महात्मा गांधी का मानना था कि अगर हमें अवाम तक अपनी पहुंच क़ायम करनी है तो उन तक उनकी भाषा के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है. इसलिए वे आसान भाषा के हामी थे जो आसानी से अधिक से अधिक लोगों की समझ में आ सके. लिहाज़ा गांधी हिंदी और उर्दू की साझी शक्ल में हिंदुस्तानी की वकालत किया करते थे.
एक ऐसा समय जहां राष्ट्रवाद की विचारधारा अंगड़ाइयां ले रही थी, चारों तरफ़ तोपों की आवाज़ गरज रही थी, गोलियों की बौछारें हो रही थीं. वहीं, दूसरी ओर लॉर्ड जार्ज का मानना था कि ‘ताक़त के बल-बूते सबको ग़ुलाम बनाया जा सकता है.’
ऐसे माहौल में हिंदुस्तानी सियासत में एक दुबली-पतली क़द-काठी में एक बाबा-ए-क़ौम ने दस्तक दी जो कोई और नहीं बल्कि अहिंसा के पुजारी, इंसानियत के चिराग़ महात्मा गांधी थे. जिनका नारा था ‘करो या मरो’ जिसने पूरे क़ौम को ललकारा और कहा कि हम ख़ून-ख़राबा नहीं चाहते, हम ईंट का जवाब पत्थर से नहीं अहिंसात्मक प्रतिरोध से देना चाहते हैं और ग़ुलामी की जंजीरों को तोड़ना चाहते हैं.
गांधी का व्यक्तित्व और उनका दर्शन हमारे लिए आइडिया ऑफ इंडिया है. उनके दर्शन की रोशनी में हिंदुस्तान की हर तरह की समस्याओं का समाधान मिलता है. गांधी के दर्शन को अगर देखें तो हिंदुस्तान से मुतअल्लिक़ सभी मुद्दों पर सोचा और उन्होंने अपना विचार प्रस्तुत किया चाहे वह सियासत के मैदान में हो, आर्थिक मामले हों या अदब के मैदान में. हम यहां गांधी की भाषा और सियासत से मुतअल्लिक़ नज़रिये को समझने की कोशिश करेंगे.
गांधी और उर्दू ज़बान का मसला
इंसानियत के अलंबरदार गांधी जी को उर्दू ज़बान से जो लगाव और मोहब्बत थी उसका इज़हार उन्होंने मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से कई बार किया है- अपने भाषणों के अलावा ख़ुद भी फ़ारसी लिपि में कई बार ख़त लिखे है.
मिसाल के तौर पर, दिसंबर 1939 में अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू हिंद ने दिल्ली में अखिल भारतीय कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था जिसमें अंजुमन के जनरल सेक्रेटरी मौलवी अब्दुलहक़ ने महात्मा गांधी को ख़त लिखकर जलसे में शिरकत की दावत दी थी. उसी ख़त के जवाब, जो गांधी जी अपने हाथ से लिखा था, पेश-ए-नज़र है-
‘भाई साहब आपका तार मिला था. मुझे दुख है कि आपके जलसे में मैं हाज़िर नहीं हो सकता हूं. मेरी उम्मीद है कि जलसा हर तरह से कामयाब होगा. आप जानते हैं कि उर्दू ज़बान की तरक़्क़ी चाहता हूं. मेरा ख़याल है कि सब हिंदू जो मुल्क की ख़िदमत करना चाहते हैं, उर्दू लिखें और मुस्लिम हिंदी सीखें.
आपका गांधी,
26.12.1939, वर्धा’
लिहाज़ा गांधी जी के हाथ से लिखा हुआ यह ख़त तीन बातों की तस्दीक़ करता है-
पहला- गांधी ख़ुद उर्दू ज़बान के जानकार थे
दूसरा- गांधी का उर्दू ज़बान के प्रति मोहब्बत और नज़रिया साथ ही पूरे मुल्क के लिए एक संदेश
तीसरा- भाषाई सांप्रदायिकों के लिए क़रारा तमाचा
राष्ट्रभाषा और गांधी
हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा को लेकर उन्होंने अपनी राय रखते हुए 1937 में छपने वाले अख़बार हरिजन सेवक में लिखा था कि-
‘हम इस बात पर इत्तेफ़ाक़ करते हैं कि हिंदुस्तानी को हिंदुस्तान का राष्ट्रभाषा होना चाहिए और वह उर्दू और देवनागरी दोनों लिखावटों में लिखी जानी चाहिए साथ ही सरकारी दफ़्तरों और शिक्षा में दोनों लिखावटों को क़बूल कर लेना चाहिए.’
लखनऊ से शाया होने वाले उर्दू रिसाले नया दौर के गांधी विशेषांक 1996 में शामिल एक गुफ़्तगू का ज़िक्र करना चाहूंगा. यह गुफ़्तगू नया दौर के संपादक जनाब सैय्यद अमजद हुसैन और गांधी के हमराही, मुजाहिद-ए-आज़ादी, गांधीवादी विशंभर नाथ पांडे के बीच है.
विशंभर नाथ पांडे एक ऐसे परिवार से वाबस्ता थे जिनके ख़ानदान के कुल 35 लोगों को अंग्रेज़ों द्वारा 1857 के विद्रोह में क़त्ल कर दिया गया था और औरतों को ज़िंदा जला दिया था. इस गुफ़्तगू में जब उनसे पूछा गया कि हिंदुस्तान में चल रही भाषाई सियासत पर गांधी का क्या नज़रिया था?
विशंभर नाथ पांडे इस सवाल का जवाब देते हुए साल 1947 में गांधी के प्रार्थना सभा दिल्ली में गांधी द्वारा दिए भाषा के मुताल्लिक़ उस तक़रीर की याद दिलाते हैं, जिसमें गांधी कहते हैं-
लोग कहते हैं कि तू तो अरसे तक हिंदी साहित्य सम्मेलन में था. जब वहां था तो हिंदी की ख़ूबियां बताता था. दक्षिण भारत में तूने हिंदी चलाई वहां के लोग तमिल मानते थे. वहां तूने हिंदी फ़ैला दी और तूने हिंदी की बहुत ख़िदमत की. तो अब हिंदुस्तानी की बात क्यों करता है? इसका जवाब यह है कि मैं जिस हिंदी को मानता हूं वह हिंदुस्तानी थी.
मैं इंदौर के साहित्य सम्मेलन में गया वहां मैंने कह दिया कि मै जिस हिंदी को मानता हूं उसे हिंदू भी बोलते हैं, मुसलमान भी बोलते हैं. मेरी हिंदी वह नहीं है जिसे हिंदी वाला बोलते है, मैं तो टूटी-फूटी हिंदी बोलता हूं, जो सब समझ लेते हैं. मुझे न तो फ़ारसी उर्दू से लदी उर्दू चाहिए और न ही संस्कृत से भरी हिंदी. मुझे तो गंगा-जमुना का संगम चाहिए.
ये लोग कहते हैं कि तू नासमझ है. लोग अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू की बात सुनेंगे, लोग हिंदी साहित्य सम्मेलन की बात सुनेंगे, तेरी बात कौन सुनेगा? लेकिन मेरा दिल तो बाग़ी है वह कहता है मैं हिंदुस्तानी क्यों छोड़ूं? जब प्रयाग जाते हैं तो संगम में नहाते है और कहते हैं कि संगम में स्नान लोगों को पवित्र करता है.
इसी तरह अगर उर्दू-हिंदी का संगम बना लूं तो मैं पावन हो जाऊंगा. अगर मैं अकेला रहूंगा तो भी यही कहूंगा कि मैं हिंदुस्तानी को ही राष्ट्रभाषा मानता हूं. मैं मर जाऊंगा तो भी मैं अपने इरादे से हटने वाला नहीं हूं- जैसा मेरा दिल कहता है, वैसे ही आप बनें तो अच्छा है’
जब से मैं दक्षिण अफ्रीका से आया हूं तभी से बराबर यह कहता हूं कि हमारी राष्ट्रीय भाषा वही हो सकती है जिसको हिंदू और मुसलमान ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में बोलते और लिखते है. तब तो वह देवनागरी लिपि में लिखी हुई या उर्दू लिपि में लिखी हुई हिंदुस्तानी ही हो सकती है. मैंने तो कहा है कि मैं उर्दू का समर्थन करता हूं लेकिन सारी दुनिया का मित्र होते हुए भी मैं अंग्रेज़ी का समर्थन क्यों नही करता हूं यह समझने लायक़ बात है-
‘अंग्रेज़ी भाषा का यहां स्थान नहीं है. अंग्रेज़ों ने यहां राज चलाया है और जो राज चलाता है वह अपनी भाषा भी चलाता है. अंग्रेज़ी विदेशी भाषा है स्वदेशी नहीं. इसलिए मुझको यह कहते हुए दुख नहीं बल्कि गर्व होता है कि उर्दू हिंदुस्तान की भाषा है और वह हिंदुस्तान में ही बनी है.’
हिंदुस्तानी ज़बान को लेकर अपनी बात रखते हुए तुलसीदास का हवाला देते हुए कहते हैं कि-
तुलसीदास के तो हम सब दीवाने हैं और होना भी चाहिए. उनकी रामायण में अरबी और फ़ारसी के शब्द भरे पड़े हैं. जो शब्द लोग बाज़ार में बोलते थे वही उन्होंने ले लिए. इसलिए जो तुलसीदास की भाषा है वही हमारी भाषा है.
अगर आपको फ़ैसला करना है कि कौन हमारी राष्ट्रभाषा है तो मैं ये दावे के साथ कह सकता हूं कि बाद में हिंदू मुझको चाहे मार डाले, काटे या कुछ भी करें. हमारी राष्ट्रीय भाषा वही हो सकती है जो देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों में लिखी जाती है. अगर कोई मुझसे यह कहे कि ‘मैं हिंदी का पक्ष कम लेता हूं और इसलिए मैं कम हिंदुस्तानी हूं, मुझको तो ऐसा लगता है कि जो आदमी उर्दू पर ऐतराज़ करता है वही कम हिंदुस्तानी है.’
लिहाज़ा गांधी का हिंदुस्तानी भाषा के प्रति उनका विचार सिर्फ़ सैद्धांतिक ही नहीं था बल्कि अपनी व्यवहारिक ज़िंदगी में भी उसके लिए प्रतिबद्ध थे . नीचे इस्तेमाल एक चित्र गांधी का हिंदुस्तानी ज़बान के प्रति संवेदनशीलता को दर्शाता है-
गौरतलब है कि यह तस्वीर, जो नया दौर जर्नल में ‘बापू: दस्तख़त के आईने में’ के शीर्षक से शाया हुई थी, जिसमें गांधी बहुत ही हंसमुख मुद्रा में नज़र आ रहे हैं और इसमें बापू की ग्यारह भाषाओं में किए गए दस्तख़त को शामिल किया गया है.
भाषा के मसले पर जवाहरलाल नेहरू और गांधी के विचार कमोबेश एक ही थे. नेहरू का मानना था कि गांधी अपने आंदोलन में इसलिए सफल हुए क्योंकि उन्होंने अपने और अवाम के बीच के फ़ासले और रुकावटों को ख़त्म कर दिया था. ज़बान भी उन रुकावटों में से एक थी.
गांधी का मानना था कि अगर हमें अवाम तक अपनी पहुंच क़ायम करनी है तो उन तक उनकी भाषा के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है. इसलिए गांधी आसान भाषा के हामी थे जो अधिक से अधिक लोगों की समझ में आसानी से आ सके. लिहाज़ा गांधी हिंदी और उर्दू की साझी शक्ल में हिंदुस्तानी की वकालत किया करते थे.
गौरतलब है कि भारत के आईन का अनुच्छेद 29 हिंदुस्तान के सभी नागरिकों को अपनी भाषा की हिफ़ाज़त करने का अधिकार देता है और संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं के फ़ेहरिस्त में एक उर्दू ज़बान भी है.
क़ानून के अनुसार, उत्तर प्रदेश में उर्दू और हिंदी आधिकारिक भाषाएं हैं. और भारतीय संविधान इस बात का इजाज़त देता है कि आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में से किसी में भी शपथ ली जा सकती है. इसके बावजूद भारतीय राजनीति में भाषाई सियासत के केंद्र में उर्दू रहा है.
मसलन, द वायर में साल 2017 में आई एक ख़बर के अनुसार, अलीगढ़ नगर निगम में बहुजन समाज पार्टी के एकमात्र पार्षद मुशर्रफ़ हुसैन पर उर्दू में पद की शपथ लेने का फ़ैसला करने के बाद ‘धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने’ की कोशिश करने का मामला दर्ज किया गया.
लिहाज़ा यह पहली बार नहीं है जब उत्तर प्रदेश में भाषा के मुद्दे ने शपथ ग्रहण समारोह को प्रभावित किया है. मार्च 2017 में राज्य विधानसभा अध्यक्ष फतेह बहादुर ने 13 भाजपा सदस्यों को संस्कृत में शपथ लेने की इजाज़त दी. वहीं, जब समाजवादी पार्टी के दो विधायकों ने उर्दू में शपथ ली, तो स्पीकर महोदय ने उन्हें फिर से हिंदी में दोहराया.
बेहद अफ़सोस है कि आज हम अपने राष्ट्रपिता के दर्शन को भूल गए हैं. दुनिया के मशहूर वैज्ञानिक आइंस्टीन ने ठीक ही कहा था कि आने वाले नस्लें हैरत करेंगी कि गांधी जैसे इंसान ने इस सरजमीं पर क़दम रखा था. और हमें तो ख़ुश होना चाहिए कि गांधी हमारे अपने हैं.
हमारी पहली जिम्मेदारी बनती है कि अपने राष्ट्रपिता के दर्शन के आईने में सोचे और ज़िंदगी गुज़ारे जिनका पूरा जीवन का एक-एक क़दम देशभक्ति और मानवता से लबरेज़ था. लिहाज़ा मौजूदा दौर की सियासत के मद्देनज़र यह ज़रूर कह सकते हैं कि गांधी को आज ज़रूर अफ़सोस और हैरत हो रहा होगा क्या यही हमारा हिंदुस्तान है जिसके लिए मैंने अपनी जान दी थी.
उनका हत्यारा कोई और नहीं हमारे देश के ही लोग थे. ऐसे में गांधी की यौम-ए-पैदाइश पर गुलज़ार साहब की पंक्तियां याद आती हैं-
सवा गज़ आसमां ओढ़े हुए सर पर, बदन पर एक लंगोटी लपेटे,
प्रार्थना के लिए निकला था बाहर
किसी ने आगे बढ़कर, तमंचा रख दिया सीने पे ये कहके
तुम्हारी राय से सहमत नहीं हूं मैं
तमंचा चल रहा है,
वो राय मरती नहीं
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग में शोधार्थी हैं.)