश्विक औसत 60.8% से बहुत कम है. लेकिन कार्यबल में वृद्धि क्यों और कैसे हुई, ऐसे समय में जबकि अर्थव्यवस्था 2017-18 से 2019-20 तक धीमी हो रही थी, इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता है.
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) 2019-20 के आंकड़ों की सावधानीपूर्वक जांच करने के बाद हमारा निम्नलिखित निष्कर्ष हैं.
एक धीमी अर्थव्यवस्था में आय नहीं बढ़ रही है और संकट बढ़ रहा है. जब रोजगार और मजदूरी में पहले से गिरती प्रवृत्तियों की बात आती है, तो घरेलू संसाधनों पर दबाव बहुत अधिक हो जाता है.
2019 तक कैजुअल और नियमित श्रमिकों के लिए मजदूरी स्थिर या गिर गई थी. हमने 2019-20 में देखा कि पुरुष कार्यबल समान है पर महिलाओं को काम मिल रहा है. महिलाओं के कार्यबल को आगे बढ़ाने के लिए संभवत: यहां दो ताकतें काम कर रही हैं.
पहला कुछ ऐसा है जो दुनिया भर में होता है: कि लड़कियां जब शिक्षित होती हैं, जैसा कि वे भारत में हो रही हैं, न केवल प्राथमिक स्तर (यानी कक्षा 8 तक), बल्कि आगे भी. 2010 और 2015 के वर्षों में माध्यमिक स्तर (कक्षा 9-10) में नामांकन दर 58% से बढ़कर 85% हो गई और यह लैंगिक समानता के साथ हुआ.
अधिकांश राज्यों ने लड़कियों की माध्यमिक शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए 2010 के आसपास कक्षा 8 समाप्त कर कक्षा 9-10 में जाने वाली लड़कियों को छात्रवृत्ति या साइकिल देने की पेशकश की ताकि वे स्कूल जा सकें.
माध्यमिक विद्यालय प्रमाणपत्र प्राप्त करने वाली इन लड़कियों के पास सेवाओं और यहां तक कि विनिर्माण क्षेत्र में शहरी नौकरियों में प्रवेश करने की बेहतर संभावनाएं थीं. दुनिया भर में लड़कियों के शैक्षिक स्तर और आर्थिक गतिविधियों में उनके जुड़ाव के बीच एक मजबूत सकारात्मक संबंध है.
शहरी क्षेत्रों में सेवा क्षेत्र के नियमित कार्य में वृद्धि से महिलाओं को लाभ हो रहा था; काम करने वाली आधी से ज्यादा महिलाएं नियमित काम करती हैं. हालांकि 2019-20 में यह प्रवृत्ति उलट गई है.
वास्तव में नवीनतम पीएलएफएस से यह भी पता चलता है कि 2019-20 में नियमित नौकरियों का हिस्सा गिर गया है, अधिक अनिश्चित स्व-रोजगार और दैनिक मजदूरी का हिस्सा बढ़ रहा था.
दूसरा कारण और भी अधिक चिंताजनक है: कार्यबल में वृद्धि गरीबी से प्रेरित है. सबसे पहले 2019-20 के आंकड़ों से पता चलता है कि कुल कार्यबल में कृषि का हिस्सा, जो दो दशकों से लगातार घट रहा था, गिरना बंद हो गया है; वास्तव में यह उलट गया है, क्योंकि 2020 में शहरों से पलायन स्पष्ट रूप से दिखा.
कार्यबल में कृषि की बढ़ती हिस्सेदारी एक विकासशील अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन न होकर एक प्रतिगामी कदम है. वहीं, रोजगार में विनिर्माण हिस्सेदारी, जो 2011-12 और 2017-18 के बीच गिर गई थी, ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के बावजूद 2019-20 में फिर से गिर गई. निर्माण रोजगार हिस्सेदारी भी गिर गई.
इसके अतिरिक्त महिलाओं ने नियमित काम छोड़ दिया और स्वरोजगार करने लगीं. स्वरोजगार किसी भी मामले में नियमित काम की तुलना में अधिक अनिश्चित है. लेकिन इससे भी बदतर कई महिलाओं का प्रवेश संकट से प्रेरित था.
यह इस तथ्य से प्रदर्शित होता है कि घरेलू उद्यम में अवैतनिक पारिवारिक सहायक महिलाओं की हिस्सेदारी 2018-19 से 2019-20 तक तेजी से बढ़ी है. इसका मतलब है कि महिलाएं आर्थिक गतिविधियों में लगी हुई थीं, लेकिन यह अवैतनिक काम है.
तीसरा, अनौपचारिकता 2019-20 में बढ़ी है (जिनके पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं थी) जिसने 2011-12 और 2017-18 के बीच एक प्रवृत्ति को उलट दिया जबकि नियमित श्रमिकों में सामाजिक सुरक्षा रहित श्रमिकों की हिस्सेदारी गिर रही थी.
बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के नियमित काम करने वाले सभी गैर-कृषि नियमित श्रमिक का अनुपात 2018-19 में 49.6% से 2019-20 के बीच बढ़कर 54.2% हो गए. यह इस तथ्य के अनुरूप है कि मालिकाना और साझेदारी उद्यमों में लगे लोगों की हिस्सेदारी- अनौपचारिक क्षेत्र के उद्यम- में इसी अवधि में वृद्धि हुई है.
चौथा, उन सभी प्रकार के श्रमिकों के लिए जिनके पास काम था- नियमित, स्व-नियोजित और दैनिक वेतन श्रमिक- में काम करने वाले घंटों की औसत संख्या अप्रैल-जून 2020 तिमाही (लॉकडाउन अवधि) में तेजी से गिर गई, जब अर्थव्यवस्था में 23.7% विकास दर गिरी थी .
इस प्रकार काम की गुणवत्ता के हर उचित माप पर एक प्रत्यक्ष गिरावट थी- क्योंकि अर्थव्यवस्था जो पहले से ही तीन साल से धीमी थी, 1947 में स्वतंत्रता के बाद से एक वित्तीय वर्ष (2019-20) में सबसे खराब संकुचन में चली गई. यह किसी भी जी-20 देश के लिए सबसे बड़ा आर्थिक संकुचन था.
अंत में अगर कोई अभी भी सोच रहा है कि 2018-19 से 2019-20 के बीच बेरोजगारी दर में 5.8% से 4.8% की गिरावट एक सकारात्मक विकास है तो यहां एक तथ्य उन्हें दोबारा सोचने पर मजबूर करेगा.
वर्तमान साप्ताहिक स्थिति के अनुसार (जो बेरोजगारी को मापने के लिए अंतरराष्ट्रीय मानक के करीब है) 2017-18 (8.9%) से 2018-19 (8.8%) से 2019-20 (8.8%) के बीच बेरोजगारी दर में कोई सुधार नहीं हुआ है. माप शुरू होने के बाद से ये बेरोज़गारी दरें पिछले 48 वर्षों में सबसे खराब बनी हुई हैं.
(संतोष मेहरोत्रा ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ में विजिटिंग प्रोफेसर हैं.)