ईशा फाउंडेशन के जग्गी वासुदेव के योग आश्रम से अपनी ज़मीन वापस लेने के लिए कोयंबटूर की मुताम्मा लंबे समय से लड़ाई लड़ रही हैं.
डायस पर एक दुबली-पतली महिला बोलने के लिए खड़ी थी. वह कोयंबटूर ज़िले की ईरुला आदिवासी मुताम्मा थी. 50 से कम उम्र कि उस महिला के चेहरे पर बचपन से उसके द्वारा की जा रही हाड़तोड़ मेहनत ने गहरी लकीरें खींच दी थीं.
जब उसने बोलना शुरू किया तो उसकी आवाज़, उसके चेहरे-मोहरे और उसके पूरे शरीर उसके दृढ़ संकल्प और उसकी हार न मानने वाली आत्मा को प्रतिबिंबित कर रहे थे.
तमिलनाडु के अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एआईडीडब्ल्यूए) के धर्मपुरी में हुए 15वें राज्य सम्मलेन में 24 सितंबर को मुताम्मा को उसके कई वर्षो से चल रहे संघर्ष के लिए सम्मानित किया जा रहा था.
उसी संघर्ष की कहानी वह तमाम प्रतिनिधियों को सुना रही थी. एक ऐसी कहानी जिसका सुखद अंत दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था.
मुताम्मा कोयंबटूर को घेरने वाले जंगलों और पहाड़ियों में रहती है जहां परंपरागत तौर पर आदिवासियों का बसेरा रहा है. करीब 20 साल पहले उसने पड़ोस के एक योग आश्रम में अपने पति के साथ दिहाड़ी पर काम करना शुरू किया था.
बाद में उसके दो बेटे और एक बेटी ने भी यही काम बचपन से ही करना शुरू कर दिया. उसका कहना था कि जिन लोगों को बराबर काम नहीं मिलता है उन्हें 250-300 रुपये की दिहाड़ी मिलती है.
जिनको बराबर काम मिलता है, उन्हें 130 से 150 रुपये मिलते हैं. मुताम्मा ने आश्रम के लिए करीब 10 साल पहले काम करना बंद कर दिया था क्योंकि किसी एनजीओ ने उसके जैसी महिलाओं के 18 स्वयं सहायता समूह स्थापित कर दिए थे. इसमें से एक समूह में वह भी शामिल हो गई थी.
समूह की अपनी सहेलियों के साथ वह जंगल में जाती और वहां से आंवला, शिकाकाई, वडामांगा (अचार बनाने वाले छोटे आम), तरह-तरह के घास जिनको चारा, छप्पर छवाने और दवाइयों के लिए इस्तेमाल किया जाता था इत्यादि वन उपज बंटोरने का काम करती थी.
हालांकि कुछ सालों के बाद यह स्वयं सहायता समूह बंद कर दिया गया. अधिकारियों ने इस बात की अनिवार्यता तय कर दी कि वन उपज को बटोरने के लिए टेंडर भरना पड़ेगा और ऐसा करना इन गरीब आदिवासी महिलाओं के लिए संभव नहीं था.
जब उनका काम चल रहा था तो योग आश्रम ने इलाके को घेरने का काम शुरू कर दिया. महिलाएं आश्रम के अधिकारियों के पास गई और उनसे विनती की कि सिर्फ तीन गज़ की जगह छोड़ दें ताकि वह जंगल में प्रवेश कर सकें लेकिन उनको टका सा जवाब देकर मनाकर दिया गया.
महिलाएं काफी लंबे रास्ते से जाने के लिए मजबूर हुईं और फिर यह स्वयं सहायता समूह ख़त्म हो गया. यही नहीं जब उन्होंने जंगल की उपज बटोरने का काम बिना स्वयं सहायता समूह के सहारे जारी रखने की कोशिश की तो वन-विभाग ने उन्हें गैरकानूनी घुसपैठिया घोषित करके यह काम भी बंद कर दिया.
इस बीच आश्रम के लोगों ने हस्तक्षेप किया. उन्होंने मुताम्मा और उनकी सहेलियों को अपने साथ जंगल में जाने के लिए कहा. वहां उन्होंने उन महिलाओं के सैकड़ों साल पुराने ज्ञान और जानकारी का पूरा फायदा उठाया.
वन में मौजूद उपयोगी फल-पौधों के बारे में सब कुछ सीख लिया और चतुराई से इन अशिक्षित महिलाओं से, जिन्होंने कभी भी अपने ज्ञान को निजी संपत्ति के रूप में नहीं देखा था, उनका खजाना लूटने के बाद, आश्रम के लोगों ने उन्हें विदा किया और ख़ुद जंगल के उपज व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए बटोरना शुरू कर दिया.
इस तरह प्रकृति द्वारा सबके काम आने वाली संपदा को आश्रम के लोगों ने मुनाफा कमाने वाले वस्तुओं में परिवर्तित कर दिया.
इसके बाद मुताम्मा को इलाके के खेतों और बागों में दिहाड़ी का काम करना पड़ा. उसके दिमाग में एक धुंधली सी याद थी कि बहुत साल पहले भूदान के अभियान के दौरान इलाके के एक बड़े ज़मींदार, मुत्थुस्वामी गौंडर ने 44 एकड़ ज़मीन अपने लिए काम करने वाले 13 आदिवासी मज़दूरों को पट्टा किया था.
मुताम्मा के पति के दादा को भी एक पट्टा मिला था लेकिन गरीबी और निरक्षरता के बोझ से दबे रहने वाले आदिवासियों को उस ज़मीन पर कब्ज़ा कभी नहीं मिला था. उनके पास जो फटे कागज़ के टुकड़े थे वे कभी-कभी केवल उन वादों की याद दिलाते थे जो कभी उनके लिए साकार नहीं हुए.
2012 में जान-पहचान के एक आदिवासी साथी तमिलनाडु आदिवासी अधिकार संगठन के राज्य सम्मेलन में मुताम्मा को अपने साथ ले गए. इस संगठन के कई नेता सीपीआईएम से संबद्ध थे.
मुताम्मा के लिए यह सम्मेलन बिल्कुल नया और तरह-तरह की नई उम्मीदों को पैदा करने वाला मौका था. उसमें लगने वाले जोशीले नारे, उसमें साझा किए जाने वाले संघर्षों के अनुभव इन सबने उसके अंदर आशा की एक किरण को पैदा किया कि शायद कागज़ के वह फटे टुकड़े उसके और उसके कबीले के लोगों के काम भी आ सकते हैं.
उसने एक प्रतिनिधि से अनुरोध किया कि उसकी तरफ से वह एक पत्र संगठन के नेताओं के लिए लिख दे जिसमें उसकी परेशानी का ज़िक्र हो.
पत्र डायस पर बैठे नेताओं के पास पहुंचाया गया और उन्होंने मुताम्मा की मदद के लिए उसका परिचय कोयंबटूर ज़िले के एआईडीडब्ल्यूए और सीपीआईएम के साथियों से परिचय करवा दिया.
यही से उसका संघर्ष शुरू हुआ. उस ज़मीन के लिए संघर्ष जिस पर उसका और करीब 200 आदिवासी परिवारों का अधिकार था. इस संघर्ष की ख़ातिर मुताम्मा को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी.
उसका पूरा परिवार योग आश्रम के लिए ही काम करता था. वह नौकरी से हाथ धोने से डरते थे और आश्रम जैसे ताकतवर हस्ती से दुश्मनी मोल लेने से भी डरते थे. इसलिए उन्होंने मुताम्मा को घर से निकाल दिया. उसे अपने कबीले के मुखिया और उसके परिवार की झोपड़ी में शरण लेनी पड़ी.
अपने नए साथियों के साथ मुताम्मा और उनके जैसे आदिवासियों ने आरटीआई की मदद से ज़मीन संबंधी दस्तावेज़ों को प्राप्त किया. यह सिद्ध हो गया कि 44 एकड़ ज़मीन पर उनका ही अधिकार था.
वह ज़िला प्रशासन के पास गए और उनसे उन्होंने मांग की कि इस ज़मीन पर उन्हें घर बनाने की अनुमति दी जाए.
कुछ महीने पहले मुताम्मा अन्य आदिवासियों और एआईडीडब्ल्यूए, दलित संगठनों और सीपीआईएम के कार्यकर्ताओं के साथ हाथ में अनेक रंग के झंडे लिए उस ज़मीन पर गए.
उस पर अपने झंडों को गाड़कर उन्होंने अपने अधिकार को प्रदर्शित करने का प्रयास किया. आश्रम के लोगों ने भी उस ज़मीन को अपना बताकर उसको घेरने की कोशिश शुरू कर दी थी.
जिला प्रशासन ने हस्तक्षेप करके वहां एक बोर्ड लगा दिया. बोर्ड पर लिखा था, यह सरकारी ज़मीन है, घुसपैठियों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की जाएगी. आश्रम के लोग न्यायालय पहुंच गए और आदिवासियों को कब्ज़ा दिलाने के ख़िलाफ़ उन्हें स्टे मिल गया.
आश्रम के विरुद्ध संघर्ष में आदिवासी अकेले नहीं हैं. वेलिंगिरी हिल ट्राइबल प्रोटेक्शन सोसायटी ने मद्रास उच्च न्यायालय में एक पीआईएल दर्ज की है. इसमें उन्होंने इक्काराई पोल्वमपट्टी के पानी से भरी धरती (वेटलैंड) पर आश्रम द्वारा बनाई गई अवैध इमारतों का विरोध किया है.
हालांकि आश्रम भी बहुत शक्तिशाली संस्था है. उसका मालिक ईशा फाउंडेशन है, जिसके मुखिया सदगुरु जग्गी वासुदेव हैं. आज कल वह सुर्ख़ियों पर छाए हुए हैं.
उतना ही छाये हुए हैं जितना की उनके जैसे कुछ चुनिंदा ‘देव पुरुष’ हैं. उच्च न्यायालय में पीआईएल दर्ज होने के कुछ ही दिन पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद उनके आश्रम आए थे.
वहां आकर उन्होंने 112 फुट ऊंचे ‘आदि योगी’ शिव की मूर्ति का उद्घाटन किया. उनसे तमाम पर्यावरण प्रेमियों ने आग्रह किया था कि उस अवसर पर वह वहां न जाएं.
उनका कहना था कि इस मूर्ति के निर्माण के साथ आश्रम द्वारा अतिक्रमण का एक और मामला जुड़ गया था. इनमें केवल अवैध निर्माण ही नहीं है.
ईशा फाउंडेशन पर यह भी आरोप है कि उनके द्वारा किए गए निर्माण की वजह से हाथियों के परंपरागत पथ बंद हो गए हैं. इसका नतीजा यह हुआ कि हाथी इलाके के गांवों से होकर निकालने के लिए मजबूर हो गए हैं और गांववालों के जान-माल के लिए ज़बरदस्त खतरा पेश कर रहे हैं. यह मामला इस समय राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) की दक्षिण भारत इकाई के सामने विचाराधीन है.
पर्यावरण प्रेमियों का साथ उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश डी. हरिपारंथमन ने भी दिया. उन्होंने प्रधानमंत्री को खुला पत्र भेजा जिसमें उन्होंने कहा…
इसके बावजूद कि तमिलनाडु की सरकार ने स्वयं इस बात को माना है कि अवैध निर्माण किया गया है, एक भी इमारत आज की तारीख़ तक हटाई नहीं गई है. उच्च न्यायालय के सामने चार याचिकाएं इस संबंध में लंबित हैं लेकिन यह दुःख की बात है कि यह मामले पिछले तीन सालों में काम एक इंच आगे नहीं बढ़ पाए हैं.
प्रधानमंत्री का आगमन गलत संदेश भेजेगा और इस अवैध निर्माण को वैधता प्रदान करेगा. इसलिए हमारा आग्रह है कि वह ईशा फाउंडेशन के कार्यक्रम में न जाए.
यह अवैध निर्माण इस इलाके के जानवरों और पेड़-पौधों पर विपरीत प्रभाव डालेगा और नोय्यल नदी को भी प्रदूषित करेगा. इस नदी का प्रदूषण तमिल नाडु के संपूर्ण पश्चिमी क्षेत्र को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा.
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर इसका कोई असर नहीं पड़ा और वह उस विशाल मूर्ति के अनावरण के लिए जग्गी वासुदेव के आश्रम पहुंच गए.
प्रधानमंत्री के आगमन की पूर्व संध्या पर मुताम्मा की झोपड़ी पर कुछ विशेष मेहमान पहुंचे. दो पुलिस अधिकारी और चार सिपाही. उन्होंने मुताम्मा से कहा कि वह तब तक अपनी झोपड़ी के बाहर नहीं निकल सकती है जब तक कि प्रधानमंत्री चले नहीं जाएंगे.
मुताम्मा कोयंबटूर जाने की तैयारी में थी. दूसरे दिन एआईडीडब्ल्यू के सदस्य प्रधानमंत्री को काले झंडे दिखाने वाले थे लेकिन गैरकानूनी तरीके से उसे अपनी झोपड़ी में ही बंधक बना दिया गया.
दूसरे दिन, काले झंडों के प्रदर्शन से बचने के लिए प्रधानमंत्री आश्रम तक हेलीकॉप्टर से रवाना हो गए लेकिन महिलाओं ने काले गुब्बारे आसमान में उड़ा दिए और इस द्दश्य को देखने से मोदीजी नहीं बच पाए. ज़ाहिर है कि आदिवासियों और उनकी समस्याओं का कोई ज़िक्र उनके भव्य कार्यक्रम में नहीं हुआ.
ईशा फाउंडेशन ने इस बात से इनकार किया है कि उन्होंने ज़मीन को गलत तरीके से हथियाया है. उनके प्रवक्ता ने इतना ज़रूर माना कि महाशिवरात्रि के उत्सव के लिए उन्होंने कुछ अस्थाई निर्माण किया था जो वह पर्व के बाद हटा देंगे. हालांकि ये अब तक नहीं हटे हैं.
फाउंडेशन का कहना है कि भारी बरसात की वजह से काम रुका हुआ है. बरसात के बाद हो जाएगा. लेकिन अभी तक नहीं हुआ है.
प्रधानमंत्री के जाने के तुरंत बाद उच्च न्यायालय में याचिका दर्ज की गई. इसी मामले में कोयंबटूर क्षेत्र के शहर व ग्रामीण योजना के उप निदेशक ने अपना हलफ़नामा लगाया है जिसमें उन्होंने कहा है कि फाउंडेशन ने बिना आज्ञा के बहुत बड़े क्षेत्र में निर्माण किया है.
हलफनामे में फाउंडेशन से कहा गया है कि शिव की मूर्ति और वहां बनी दूसरी इमारतों के निर्माण के वहज के बारे पूरी जानकारी दे और पहाड़ी क्षेत्र संरक्षण प्राधिकरण की इजाज़त के लिए उसे दिए गए नक्शों को भी पेश किया जाए लेकिन फाउंडेशन ने कोई जवाब नहीं दिया है.
दरअसल, याचिका को दायर करते समय यह कहा गया था कि 21 दिसंबर, 2012 को ही फाउंडेशन को बंद और सील करने और तोड़ने का नोटिस दे दिया गया था. उनसे कहा गया था कि 30 दिन के अंदर वह तमाम धार्मिक निर्माण और अन्य निर्माण को तोड़ दें.
बहुत ही धीमी गति से सुनवाई हो रही है. शिकायतों का अंबार लग रहा है. आश्रम और उसके आसपास अजीब घटनाओं के घटने की बात भी चल पड़ी है.
इस दौरान जग्गी वासुदेव प्रसार-प्रचार के माध्यमों पर छाए हुए हैं. वह देश भर में घूम रहे हैं. मुख्यमंत्रियों से मिल रहे हैं. देशभर की नदियों को बचाने की बात कर रहे हैं.
इस बाबत उनके द्वारा दिए गए सुझावों पर प्रख्यात वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों ने काफी अध्ययन किया है और इनमें त्रुटियां भी पाई हैं. लेकिन प्रधानमंत्री और दूसरे धनाड्य और शक्तिशाली लोगों का समर्थन उन्हें प्राप्त है.
उन लोगों के लिए जिन्हें एक बेदाग गुरु की खोज है, वह काफी जनप्रिय हो रहे हैं. इन लोगों के लिए मुताम्मा और उनके जैसे गरीब आदिवासी, जो जग्गी वासुदेव के पड़ोसी हैं का किसी तरह का महत्व नहीं है.
23 सितंबर को इंडियन एक्सप्रेस में जग्गी वासुदेव का एक बड़ा साक्षात्कार छपा. उन्होंने कहा कि वह सब कुछ करते हैं जो सहज भाव से वह करना चाहेते हैं, ‘भिखारी के साथ नाचना’ भी. वह यह भी कहते हैं कि पुरातन काल में जिस तरह से राजाओं को सही रास्ते पर चलाए रखने के लिए राजगुरु होते थे, आज के नेताओं के लिए भी राजगुरुओं का होना आवश्यक है.
उनको यह कहने में कोई हिचक न हुई कि वह अपने आपको इस भूमिका को निभाते हुए देखने लगे हैं. जो लोग ईशा फाउंडेशन की गतिविधियों से परिचित हैं वह इस बात से इंकार करते हैं कि उन्हें भिखारियों को छोड़, गरीब आदिवासियों के साथ भी नाचने का कोई इरादा है. उनके राजगुरु बनने की बात से तो उन्हें काफी बेचैनी और डर पैदा हुआ है.
इस साक्षात्कार के दूसरे ही दिन धर्मपुरी के सम्मेलन में बोलने वाली मुताम्मा, अदृश्य और अनसुनी संघर्ष के उस कंटीले रास्ते पर चल रही है जिसका चुनाव उसने स्वयं किया है.
धर्मपुरी में होने वाले एआईडीडब्ल्यूए के सम्मेलन में भाग लेने की उसने ठान ली थी. उसको बताया गया था कि उसे किराये का और प्रतिनिधित्व का पैसा जमा करना पड़ेगा.
उसने सोचा था कि अपनी बहुत ही कम मज़दूरी से पैसे बचाकर यह अदा कर देगी लेकिन सम्मलेन से पहले करीब एक महीन तक बारिश ने बंद होने का नाम ही नहीं लिया.
जिस झोपड़ी में उसे दूसरों ने शरण दी है, उसका दरवाज़ा तक नहीं है. बारिश से बचने के लिए मुताम्मा अपनी पुरानी साड़ियां बांधकर झोपड़ी का का दरवाज़ा बंद करने की कोशिश करती हैं.
उससे मैंने पूछा कि जब उसे काम नहीं मिलता तो वह क्या खाती है. उसने बताया कि एआईडीडब्ल्यू के सदस्य आदिवासियों के लिए चावल इकट्ठा करके उनके बीच बांटते हैं.
इस चावल को वह झोपड़ी के आस-पास उगने वाली साग के पत्तों के साथ उबालती हैं. फिर उसमें नमक मिलाकर उसे दिन में दो बार खाती हैं.
सम्मेलन के पांच दिन पहले पानी कुछ कम हुआ और 50 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी उसे मिल गई. अपनी साड़ी के पल्लू में गांठ बांधकर 250 रुपये लेकर वह कोयंबटूर पहुंची.
वहां उसे पता चला कि सम्मेलन में उसे अतिथि के रूप में बुलाया गया है. वहां उसका सम्मान किया जाएगा. उसका किराया और प्रतिनिधि शुल्क संगठन ही देगा.
सम्मेलन के सामने बोलने के बाद वह खामोश बैठी थी. मैंने उससे पूछा क्या उसे अपने परिवार की याद आती है? उसने ज़रा सा सोचा और फिर बड़े ही सहज भाव से कहा, ‘परिवार के बारे में सोचूंगी तो अपने लोगों के बारे में कैसे सोच पाऊंगी?’
निष्ठा और ज्ञान से भरे शब्द.
(लेखिका पूर्व सांसद और माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य हैं.)