माल ढुलाई और यात्रियों की संख्या में हुई भारी बढ़ोतरी को ध्यान में रखते हुए देश के ट्रैक नेटवर्क का तत्काल बड़े पैमाने पर पुनरुद्धार किए जाने की ज़रूरत है.
हाल ही में महीने भर से कम समय में ट्रेनों के पटरी से उतरने की तीन घटनाओं (यह संख्या रोज बढ़ती जा रही है) ने एक बार फिर भारतीय रेल नेटवर्क पर रेलवे ट्रैकों (पटरियों) के रूटीन रखरखाव को बहस में ला दिया है.
ट्रेन के बेपटरी होने की तीन घटनाओं में से एक महाराष्ट्र के थाने जिले में भारी वर्षा और भू-स्खलन के कारण रेल पटरियों के बह जाने की वजह से हुई. इस दुर्घटना में रेलवे खुद प्राकृतिक आपदा का शिकार बन गया.
उत्तर प्रदेश के औरैया में आधी रात के वक्त एक डंपर के रेलवे ट्रैक पर आ जाने और यात्री ट्रेन के इंजन से टकरा जाने के कारण कैफियत एक्सप्रेस पटरी से उतर गई. जख्मी होनेवाले 70 यात्रियों के प्रति हर किसी की सहानुभूति है, लेकिन थोड़ी सी सहानुभूति रेलवे के प्रति भी दिखाई जानी चाहिए, क्योंकि उसे कई बार लोगों की लापरवाही का खामियाजा उठाना पड़ता है.
लेकिन, कथौली में कलिंग-उत्कल एक्सप्रेस के पटरी से उतरने की घटना ने वाकई खतरे की घंटियां बजा दी है. इस चिंता के कई आयाम हैं. एक चिंता तो रेलवे द्वारा पुरानी पटरियों के नवीकरण में अपनाए जा रहे मानकों को लेकर है और दूसरी इनके रखरखाव के तरीके को लेकर है.
समस्या का कारण यह भी है कि रेलवे द्वारा पटरियों के स्तर में सुधार लाने की जरूरत को अड़ियल तरीके से खारिज किया जाता रहा है. उसके लिए ये तथ्य बेमानी हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा 2002-03 में शुरू किए गए ट्रैकों के पुनरुद्धार की राष्ट्रीय स्तर की कवायद को लंबा वक्त गुजर चुका है. इस दौरान रेलमार्ग पर यात्रियों और माल ढुलाई में काफी बढ़ोतरी हुई है, जिसका परिणाम उनके जर्जर होने के तौर पर सामने आया है.
मीडिया को दिए गए बयान में रेलवे के प्रवक्ता ने कहा कि प्रथम दृष्टया उत्कल एक्सप्रेस हादसा अधूरे बने आपातकालीन ट्रैक की वजह से हुआ. ट्रेन चालक दल मरम्मत कार्य से बेखबर था. इसकी वजह शायद यह थी कि उस दिन मरम्मती के लिए कोई ट्रैफिक ब्लॉक (किसी ट्रैक पर मरम्मती कार्य करने के लिए ट्रेनों का परिचालन स्थगित करने के लिए दिया जाने वाला विशेष निर्देश) नहीं दिया गया था.
चूंकि पटरियों की मरम्मती कार्य के लिए ट्रैक के उस खंड के लिए कोई गति सीमा नहीं लगाई गई थी, इसलिए ट्रेन अपनी सामान्य निर्धारित गति से दौड़ रही थी और पटरी से उतर गई.
क्या है रेलवे की बीमारी
ट्रेन के पटरी छोड़ने का यह असामान्य कारण कई सवालों को जन्म देने वाला था. सबसे पहले ट्रैक में आई गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए रेलवे द्वारा किसी खंड पर गाड़ियों की आवाजाही को नियंत्रित करने की क्षमता ही संदेहों के घेरे में आ गई.
सवाल पैदा हुआ कि क्या परिचालनगत प्रदर्शन (ऑपरेशनल परफॉरमेंस) के लक्ष्यों और ट्रैक रखरखाव के प्रोटोकॉल एवं रेलगाड़ियों की सुरक्षा और प्रदर्शन के स्तर के बीच जमीन-आसमान का फ़र्क है?
क्या रेलवे बोर्ड के इंजीनियरिंग सदस्य ने आपातकालीन मरम्मती के लिए ट्रैकों को अपने हाथ में लेने के अधिकार का त्याग कर दिया है? या बोर्ड का कोई अन्य सदस्य अवैध तरीके से इसका नियंत्रण कर रहा है, जिससे जवाबदेह नहीं ठहराया जा रहा है?
या ऐसी ही अराजकता ज़ोनल और डिविजनल स्तर तक रिस कर पहुंच गई है, जहां रेलवे प्रबंधकों को व्यावसायिक ब्रिटिश ट्रेन ऑपरेटिंग कंपनियों की नकल करने और सुरक्षा मरम्मतियों के लिए ट्रैकों का अधिकार सौंपने को लेकर झगड़ालू रवैया अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है?
क्या डिविजनल रेलवे मैनेजर (डीआरएम) और जनरल मैनेजर (जीएम) लगातार ट्रैफिक ब्लॉक देने से इनकार कर रहे हैं, जिससे ट्रैक इंजीनियरों को गड़बड़ियों को ठीक करने में देरी हो रही है, या उन्हें यह काम टालना पड़ रहा है?
निश्चित तौर पर यात्रियों की संतुष्टि पक्की करने और रेलवे की ब्रांड छवि को बनाए रखने के लिए ‘समय की पाबंदी को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति’ की दरकार है. लेकिन, क्या इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ट्रैक रखरखाव के बेहद जरूरी कार्यों के लिए ट्रैफिक ब्लॉक देने से इनकार किया जा सकता है?
क्या इस बात की अनदेखी की जा सकती है कि ऐसा करना यात्रियों की जिंदगी से खिलवाड़ से कम नहीं है? डीआरएम और जीएम स्तर के अधिकारियों पर पहले ही माल ढुलाई और यात्री परिवहन के लक्ष्यों को हासिल करने और कमाई का प्रबंधन करने का बहुत ज्यादा दबाव है.
ढुलाई करने के लिए पर्याप्त सामाजिक और थोक वस्तुओं के न होने के कारण उनकी घबराहट समझ में आने वाली है. भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था की चाल जैसी भी रहे, मगर वर्तमान में स्थिति यही है कि औंधे मुंह गिरी अर्थव्यवस्था के कारण रेलवे के पास ढुलाई के लिए ज्यादा घरेलू कोयला और दूसरे खनिज संसाधन नहीं है.
रेलवे की व्यावसायिक किस्मत इन थोक वस्तुओं के साथ जुड़ी है. यात्री कारोबार में भी अगर हम पिछले पांच वर्षों में यात्री किलोमीटर को देखें, तो क्षमता और वास्तविक बिक्री में खास बढ़ोतरी नहीं दिखाई देती.
रेलवे से बेहतर व्यावसायिक नतीजे देने की अपेक्षाएं बढ़ी हैं. साथ ही इस पर शहरों के बीच परिवहन के साधन होने की ब्रांड छवि को बनाए रखने का भी दबाव है. इन स्थितियों में डीआरएम स्तर के अधिकारी कई बार ट्रैकों में आई गड़बड़ियों या उनकी असुरक्षित स्थिति को छुपाने का खतरा मोल लेने के लिए प्रेरित होते रहते हैं.
रखरखाव के लिए ट्रैफिक ब्लॉक देने से इनकार करने के कारण आपातकालीन मरम्मती कार्यों के लिए भी रेलवे ट्रैक पूरी तरह से इंजीनियरों के अधिकार में नहीं आता. ऐसे में इंजीनियरों का काम खतरनाक तरीके से रोमांचकारी हो सकता है. इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कथौली हादसा ऐसे ही रोमांचकारी दुस्साहस का का नतीजा था.
रेल हादसे से जुड़ी इनसानी चूक के लिए कठोर सजा देकर रेल प्रशासन कुछ हद तक दुर्घटनाओं पर नियंत्रण कर सकता है. लेकिन ढांचागत मसलों पर ध्यान दिया जाना ज्यादा जरूरी है.
टूटी हुई रेल पटरियों और रेलवे ट्रैक की अन्य गड़बड़ियों के कारण होने वाले रेल हादसे इस बात की निशानी हैं कि हमारा रेलवे ट्रैक नेटवर्क क्षमता से ज्यादा परिवहन के बोझ से पिस रहा है. सिर्फ ट्रैक नवीकरण ही इसका इलाज नहीं है. इस समस्या से पार पाने के लिए वास्तव में जरूरत के अनुरूप ट्रैक मानकों में भी सुधार लाने की दरकार है.
उपनिवेशी सरकार द्वारा बिछाई गई रेल पटरियां भारत को विरासत में मिली थीं. इन पटरियों को मुख्य तौर पर सैन्य जरूरतों को ध्यान में रखकर बिछाया गया था. जाहिर है, इन पटरियों का स्तर कामचलाऊ किस्म का ही रखा गया था.
सच्चाई ये है कि आज के 6,60,000 किलोमीटर रेलमार्ग में से 50,000 किलोमीटर का निर्माण उपनिवेशी सरकार द्वारा उपनिवेश के स्थानीय लोगों के स्तर को ध्यान में रखकर किया गया था. इस स्थति में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है.
सिवाय इसके कि पहले के मीटर गेज (छोटी लाइन) को ब्रॉड गेज (बडी लाइन) से बदला गया है. ऐसा करते हुए ज्यादा एक्सल भार उठानेवाली माल गाड़ियों और तेज रफ्तार वाली यात्री गाड़ियों के हिसाब से ट्रैकों के स्तर को सुधारने की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है.
भारत में जवाहरलाल नेहरू ने ट्रेनों के आधुनिकीकरण की शुरुआत की थी. उनके बाद के प्रधानमंत्रियों ने रेल उद्योग के विकास, नई तकनीक हासिल करने या आधुनिकीकरण पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.
अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय पैमाने पर भारत के जर्जर ट्रैक सिस्टम और पुराने पड़ चुके रेलवे पुलों के नवीकरण और मरम्मती के लिए बड़ा निवेश करने का फैसला लिया. बड़े स्तर पर नवीकरण और मरम्मती कार्यों की योजना बनाकर उसे 2002-05 की अवधि के बीच सफलता के साथ अमल में लाया गया. लेकिन इस बात को भी एक दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है.
माल ढुलाई और यात्रियों के बोझ में हुई भारी बढ़ोतरी के मद्देनजर देश के ट्रैक नेटवर्क का तत्काल बड़े पैमाने पर पुनरुद्धार किए जाने की जरूरत है. साथ ही जरूरत के मुताबिक ट्रैकों के स्तर को बेहतर किए जाने की भी दरकार है.
ऐसा किए बिना ट्रैकों की स्थिति को और बिगड़ने से कोई नहीं रोक सकता. कुछ समय के लिए रेल ट्रैक के पुनरुद्धार की चर्चा हुई जरूर थी, लेकिन इस ओर जैसी असरकारी प्रगति 2002-05 के दौरान देखी गई, उसका अभी अभाव नजर आता है.
लेकिन, किसी किस्म की गलतफहमी पालने की गुंजाइश नहीं है. मौजूदा रेल पटरियों के स्तर को देखते हुए पुनरुद्धार का कोई काम सिर्फ सुरक्षा को बढ़ा सकता है. इससे ट्रैकों पर गाड़ियों की गति-सीमा भी थोड़ी सी ही बढ़ सकती है.
ट्रैकों के स्तर को सुधारने के लिए कम मात्रा में किए गए ऐसे निवेश से होने वाला सुधार भी बहुत ज्यादा कारगर नहीं होगा. जाहिर है इसकी अपनी सीमाएं होंगी.
दूसरे शब्दों में कहें, तो इससे एक ही ट्रैक सिस्टम पर पर ज्यादा तेज गति की यानी 160 किलोमीटर प्रति घंटा से ज्यादा रफ्तार वाली (हाई स्पीड) ट्रेनें और 25 टन एक्सल लोड वाली माल गाड़ियों को एक साथ चलाने में कोई मदद नहीं मिलेगी.
25 टन एक्सल लोड वाली माल गाड़ियों को 160 किलोमीटर प्रति घंटा से ज्यादा चलने वाली ट्रेनों के साथ मिलाना हादसे को खुली दावत देने के अलावा और कुछ नहीं होगा.
कथौली के दुर्भाग्यपूर्ण हादसे का परिणाम देश के लिए, खासकर रेलवे के लिए अच्छा नहीं रहा है. ये हादसे सही ढंग से रूटीन रखरखाव कर सकने की नाकामी के कारण हो रहे हैं. इनमें भी लगभग सभी स्तरों पर मानवीय चूक की भूमिका है. इन सबके बीच दो गंभीर मसलों पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है.
क्या समय की पाबंदी के अभियान की जरूरत से ज्यादा निगरानी, साथ ही स्वच्छता अभियान, यात्री सुविधा अभियान और हर संभव तरीके से सोशल मीडिया अभियान आदि का नतीजा सभी क्षेत्रों पर जरूरत से कम खर्च के तौर पर निकला है? दूसरा सवाल सुरक्षा संबंधी निगरानी के तरीके का है.
ऐसा लगता है कि सारा जोर मरम्मती के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने पर है. ट्रैकों में गड़बड़ियों की पहचान की जा रही है. लेकिन, क्या तेज गति से मरम्मती कार्यों को पूरा करके दिखाने के दबाव में गलत जानकारियां भी दी जा रही हैं? जमीनी निगरानी और उचित स्तरों पर जवाबदेही ही इसका एकमात्र हल है.
ट्रैकों की मरम्मती के लिए समय और संसाधनों की जरूरत को खुल कर बयान किया जाना चाहिए. मैंने पहले भी ऐसी घटनाओं में ट्रेन के डिब्बों के एक के ऊपर एक चढ़ जाने के बारे में लिखा था. एक बार फिर इसे दोहराया गया है. सच्चाई ये है कि कपलिंग अरेंजमेंट और कोच डिजाइन के स्तर पर बुनियादी बदलाव करने की दिशा में खास प्रगति नहीं दिखाई देती है.
यात्रियों को सीधे अपनी शिकायत दर्ज करने की सुविधा देना या लोगों की शिकायतों को हर समय सुलझाने की पहल काफी कामयाब साबित हुई. लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि तत्काल सैकड़ों यात्रियों की शिकायतों का निपटारा करने की अपेक्षा ने पहले से ही कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे रेलवे पर कुछ ज्यादा ही बोझ डाल दिया है?
इसका नतीजा ये हुआ कि सुरक्षा संबंधी अपनी प्राथमिक ड्यूटी निभाने के लिए उनके पास जरूरी वक्त नहीं बचा है. क्या रेलवे बोर्ड ने मंत्री को इस बात की जानकारी दी है कि भारतीय रेलवे के पास सुरक्षा से जुड़ी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए पर्याप्त संख्या में कर्मचारी नहीं हैं?
कई वरिष्ठ रेल अधिकारी रेल मंत्रालय को गलत जानकारी देते हैं कि रेलवे में जरूरत से ज्यादा कर्मचारी हैं. सही तरीके से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि ऐसी बातें पूरी तरह से आधारहीन हैं.
भारतीय रेल प्रति वर्ष 1,100 मिलियन टन माल का परिवहन करती है. यह काफी बड़ा आंकड़ा है. माल ढुलाई के अतिरिक्त यह हर साल 8300 मिलियन यात्रियों को सुविधा मुहैया कराती है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा है.
दुनिया में सबसे ज्यादा यात्रियों को संभालने के लिए काफी बड़ी संख्या में कर्मचारियों की दरकार होती है. हर 17 यात्रियों पर एक रेलवे कर्मचारी है. पश्चिमी रेलवे, जो रेलवे का सबसे व्यस्त ज़ोन है, 40 यात्रियों पर सिर्फ एक कर्मचारी है.
दुनिया से मिलनेवाली सीख
चलिए हम दुनिया के किसी भी देश का उदाहरण लेते हैं. भारतीय रेलवे दुनिया में माल ढुलाई के मामले में चौथे नंबर पर और यात्री परिवहन के मामले में पहले नंबर पर है. यह साहस शायद भारत के पास ही है कि इन दोनों कामों के लिए एक ही रेल नेटवर्क का इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसा करने के लिए रेल नेटवर्क को उसकी क्षमता से ज्यादा निचोड़ा जा रहा है.
आने वाले समय में भी ऐसा किए जाने की इजाजत देने का सीधा मतलब यात्रियों को मौत के मुंह में धकेलना है. सरकार ने हर संभव तरीके से समर्पित माल गलियारे (डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर) (डीएफसी) के दो चरणों को तीव्र गति से पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराया है. 2006 में शुरू की गई यह परियोजना पहले ही अपनी समय-सीमा को पार कर चुकी है.
समर्पित माल गलियारे के अस्तित्व में आ जाने के बाद माल ढुलाई और यात्री परिवहन को अलग किया जा सकेगा और इससे रेलवे नेटवर्क को काफी राहत पहुंचेगी.
अमेरिकी यात्री रेलवे कॉरपोरेशन एमट्रैक, भारतीय रेलवे की ही तरह है. इसका प्रबंधन सीधे तौर पर अमेरिकी सरकार के संघीय रेलवे अथॉरिटी द्वारा किया जाता है. एमट्रैक के पास 20,000 कर्मचारी हैं. इसमें प्रति कर्मचारी प्रतिदिन यात्री बोझ 4.2 है.
रखरखाव संबंधी सभी कार्यों को ठेकेदारी पर काम करने वाली निजी कंपनियों को आउटसोर्स कर देने के बाद ब्रिटेन की निजीकृत ट्रेन ऑपरेटिंग कंपनियों और नेटवर्क रेल में प्रति कर्मचारी प्रतिदिन 51 यात्रियों को संभालते हैं (ब्रिटिश रेल माल ढुलाई का काफी कम काम करती है), जिसे भारतीय रेलवे के वेस्टर्न लाइन से थोड़ा सा ही बेहतर कहा जा सकता है. फ्रेंच रेलवे के लिए प्रति कर्मचारी प्रति दिन यात्रियों का बोझ 19.7 है, जो लगभग भारत के बराबर है.
जर्मन रेलवे के कर्मचारी पर प्रतिदिन 18.7 यात्रियों का बोझ है. यह भी भारत के लगभग बराबर है. चीन में एक कर्मचारी पर अमेरिका की तुलना में प्रतिदिन कम यात्रियों का बोझ है. इस तुलना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कर्मचारियों की संख्या में कमी से सुरक्षा प्रभावित होती है. बेहतर विकल्प यह होगा कि प्रति कर्मचारी, प्रतिदिन के हिसाब से आउटपुट को बढ़ाया जाए.
भारत जैसे पूरी तरह से एट ग्रेड ट्रैक नेटवर्ट (सड़कों द्वारा काटा जानेवाला रेल नेटवर्क) पर तेज गति वाली इंटरसिटी पैसेंजर ट्रेनें चलाने की अपनी सीमाएं हैं. यहां सड़कें (हाइवे सहित) औसतन हर दो किलोमीटर पर रेलवे नेटवर्क को काटती हैं. ऐसे में इन पर तेज गति की ट्रेनें चलाना अपने आप में खतरनाक भी है. भारत में हर साल ज्यादा से ज्यादा राज्य महामार्गों (स्टेट हाईवेज) और शहरी तथा ग्रामीण सड़कों का निर्माण किया जा रहा है. इसका मतलब है रेलमार्ग को काटनेवाली सड़कों की संख्या लगातार बढ़ती जाने वाली है.
सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ट्रैकों के स्तर में सुधार लाने से जरूर मदद मिलेगी. लेकिन, यह भी सही है कि उपनिवेशी दौर की रेलवे प्रणाली के एक बड़े खंड पर एक सीमा के बाद पटरियों के स्तर को सुधारने का काम नहीं किया जा सकता है. इसलिए, प्रधानमंत्री का डायमंड कॉरिडोर का विजन ही भारत के लिए एकमात्र बचा हुआ विकल्प नजर आता है, जिसे 2014 के भाजपा के घोषणापत्र में भी शामिल किया गया था.
रेल मंत्रालय को हाई स्पीड रेल (एचएसआर) कॉरिडोर बनाने का दायित्व दिया गया था, लेकिन उसने प्रधानमंत्री के विजन को दरगुजर करते हुए 180-200 किलोमीटर प्रति घंटे की गति वाली सेमी-एचएसआर ट्रेनें चलाने का एक समानांतर कार्यक्रम ही शुरू कर दिया. ऐसा करना किसी आपदा से कम नहीं होगा. एट ग्रेड ट्रैकों पर ऐसी तेज गति वाली ट्रेनें चलाने से ज्यादा लोग मारे जाएंगे.
बेहतर सुरक्षा के साथ रेलवे का आधुनिकीकरण करने का रास्ता सिर्फ डायमंड कॉरिडोर से होकर ही गुजरता है. अगर हम दस लाख के करीब यात्री आबादी वाले 60 बड़े शहरों और 3 लाख से 10 लाख यात्री आबादी वाले 100 बड़े शहरों को आपस में जोड़ना चाहते हैं, ताकि ये शहर विकास के अगुवा बन सकें, तो डायमंड कॉरिडोर ही इसका रास्ता है.
क्षेत्रीय एयरपोर्ट और एयरलाइनों से उस तरह से एक साथ बहुत सारे शहरों को जोड़ने का काम नहीं हो सकता, जो काम एक हाई स्पीड ट्रेन से किया जा सकता है.
पिछले साल जिस तरह से रेल विकास शिविर का आयोजन किया गया, जिसमें प्रधानमंत्री ने भी शिरकत की थी, उससे ऐसा लगता है कि रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए और पूरी तरह से सुरक्षित रेल नेटवर्क का विजन सिर्फ प्रधानमंत्री के पास ही है.
(आर शिवदासन रिटायर्ड वित्तीय आयुक्त (रेलवे) हैं और भारत सरकार के पदेन सचिव हैं.)
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