पर्यावरणीय विशेषज्ञों ने इस बात को लेकर चिंता ज़ाहिर की है कि ऐसा करके सरकार अरावली क्षेत्र में फैले करीब 20,000 एकड़ की वन भूमि को निर्माण कार्यों के लिए खोलना चाहती है.
नई दिल्ली: कानूनी एवं पर्यावरणीय विशेषज्ञों ने इस बात को लेकर चिंता जाहिर की है कि हरियाणा सरकार द्वारा अरावली पहाड़ियों को फिर से परिभाषित करने और फरीदाबाद में करीब 20,000 एकड़ की भूमि को ‘विकास कार्यों’ के लिए खोलने की इजाजत देना सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है.
हरियाणा सरकार की एक समिति ने अधिकारियों को केंद्र की 1992 की अधिसूचना के आधार पर अरावली के तहत आने वाले क्षेत्रों की पहचान करने की सलाह दी है, जिसमें केवल पुराने गुड़गांव जिले के क्षेत्र शामिल हैं.
इसे लेकर पर्यावरणविदों ने सवाल उठाया है कि क्या राष्ट्रीय संरक्षण क्षेत्र (एनसीजेड) के प्रावधान फरीदाबाद के अरावली क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगे?
समिति ने कहा कि राजस्व रिकॉर्ड केवल ‘गैर मुमकिन पहाड़’ (ऐसे पहाड़ी क्षेत्र जो कृषि योग्य नहीं हैं) की पहचान करते हैं.
समिति ने अपनी हाल की बैठक में संबंधित अधिकारियों को सलाह दी है कि केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 1992 की अधिसूचना के आधार पर अरावली के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए.
हरियाणा सरकार के प्रधान सचिव (नगर एवं कंट्री योजना) एपी सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय राजधानी के हरियाणा उप क्षेत्र में एनसीजेड की ‘जमीन-सच्चाई’ को लेकर पिछले महीने नौ अगस्त को राज्य स्तरीय समिति (एसएलसी) की बैठक हुई थी.
बैठक में उपायुक्त भी शामिल थे और जिला-स्तरीय उप-समितियों से केंद्र की 1992 की अधिसूचना के अनुसार अरावली की पहचान करने को कहा गया.
इस पर पर्यावरणविदों ने दावा किया है कि यह ‘गैर मुमकिन पहाड़’ को एनसीजेड से प्रभावी ढंग से बाहर कर देगा और फरीदाबाद में अरावली क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लागू नहीं होंगे.
एसएलसी की बैठक की टिप्पणियों के मुताबिक, ‘राजस्व रिकॉर्ड में ‘अरावली’ नाम का कोई शब्द नहीं है, बल्कि केवल ‘गैर मुमकिन पहाड़’ का उल्लेख है. लिहाजा कुछ जिलों ने राजस्व रिकॉर्ड में ‘गैर मुमकिन पहाड़’ के तौर दर्ज क्षेत्रों को अरावली के समान मानते हुए एनसीजेड के तहत उनकी पहचान की है.’
इसमें तीन मार्च 2017 को हरियाणा के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में हुई बैठक के मिनटों का संदर्भ दिया गया है, जिसमें अरावली की पहचान के मुद्दे के संबंध में कहा गया है, ‘हरियाणा सरकार इस अधिसूचना को पुराने जिले गुरुग्राम (वर्तमान में गुड़गांव और नूंह) में ही मान सकती है और सात मई 1992 की अधिसूचना में निर्दिष्ट क्षेत्रों को अरावली माना जा सकता है.’
उसमें कहा गया है, ‘अरावली की परिभाषा को तब तक हरियाणा के अन्य उप- क्षेत्रों तक विस्तारित नहीं किया जा सकता है जो सात मई 1992 की अरावली अधिसूचना में परिभाषित नहीं हैं, जब तक कि यह पर्यावरण मंत्रालय द्वारा समान अधिसूचना के माध्यम से ऐसा नहीं किया जाता है.’
पिछले महीने हुई एसएलसी की बैठक में कहा गया है, ‘इसलिए पुराने जिले गुरुग्राम में सात मई 1992 को मौजूद केवल ‘निर्दिष्ट क्षेत्र’ ‘अरावली’ होने के कारण ‘पुष्ट एनसीजेड’ का हिस्सा हो सकते हैं और अन्य जिलों के ऐसे क्षेत्रों को एनसीजेड की श्रेणी से हटाया जा सकता है.’
अरावली पर समिति के इस दृष्टिकोण ने व्यापक चिंताओं को जन्म दे दिया है कि यह कदम निर्माण गतिविधि के लिए वन भूमि को खोलने का एक प्रयास है. दरअसल, इस फैसले से फरीदाबाद में 9,357 हेक्टेयर, महेंद्रगढ़ में 22,607 हेक्टेयर और पलवल में 3,369 हेक्टेयर भूमि प्रभावित होगी.
गुड़गांव नागरिक एकता मंच के पर्यावरणविद् चेतन अग्रवाल ने आशंका जताई कि इस कदम से क्षेत्र में निर्माण गतिविधियां शुरू हो जाएंगी.
उन्होंने कहा कि फरीदाबाद समेत गुड़गांव के बाहर स्थित सभी ‘गैर मुमकिन पहाड़’ अरावली का हिस्सा नहीं रहेंगे. उन्होंने कहा कि इसका असर न सिर्फ फरीदाबाद पर, बल्कि रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ पर भी पड़ेगा.
अग्रवाल ने द वायर से कहा, ‘संक्षेप में इनका मतलब ये है कि हरियाणा सरकार दावा कर रही है कि उनके राजस्व रिकॉर्ड में ‘अरावली’ नाम की कोई चीज नहीं है. वे कह रहे हैं कि उनके राजस्व रिकॉर्ड में केवल ‘गैर मुमकिन पहाड़’ हैं और कुछ जिले एनसीजेड की पहचान करने के उद्देश्य से ऐसे क्षेत्रों को अरावली के रूप में मानते रहे हैं.’
अग्रवाल ने कहा कि यदि राज्य सरकार ने इस दावे को लागू किया गया तो अरावल की करीब 20,000 एकड़ भूमि राष्ट्रीय संरक्षण क्षेत्र या एनसीजेड से बाहर हो जाएगा. ये काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि मौजूदा प्रावधानों के मुताबिक एनसीजेड के हिस्से में आने वाली भूमि के सिर्फ 0.5 फीसदी हिस्से पर निर्माण कार्य किया जा सकता है. इस जोन से बाहर निकले ही पूरी भूमि पर निर्माण किया जा सकता है.
अग्रवाल के अनुसार अरावली पहाड़ियों की परिभाषा पर चर्चा करने के लिए एनसीआर योजना बोर्ड ने दिसंबर 2016 में एक विशेष बैठक की थी. इसके सदस्यों ने फैसला किया था कि वनों और अरावली पहाड़ियों की परिभाषा से संबंधित मुद्दों को जल्द से जल्द हल करने के लिए शहरी विकास मंत्रालय द्वारा पर्यावरण मंत्रालय के साथ एक बैठक बुलाई जानी चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘पहले प्रशासन ने ज़ोनिंग प्रक्रिया के जरिये 0.5 फीसदी नियम को बदलने की कोशिश की और जब ऐसा नहीं हो पाया तो वे अरावली को ही परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं.’
चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने साल 2009 में फैसला दिया था कि सरकार को अरावली की रक्षा करनी है और फरीदाबाद में खनन गतिविधियों को रोकना है, अग्रवाल ने कहा, ‘यह देखा जाना बाकी है कि हरियाणा सरकार के इस नवीनतम कदम का क्या प्रभाव होगा.’
वकील और पर्यावरण कार्यकर्ता ऋत्विक दत्ता ने भी कहा कि हरियाणा सरकार की कार्रवाई ‘पूरी तरह से अवैध और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के विपरीत’ है.
उन्होंने से कहा, ‘चाहे यह अरावली हो या न हो, ये पूरी 8000 हेक्टेयर की भूमि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार ‘जंगल’ की परिभाषा के तहत आता है. इसलिए जब वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों का पालन किए बिना यहां किसी गैर-वन गतिविधि की अनुमति नहीं दी जा सकती है.’
दत्ता ने यह भी कहा कि हरियाणा राज्य ने शीर्ष अदालत के 1996 के टीएन गोदावर्मन थिरुमूलपाद बनाम भारत संघ फैसले के अनुसार वन भूमि की पहचान पूरी नहीं की है.
उन्होंने कहा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह फरीदाबाद या गुड़गांव क्षेत्र है. यदि कोई भूमि ‘जंगल’ की परिभाषा के अंतर्गत आती है, इसे संरक्षित क्षेत्र माना जाएगा.
दत्ता ने हरियाणा सरकार की समिति के दृष्टिकोण को दोषपूर्ण बताया. उन्होंने कहा, ‘वे 1992 की अधिसूचना के तहत बहुत सीमित दायरे में मामले पर विचार कर रहे हैं, जो कहता है कि अरावली रेंज अलवर से शुरू होकर गुड़गांव तक जाती है. तथ्य यह है कि प्राकृतिक संस्थाओं के लिए आपको अधिसूचना की आवश्यकता नहीं है और सरकार को इसे समझना चाहिए.’
दूसरे शब्दों में कहें, तो ‘हिमालय’ या ‘ब्रह्मपुत्र’ जैसी प्राकृतिक पहाड़ या नदी को बताने के लिए किसी अधिसूचना की जरूरत नहीं होती है. सरकार का ये कहना कि उनके राजस्व रिकॉर्ड में अरावली नहीं है, यह एक बहुत ही गलत व्याख्या है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)