डोभाल के सिविल सोसाइटी रूपी युद्ध के चौथे मोर्चे में पेगासस कहां खड़ा है

सुप्रीम कोर्ट ने डेटा प्राइवेसी के मसले पर एक समिति गठित कर दी है, यह सिर्फ फ्री स्पीच बनाम हेट स्पीच का मामला नहीं रहा गया है, बल्कि प्राइवेसी बनाम डीप स्टेट और प्राइवेसी बनाम बिग टेक, जो इस नए युद्ध का नया मोर्चा हो गया है, का मामला बन गया है.

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सुप्रीम कोर्ट ने डेटा प्राइवेसी के मसले पर एक समिति गठित कर दी है, यह सिर्फ फ्री स्पीच बनाम हेट स्पीच का मामला नहीं रहा गया है, बल्कि प्राइवेसी बनाम डीप स्टेट और प्राइवेसी बनाम बिग टेक, जो इस नए युद्ध का नया मोर्चा हो गया है, का मामला बन गया है.

अजीत डोभाल. (फोटो: पीटीआई)

भारत की सिविल सोसाइटी के लोग असहमति का गला घोंटने वाली और लगातार ज्यादा तानाशाही होती जा रही सरकार के खिलाफ हर दिन जंग लड़ रही है और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल सिविल सोसाइटी को युद्ध का चौथा मोर्चा करार दे रहे हैं. ऐसे में यह सिर्फ अनुमान का विषय है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने जो बात की है, उसकी स्याह विडंबना को उन्होंने क्या नहीं समझा?

इस बात का परीक्षण करना काफी उपयोगी, बल्कि अनिवार्य हो सकता है कि सिविल सोसाइटी में बढ़ता विवाद सोशल मीडिया और दूसरे ऑनलाइन मंचों पर किस तरह से सामने आता है. क्योंकि यह विमर्श को गहराई से प्रभावित करता है और वह भी अक्सर हिंसक रूप में.

इस निजाम की रणनीतियों की किताब में ऑफलाइन और आनलाइन मैसेजिंग युद्ध दोनों आपस में अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं. हालांकि डोभाल ने यह स्पष्ट नहीं किया ‘सिविल सोसाइटी’ से उनका तात्पर्य क्या है, लेकिन यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का इशारा दरअसल किसी अन्य की तरफ न होकर वास्तव में सरकार का विरोध करने वालों की ही तरफ था- चाहे वे धार्मिक अल्पसंख्यक हों, दलित, पत्रकार या मानवाधिकार के रक्षक.

नाममात्र की वजह या सबूत के आधार पर ऐसे कई लोगों की गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तारी इस बात का सबूत है.

डोभाल ने पुलिस के नये रंगरूटों को बेहद स्पष्ट तौर पर कहा कि ‘यह अब चौथी पीढ़ी का युद्ध’ (फोर्थ जेनरेशन वॉरफेयर) है और भारत की सिविल सोसाइटी में राष्ट्रहित के खिलाफ काम कर रही ताकतों के हाथों बिक जाने या उनके लिए काम करने की प्रवृत्ति है.

लेकिन इसी तर्क से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार द्वारा निशाना बनाए गए सिविल सोसाइटी के दायरे में संघ परिवार के पूरे ढांचे को भी अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिए.

भारत के आज के धुव्रीकृत राजनीतिक परिवेश में संघ परिवार से जुड़े लोगों और इससे संबद्ध संगठनों ने राष्ट्रहित को एक राजनीतिक पार्टी के हित के साथ सफलतापूर्व घुला-मिला दिया है.

अल्पसंख्यकों और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की चिंताओं को राष्ट्रहित के खिलाफ घोषित करके, उनके खिलाफ हर दिन जिस तरह से गाली गलौज की जा रही है, और वास्तविक जीवन में इसका अंजाम कितना खतरनाक हो सकता है, यह हम सबके सामने है. फिर चाहे यह अंतरधार्मिक जोड़ों पर निशाना बनाने के तौर पर हो या मुस्लिम मवेशी व्यापारियों, विरोध कर रहे किसानों, दलित कार्यकर्ताओं, मार्क्सवादी उदारवादियों या धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को निशाना बनाने के तौर पर.

अभिव्यक्ति की आजादी, भोजन ओर सांस्कृतिक आदतों और यहां तक कि वर्ग आधारित भेदभाव जैसे ध्यानाकर्षक मसले उठाकर इन समूहों को खलनायक के तौर पर पेश करनेवाले नए वृत्तांतों को हिंदुत्व के हिंसक कारगुजारों द्वारा हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.

हिंदुत्व के ये कारिंदे वर्तमान सत्ताधारी वर्ग से और इस वर्ग द्वारा ऐसी कारगुजारियों पर नकेल कसने से इनकार से अपनी वैधता ग्रहण करते हैं.
कई मामलों में ऑनलाइन नुकसान और असल दुनिया में की जाने वाली हिंसा में संबंध सीधा और स्पष्ट है.

फेसबुक (अब मेटा) और ट्विटर जैसी कंपनियों द्वारा गाली गलौज को बहुगुणित (मल्टीप्लाई) करने की संभावना के मद्देनजर प्लेटफार्म की जिम्मेदारी का सवाल विस्तृत बहस का विषय है. फेसबुक से इस्तीफा देने वाली सोफी झांग और फ्रांसेस हॉगन, जैसे ह्विसिलब्लोअरों द्वारा हाल के समय में किए गए उद्घाटन इस संदर्भ में काफी कुछ बयां करने वाले हैं.

उन्होंने जो आंकड़े और गवाहियां प्रस्तुत किए हैं, वे एक स्याह सच को सामने लाते हैं- कि फेसबुक जैसी कंपनियां, जिसके उपयोगकर्ताओं की संख्या तकरीबन दुनिया की आधी आबादी के बराबर है और जिसकी बैलेंश शीट कई छोटे और मध्ययम अर्थव्यवस्था वाले देशों से ज्यादा है, अपने ही नियमों से चलती हैं, जिसका निर्धारण मुख्यतौर पर लाभ-हानि की चिंता से होता है.

फेसबुक का इंस्टाग्राम और वॉट्सऐप- जो संभवतः सभी प्लेटफार्मों में सबसे ज्यादा चिंता की वजह है, क्योंकि यह विभिन्न प्रकार की साक्षरता वाले स्तर वाली एक बहुत बड़ी जनसंख्या तक बहुत आसानी से पहुंच जाता है और उनके द्वारा इस्तेमाल में लाया जा सकता है- पर स्वामित्व है.

ऐसे में फेसबुक के तरफ से दिया जाने वाला रटा-रटाया जवाब कि इस हिंसा को कई गुणा बढ़ाने के लिए तकनीक नहीं बल्कि उपयोगकर्ता जिम्मेदार हैं, अपने आप में खोखला नजर आता है. उनकी गवाहियां इस तरफ इशारा करती हैं कि संघ के विशाल तंत्र ने अपने फायदे के लिए प्लेटफार्म के डिजाइन को चकमा दिया है.

जिन लोगों को यह अपना राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक दुश्मन समझता है, उनके खिलाफ जंग छेड़ने के लिए इसने सोशल मीडिया के मंचों का इस्तेमाल काफी आक्रामक तौर पर किया है जिससे प्रकट तौर पर भारत के सामाजिक ताने-बाने में एक दरार आई है.

स्थानीय संदर्भ में कंपनी के शीर्ष प्रबंधन के सामने जिस कंटेंट की शिकायत ‘नफरत फैलानेवाले के तौर पर की गई हो- भले ही वह फेसबुक की ‘हेट स्पीच’ की विशिष्ट परिभाषा में फिट न बैठता हो- उसे हटाने की जगह दरअसल प्लेटफॉर्म ने नफरत को और बढ़ाने का ही काम किया है, चाहे यह इरादतन किया गया हो या न किया गया हो.

जिस एलगोरिदम गणना के सहारे प्लेटफार्म यह काम करता है, वह ऑनलाइन पहुंच बढ़ाने के लिए बिल्कुल सतही तौर पर क्लिकबेटीय (clickbait) यानी छल भरे ऑनलाइन कंटेंट का एक रूप है, जिसका निर्माण यूजर में उत्सुकता जगाकर उसे लिंक को क्लिक करने और उस कंटेंट को पढ़ने, देखने या सुनने के लिए आकर्षित करने के लिए किया जाता है.

इसमें यूजर को अधूरी सूचना दी जाती है, ताकि वह पूरी सूचना के लिए उस लिंक को क्लिक करे. यानी यह एक तरह का चारा है, जिससे यूजर को किसी कंटेंट को पढ़ने, सुनने या देखने के लिए ‘हम बनाम वे, वाम बनाम दक्षिण, अच्छे बनाम बुरे की बाइनरी में फंसाया जाता है- और यह अंत में नफरत को जाने या अनजाने में कई गुणा बढ़ाने का ही काम करती है.

और सबसे बड़ी समस्या यही है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने अब तक अपने ऑनलाइन समर्थकों द्वारा नफरत के प्रसार के लिए अपनी किसी भी प्रकार की जवाबदेही से इनकार किया है.

निजी तौर पर चलाए जाने वाले पेज, व्यक्तिगत यूजर और सक्रिय फ्रिंज समूहों ने हिंदुत्व की राजनीति के नाम पर काम किया है. सरकार द्वारा उनसे बनाई गई एक निश्चित दूरी यह दिखाती है कि वह ऐसे लोगों या समूहों पर नकेल कसने के लिए राजी नहीं है.

इसके उलट वास्तव में, कुछ ऐसे उदाहरणों का हवाला देते हुए, जिनमें हिंदुत्व के समर्थकों के पेजों को हटाया गया है, सरकार तर्क को सिर के बल उलटा करने की हद तक गई है और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर ‘लेफ्ट-लिबरल पूर्वाग्रह’ का आरोप लगाया है और सिविल सोसाइटी की कुछ आवाजों के साथ मिलकर भारत में नफरत फैलाने वालों के खिलाफ फेसबुक जैसे मंचों द्वारा कार्रवाई करने की भी मांग की है.

लेकिन अब सिविल सोसाइटी के खिलाफ एक चौथी पीढ़ी का युद्ध राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को इस दुरुपयोग से निपटने के लिए अपने नए फ्रेमवर्क के इस्तेमाल के लिए मजबूर करेगा.

कुछ ऐसे पेचीदा सवाल भी हैं जो युद्ध के इस नए बनाए गए मोर्चे के लिए और गंभीर समस्याएं खड़ी कर सकते हैं. मसलन, सिविल सोसाइटी पर निगरानी बैठाने के लिए पेगासस सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल को जनता किस तरह से देखे? और इसका उन सोशल मीडिया मंचों के साथ कैसा संबंध होगा, जिन्होंने जानते बूझते अपना गाल उन ताकतों के सामने बढ़ा दिया है, जिन्होंने वर्तमान निजाम के साथ अपनी राजनीतिक और वैचारिक नजदीकी का दुरुपयोग किया है?

संघ परिवार से संबद्ध लोगों-संस्थाओं के खिलाफ कार्रवाई करने से इनकार से बने सहजीवी संबंध को अब सरकार द्वारा स्पायवेयर के इस्तेमाल से चुनौती दी जा रही है. इस रूप में कि यह सोशल मीडिया की निजता की प्रतिबद्धताओं को दरगुजर कर देता है.

वॉट्सऐप- जिसका इस्तेमाल भाजपा आईटी सेल द्वारा अपने हर दिन के प्रोपगैंडा को आगे बढ़ाने के लिए खुले हाथ से किया गया- ने इजरायली कंपनी एनएसओ के खिलाफ पेगासस के जरिये अपने प्लेटफॉर्म को गैरकानूनी तरीके से हैक करने के लिए मुकदमा किया है. एप्पल ने 2019 में इस स्पायवेयर का पहली बार पर्दाफाश करनेवाले कनाडा स्थिति सिटिजन लैब जैसे सिविल सोसाइटी समूहों की तारीफ की है.

इस तथ्य के मद्देनजर कि एनएसओ सिर्फ सरकारों को ही अपना उत्पाद बेचती है, सिविल सोसाइटी के खिलाफ युद्ध वाली डोभाल की टिप्पणी अब तक तालमेल बैठाकर काम करनेवाले सभी खिलाड़ियों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर देती है.

अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने डेटा प्राइवेसी के मसले पर एक समिति गठित कर दी है, यह सिर्फ फ्री स्पीच बनाम हेट स्पीच का मामला नहीं रहा गया है, बल्कि प्राइवेसी बनाम डीप स्टेट और प्राइवेसी बनाम बिग टेक, जो इस नए युद्ध का नया मोर्चा बन गया है, का मामला बन गया है.

जहां भारत भारतीय नागरिकों की हिफाजत के लिए डेटा स्थानीयकरण कानूनों की ओर बढ़ रहा है, वहीं सरकार समर्थित सिविल सोसाइटी की शक्तियों द्वारा तकनीक और सोशल मीडिया का इस्तेमाल अकाट्य तरीके से इस चौथी पीढ़ी के युद्ध से जुड़ा हुआ है, जिसकी चर्चा एनएसए ने की है और भारतीय लोकतंत्र के लिए इसके काफी गहरे निहितार्थ हैं.

एमके वेणु द वायर के संस्थापक संपादक हैं और माया मीरचंदानी अशोका यूनिवर्सिटी के मीडिया स्टडीज की प्रमुख तथा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं. 

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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