केंद्र सरकार किसानों की मांगों के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं थी, ख़ुद प्रधानमंत्री ने संसद में आंदोलनकारियों को तिरस्काररपूर्ण ढंग से ‘आंदोलनजीवी’ कहा था. भाजपा के तंत्र ने हर क़दम पर आंदोलन को बदनाम करने और कुचलने की कोशिश की पर किसान आंदोलन जारी रखने के संकल्प पर अडिग रहे.
नई दिल्ली: शुक्रवार की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को रद्द करने के फैसले का ऐलान किया. इतिहास में इसे एक साल लंबे चले किसान आंदोलन की महान जीत के तौर पर याद किया जाएगा.
अभी तक केंद्र सरकार किसानों की मांगों के सामने बिल्कुल भी झुकने के लिए तैयार नहीं थी और खुद नरेंद्र मोदी ने कहीं और नहीं संसद में आंदोलन कर रहे किसानों को तिरस्काररपूर्ण ढंग से ‘आंदोलनजीवी’ कहा था. भाजपा तंत्र ने किसानों के आंदोलन को ‘खालिस्तानी अलगाववादियों के नेतृत्व में आतंकवादी समूहों की आर्थिक मदद से चल रहे आंदोलन’ के तौर पर पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
लेकिन किसान इन सबके बीच तीनों किसान कानूनों- जो उनके हिसाब से कॉरपोरेट हितैषी और किसान विरोधी था- को पूरी तरह से निरस्त करने की अपनी की मांग के पक्ष में अडिग रहे.
केंद्र सरकार के दावे के विपरीत, कि इन कानूनों को पारित करने से पहले किसानों से सलाह-मशविरा ली गई थी, आंदोलनकारी समूहों ने लोगों को यह याद दिलाया कि ये कानून सबसे पहले जून, 2020 में अध्यादेश की शक्ल में लाए गए थे, जो उनके हिसाब से इन कानूनों को चोर दरवाजे से उन पर थोपने के समान था.
भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने आंदोलन के हर चरण में इसे कुचलने की कोशिश की. सबसे ज्यादा दिल दहला देनेवाला प्रकरण लखीपुर खीरी, उत्तर प्रदेश में घटित हुआ जहां गाड़ियों के काफिले द्वारा प्रदर्शनकारी किसानों को कुचल दिया गया. इस घटना में कथित तौर पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा का बेटा भी शामिल था.
इन प्रदर्शनों के दौरान 600 से ज्यादा आंदोलनकारी किसानों की मृत्यु हो गई. कइयों पर कठोर कानूनों के तहत मुकदमे दायर किए गए. सरकार ने अपने पुलिस तंत्र का इस्तेमाल आंदोलन को तितर-बितर करने के लिए किया.
दिल्ली के सिंघू और टिकरी बॉर्डर को, जहां आंदोलनकारी किसानों ने अपना डेरा जमाया था, को व्यावहारिक तौर पर खुले जेलों में तब्दील कर दिया गया था. इस साल की शुरुआत में किसानों के गणतंत्र दिवस परेड के दौरान पुलिस ने कुछ किसान नेताओं पर बल प्रयोग किया. लेकिन इस सबके बावजूद किसान आंदोलनों को जारी रखने के अपने संकल्प पर अडिग रहे.
उनका संकल्प इतना मजबूत था कि गणतंत्र दिवस परेड के बाद दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत पर कार्रवाई ने आंदोलन को संजीवनी देने काम किया और इसने प्रदर्शनों की आग को यूपी भर में फैला दिया, जहां अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने वाले हैं.
इन कानूनों को निरस्त करने के प्रधानमंत्री के फैसले का साफ संकेत है कि किसानों के आंदोलन ने केंद्र सरकार को घुटने पर ला दिया है.
पिछले सात सालों में मोदी सरकार की छवि जन-आंदोलनों के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टि रखने वाली की बन गई है. यहां तक कि प्रदर्शनकारी समूहों की मांगों को सुनने को भी अवमानना की नजर से से या मजबूत और निर्णायक होने का दंभ भरने वाली सरकार की कमजोरी के लक्षण के तौर पर देखा गया.
मांगों को बिल्कुल अनसुना कर देने के इस इस रवैये ने मोदी सरकार को अक्सर तानाशाही फैसले लेने की ओर धकेलने काम किया है. दूसरी तरफ अपनी शुरुआत के बाद से किसानों का आंदोलन स्वाभाविक तौर पर विकसित होता गया.
शुरुआत में यह आंदोलन मुख्य तौर पर पंजाब तक सिमटा हुआ था. लेकिन बीतते समय के साथ यह इस आंदोलन का विस्तार देशव्यापी आंदोलन के तौर पर हो गया, जिसमें विभिन्न किसान गुटों ने अपने मतभेदों को परे रखते हुए एक संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया और इस प्रक्रिया में जाति और समुदाय के कई अंतर्विरोध धुंधले पड़ गए. हर बार झटका खाने के बाद यह आंदोलन और मजबूत होकर उभरा.
सभी आंदोलन स्थलों पर सुनाई देने वाला ‘किसान एकता जिंदाबाद’ का नारा भी कई किसानों के लिए एक बुलावे के समान था, जिन्हें प्रदर्शनों में सक्रिय तौर पर शामिल होने का मौका नहीं मिला था.
पिछले कुछ महीनों में किसानों के इस आंदोलन ने आगे बढ़कर भाजपा के ध्रुवीकरण की तरकीबों के खिलाफ एक राजनीतिक आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया.
इसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों और मुसलमानों के बीच तनावों पर मरहम लगाने का काम किया- 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद ये दोनों समुदायों के बीच दरार आ गई थी.
इससे पहले किसान नेताओं ने पश्चिम बंगाल में भाजपा के खिलाफ व्यापक प्रचार किया और राज्य में हवाई किले बना रहे भगवा दल की अपमानजक पराजय में एक अहम भूमिका निभाई. ऐसी कई घटनाएं सामने आईं, जिनमें लोगों ने भाजपा नेताओं को अपने गांवों में प्रचार तक करने नहीं दिया. इस आंदोलन के कारण कई राज्यों में निचले स्तर के कई नेता भाजपा से निकलकर दूसरी पार्टियों में भी शामिल हो गए.
हर पहलू से इस आंदोलन ने एक मिसाल पेश की और सांप्रदायिक आधार पर समाज का ध्रुवीकरण करने की राजनीतिक पार्टियों की कोशिशों को नाकाम करने का रास्ता दिखाने का काम किया.
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाटों और मुसलमानों के बीच रंजिश का एकमात्र फायदा भाजपा को पहुंचा था. हरियाणा में वर्चस्वशाली जाटों के खिलाफ छोटे समुदायों को खड़ा किया. इसके लिए ध्रुवीकरण की उन्हीं कुटिल तरकीबों को काम में लाया गया, चुनाव जीतने के लिए जिनका इस्तेमाल भाजपा ज्यादातर राज्यों में करती है.
किसानों के आंदोलन के प्रति हर संभव तरीके से अवमानना दिखाने के बाद तीनों विवादास्पद कानूनों को वापस करने की घोषणा भी उसी तरह से कुटिलताभरी नजर आई. आंदोलन को कुचलने की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रधानमंत्री ने किसानों की मदद करने के लिए ‘हर संभव कदम उठाने’ की बात की.
उन्होंने किसानों के कल्याण के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का जिक्र किया, लेकिन कानून को रद्द करते हुए किसानों को ‘सच्चाई समझा पाने में’ नाकाम रहने की भी बात की.
उनका फैसला भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश और पंजाब में होने वाले बेहद अहम विधानसभा चुनावों से बस कुछ महीने पहले आया है. उत्तर प्रदेश में भाजपा दोबारा सत्ता में आने के लिए जोर आजमाइश कर रही है, वहीं पंजाब में इसने किसान आंदोलन के दरमियान अपना सबसे भरोसेमंद सहयोगी- शिरोमणि अकाली दल-बादल- को खो दिया है.
दोनों ही राज्यों में पार्टी की डगर मुश्किल नजर आ रही है, ऐसे में कृषि कानूनों को रद्द करने का मोदी का फैसला सिर्फ चुनावी नफा-नुकसान की गणित से प्रेरित नजर आता है.
दोनों ही राज्यों में विपक्ष ने भाजपा के खिलाफ गुस्से की लहर पर सवार होकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली है. कई चुनावी सर्वेक्षणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को हो रहे भारी नुकसान की बात सामने आई है जो इसका सबसे मजबूत गढ़ है.
इसी तरह से मोदी के कदम ने पंजाब में एक बार फिर भाजपा-शिरोमणि अकाली दल के साथ या कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ गठबंधन के दरवाजे को खोल दिया है. अमरिंदर सिंह ने कहा था कि अगर केंद्र सरकार किसानों के मुद्दे का समाधान कर देती है, तो वे भाजपा के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन के लिए तैयार हैं.
मोदी का फैसला आने वाले चुनावों में भाजपा को थोड़ा फायदा जरूर पहुंचाएगा. इसका मकसद पार्टी को हो रहे नुकसान को बढ़ने से रोकना है.
उन्होंने अपने फैसले को गुरुनानक जयंती के मौके पर आंदोलनरत किसानों को तोहफे के तौर पर भले पेश किया हो, लेकिन यहां इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता है कि किसान आंदोलन उन्हें उस बिंदु तक लेकर आया, जहां से वे कोई दूसरा फैसला नहीं ले सकते थे. उस हिसाब से देखें, तो किसान आंदोलन की जीत, पिछले सात सालों में मोदी सरकार की पहली वास्तविक हार के के तौर पर भी आई है.
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