केंद्र ने कहा, ग़ैरक़ानूनी शरणार्थी देश के किसी भी हिस्से में रहने के अधिकार के लिए उच्चतम न्यायालय का सहारा नहीं ले सकते.
नई दिल्ली: केंद्र ने सोमवार को उच्चतम न्यायालय में कहा कि रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थी देश में ग़ैरकानूनी हैं और उनका लगातार यहां रहना राष्ट्र की सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा है.
केंद्र ने उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री में सोमवार को इस मामले में एक हलफ़नामा दाख़िल किया जिसमें कहा गया है कि सिर्फ देश के नागरिकों को ही देश के किसी भी हिस्से में रहने का मौलिक अधिकार है और ग़ैरक़ानूनी शरणार्थी इस अधिकार के लिए उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल नहीं कर सकते.
इससे पहले, सवेरे प्रधान न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनंजय वाई. चंद्रचूड की तीन सदस्यीय खंडपीठ को केंद्र की ओर से अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने सूचित किया था कि इस मामले में सोमवार को ही हलफनामा दाख़िल किया जाएगा.
पीठ ने मेहता के कथन पर विचार के बाद रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजे जाने के ख़िलाफ़ दो रोहिंग्या शरणार्थी मोहम्मद सलीमुल्ला और मोहम्मद शाक़िर की जनहित याचिका पर सुनवाई तीन अक्टूबर के लिए स्थगित कर दी.
गृह मंत्रालय द्वारा दायर हलफ़नामे में सरकार ने कहा, संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों से स्पष्ट है कि भारत की सीमा के किसी भी हिस्से में रहने और बसने तथा देश में स्वतंत्र रूप से कहीं भी आने-जाने का अधिकार सिर्फ़ भारत के नागरिकों को ही उपलब्ध है. कोई भी ग़ैरक़ानूनी शरणार्थी इस न्यायालय से ऐसा आदेश देने के लिए अनुरोध नहीं कर सकता है जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सामान्य रूप में मौलिक अधिकार प्रदान करता है.
केंद्र ने कहा कि रोहिंग्या शरणार्थी ग़ैरक़ानूनी हैं और उनका यहां लगातार रहना देश की सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा है. साथ ही केंद्र ने कहा कि वह इस मामले में सुरक्षा ख़तरों और विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों द्वारा एकत्र जानकारी का विवरण सीलबंद लिफाफे में पेश कर सकता है.
न्यायालय में केंद्र ने कहा कि चूंकि भारत ने 1951 की शरणार्थियों के दर्जे से संबंधित संधि और 1967 के शरणार्थियों के दर्जे से संबंधित प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए याचिकाकर्ता इस मामले में इनका सहारा नहीं ले सकते हैं.
केंद्र के अनुसार इन्हें वापस भेजने पर प्रतिबंध संबंधी प्रावधान की ज़िम्मेदारी 1951 की संधि के तहत आती है. यह ज़िम्मेदारी सिर्फ उन्हीं देशों के लिए बाध्यकारी है जो इस संधि के पक्षकार हैं.
केंद्र सरकार ने कहा है कि चूंकि भारत इस संधि का अथवा प्रोटोकाल में पक्षकार नहीं है, इसलिए इनके प्रावधान भारत पर लागू नहीं होते हैं.
न्यायालय ने इस याचिका पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को नोटिस जारी नहीं किया जिसके पास पहले से ही यह मामला है. आयोग ने केंद्र को 18 अगस्त को नोटिस जारी किया था.
इस जनहित याचिका में दावा किया गया है कि वे संयुक्त राष्ट्र शरणार्थियों के उच्चायोग के तहत पंजीकृत शरणार्थी हैं और उनके समुदाय के प्रति बडे़ पैमाने पर भेदभाव, हिंसा और खूनख़राबे की वजह से म्यांमार से भागने के बाद उन्होंने भारत में शरण ली है.
याचिका में कहा गया है कि म्यांमार की सेना द्वारा बडे़ पैमाने पर रोहिंग्या मुसलमानों पर कथित रूप से अत्याचार किए जाने की वजह से इस समुदाय के लोगों ने म्यांमार के पश्चिम रखाइन प्रांत से पलायन कर भारत और बांग्लादेश में पनाह ली है.
भारत आने वाले रोहिंग्या शरणार्थी जम्मू, हैदराबाद, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तथा राजस्थान में रह रहे हैं.