प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार की पूरी प्रचार मशीनरी अप्रैल-जून 2021 के दौरान भारत की जीडीपी में 20.1 प्रतिशत की वृद्धि को बड़े आर्थिक सुधार के रूप में दिखा रही है. हालांकि अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अप्रैल-जून 2021 की यह वृद्धि साल 2019 और 2018 के आंकड़ों से कम है. पिछले साल लॉकडाउन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था में काफ़ी ज़्यादा गिरावट आई थी, इसलिए पिछले साल से तुलना कर काफ़ी ज़्यादा वृद्धि का भ्रम फैलाया जा रहा है.
नई दिल्ली: विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने कहा है कि अप्रैल-जून 2021 के दौरान भारत की जीडीपी में 20.1 फीसदी की वृद्धि ‘चौंकाने वाली बुरी खबर’ है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पूरी प्रचार मशीनरी इसे बड़े आर्थिक सुधार के रूप में दिखा रही है.
आखिर क्यों एक ही आंकड़े का एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न मतलब निकाला जा रहा है?
बसु ने इसे सरल शब्दों में बताया है. दरअसल अप्रैल-जून 2021 में 20 फीसदी की वृद्धि साल 2019 की तुलना में 9.2 फीसदी की गिरावट है. यदि साल 2018 के आंकड़ों से तुलना करेंगे तो यह और कम होगा.
चूंकि पिछले साल कोरोना वायरस के कारण लागू लॉकडाउन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था में काफी ज्यादा गिरावट आई थी, इसलिए पिछले साल से तुलना कर काफी ज्यादा वृद्धि का भ्रम फैलाया जा रहा है.
इसने बताया गया है कि इस साल अप्रैल-जून में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की वृद्धि वी (V) आकार में नहीं थी, जैसा कि वित्त मंत्रालय द्वारा दावा किया गया था. हकीकत यह है कि महामारी से पहले की आर्थिक स्थिति में ही पहुंचने में अभी काफी समय लगेगा.
इस चिंता के गहरे कारण अलग-अलग आंकड़ों में हैं. अप्रैल-जून 2021 में विकास का एक प्रमुख भाग सकल अचल पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) 10.22 लाख करोड़ रुपये था. यह अप्रैल-जून 2019 में 12.33 लाख करोड़ रुपये के जीएफसीएफ से कम है.
ऐसे में सवाल उठते हैं कि निवेश पूंजी के बड़े बजट आवंटन कहां हैं, जो 100 लाख करोड़ रुपये की राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन परियोजना का हिस्सा है, जो 2020-21 में शुरू हुई थी और इसे लेकर दावा किया गया था कि यह महामारी के बाद बड़े पैमाने पर निवेश प्रोत्साहन प्रदान करेगी.
यदि इस वर्ष आनुपातिक अवसंरचना निवेश आवंटन किया गया होता, तो सकल पूंजी निर्माण 2019 की तुलना में कम नहीं होता. और याद रखें, जीडीपी अनुपात में समग्र निवेश पिछले आठ वर्षों में लगातार गिरा है. यह निवेश जीडीपी के लगभग 34 प्रतिशत से गिरकर 2019-20 में 28 प्रतिशत हो गया है.
अप्रैल-जून 2021 में निजी अंतिम उपभोग व्यय 17,83,611 करोड़ रुपये था, जो 2017-18 के 17,83,905 करोड़ रुपये के बराबर है. निजी खपत, जो कि मांग को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाता है, गिरकर साल 2017-18 के स्तर पर आ गया है.
अगर हम विनिर्माण, निर्माण, व्यापार, होटल, परिवहन और संचार जैसे प्रमुख रोजगार सृजन क्षेत्रों के प्रदर्शन को देखें, तो इसकी तस्वीर भी उतनी ही निराशाजनक है.
आधिकारिक आंकड़े दर्शाते हैं कि अप्रैल-जून 2021 में विनिर्माण सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) 5,43,822 करोड़ रुपये था. यह 2018-19 की इसी तिमाही की तुलना में कम है.
निर्माण में जीवीए 2021-22 की तुलना में अप्रैल-जून 2017-18 में अधिक था. अत्यधिक रोजगार वाले क्षेत्रों- जैसे कि व्यापार, होटल, परिवहन और संचार सेवा क्षेत्रों में वर्ष 2019-20 की समान तिमाही की तुलना में अप्रैल-जून 2021 में जीवीए में 30 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है.
संक्षेप में कहें तो अर्थव्यवस्था अभी भी कई प्रमुख क्षेत्रों में 2019 और 2018 वाले स्तरों तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रही है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने कहा है कि जी-20 देशों में से भारत की अर्थव्यवस्था आखिर में पूरी तरह से ठीक होने की उम्मीद है.
भारत के सामने पहली चुनौती यह है कि वह अपनेआप को पहले महामारी से पूर्व वाली स्थिति में पहुंचाए, जो कि सिर्फ अगले वित्त वर्ष में संभव हो सकती है. लेकिन यह खपत की मांग को वापस लाने के लिए पर्याप्त नहीं है. महामारी के बाद की अवधि में आय के नुकसान की पूरी भरपाई होने के बाद ही निरंतर मांग की वापस हो पाएगी.
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि महामारी से पहले आपकी आय 100 रुपये थी और ये घटकर दो सालों के लिए 80 रुपये हो गई. इस तरह यदि दो साल बाद आपकी आय 100 रुपये पर आ भी जाती है, तब भी आपको 40 रुपये का नुकसान हुआ.
अर्थशास्त्री प्रणब सेन का कहना है कि यदि आय में कमी के चलते बचत में गिरावट आई है तो सुधार होने पर इसकी भरपाई करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और खपत को बाद में प्राप्त किया जा सकता है. इससे सतत विकास सुधार में और देरी हो सकती है.
इन जटिलताओं को देखते हुए मोदी सरकार के आर्थिक सलाहकारों के लिए यही अच्छा होगा कि वे अपने वर्णमाला से वी (V) अक्षर को हटा दें.
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