बीते दिनों गोवा में दिए एक भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने पुर्तगाली शासन संबंधी ग़लत ऐतिहासिक तथ्यों को पेश किया. इसके बाद उनके भाषण लेखकों की गुणवत्ता पर सवाल उठना लाज़मी था, लेकिन लगता है कि उन्हें यह भरोसा हो चला है कि यशस्वी प्रधानमंत्री के मुख से निकली बात की पड़ताल कोई नहीं करता.
‘यूं तो यह पागलपन है अलबत्ता उसमें एक पद्धति है’
(‘Though this be madness yet there is method in it’)
– हैमलेट, शेक्सपियर
गोवा में जब पुर्तगाली हुकूमत कायम हुई, तब क्या भारत के ‘प्रमुख भागों में मुगलों का शासन कायम हुआ था? छह सौ साल पहले चले इस घटनाक्रम को लेकर पिछले दिनों एक छोटी बहस मुख्यधारा की मीडिया में छिड़ी. इस बहस की पृष्ठभूमि थी प्रधानमंत्री मोदी की गोवा की हालिया यात्रा, जहां दी गई तकरीर में उन्होंने ऐसा ही दावा किया था.
वैसे अगर इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में इसके बारे में दर्ज विवरण ही काफी थे, मामले की सत्यता की पड़ताल करने के लिए, जिसमें बताया गया था कि अफोन्सा द अलबुकर्क (1453-1515) जो पुर्तगाली सेनानी थे उन्होंने 1510 में गोवा पर नियंत्रण किया था, जबकि बाबर (1483-1530) ने पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोधी को शिकस्त देकर एक तरह से मुगल साम्राज्य की नींव डाली थी.
मुमकिन है इस भोंडी गलती को लेकर मोदी के भाषण लेखकों की गुणवत्ता पर नए सिरे से सवाल उठें, जिन्होंने अपने आलस्य में संभवतः तथ्यों की पड़ताल करने की जहमत भी नहीं उठाई, या शायद रफ्ता-रफ्ता उन्हें यह भरोसा हो गया हो कि प्रधानमंत्री मोदी के मुखारविंद से जो भी बात निकले, उसकी पड़ताल कोई नहीं करता.
बात जो भी हो तथ्य से बिल्कुल परे इस वक्तव्य ने 130 करोड़ आबादी के प्रधानमंत्री की छवि उजली तो नहीं हुई होंगी, जब यह ख़बर प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया के जरिये बाहर पहुंची होगी.
बहरहाल सोलह साल का यह अंतराल बहुत मामूली लग सकता है, अगर हम दोे साल पहले की प्रधानमंत्री मोदी की मगहर यात्रा का विवरण आज पलटकर देखें. एक क्षेपक के तौर पर बता दें कि मगहर यूपी का वह नगर है, जहां संत कबीर ने अपनी अंतिम सांस ली थी.
मगहर की इस यात्रा में जनाब मोदी ने दरअसल एक और बड़ी छलांग लगाई जब उन्होंने लगभग पांच सौ साल के कालखंड को एक लम्हे में समेट लिया. कबीर की 620 वीं जयंती पर वहां पहुंचे प्रधानमंत्री महोदय ने यह कहकर लोगों को लगभग चाैंका दिया कि ‘बाबा गोरखनाथ (11वीं सदी), कबीर (398-1518) और नानकदेव (1469-1539) तीनों साथ बैठकर ‘आध्यात्मिकता की चर्चा करते थे.’
तयशुदा बात है कि प्रधानमंत्री के मुख से तथ्यों से परे निकलने वाली हर बात के लिए हमेशा उनके भाषण लेखकों पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता, जब उनके ऐसे दावे सुर्खियां बने और ऐसे मनगढंत दावों का मज़ाक उड़े.
जानकार बता सकते हैं कि ऐसे वक्तव्य देना, जो तथ्यगत तौर पर गलत हों, यह कोई नया घटनाक्रम नहीं है, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत जैसे विशाल मुल्क के प्रधानमंत्री बनने के बाद सामने आया हो!
कोई चाहे तो मुख्यमंत्रीकाल से उनके ऐसे वक्तव्यों की पड़ताल कर सकता है, जहां वह ‘तथ्यतः गलत’ बातें बोलते दिखते हैं.
मिसाल के तौर पर, वर्ष 2013 में एक अस्पताल के उद्घाटन के अवसर पर गुजरात में दिए अपने वक्तव्य में (2013) उन्होंने दावा किया कि ‘श्यामाप्रसाद मुखर्जी, ‘गुजरात के महान पुत्र थे और जिन्होंने लंदन में इंडिया हाउस का निर्माण किया था.’ उन्होंने यह भी जोड़ा कि ‘गुजरात का यह महान पुत्र विवेकानंद और दयानंद सरस्वती से नियमित संपर्क में था.’
वैसे हक़ीकत यही थी कि यहां श्यामाप्रसाद मुखर्जी नहीं गुजरात के कच्छ मांडवी के रहने वाले श्यामजी कृष्ण वर्मा (जन्म-अक्तूबर 1857) की वह बात कर रहे थे, जो भारत के क्रांतिकारी थे, वकील थे, पत्रकार थे और वह बाद में यूरोप में ही बस गए थ और वहीं 1930 को जिनेवा में उनका देहांत हुआ था. लंदन में उन्होंने बनाया इंडिया हाउस’ भारत के क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया था.
मुमकिन है कुछ विश्लेषक इस अंतराल के बारे में या नाम बदल के बारे में यह कह दे कि जुबां तो किसी की भी फिसल जाती है और इसके बारे में क्या बात की जाए!
अगर यह बात मान ले तो फिर अलग-अलग सभा सम्मेलनों में उन्होंने दिए वक्तव्यों के बारे में क्या कहेंगे, जिसमें उनके ‘विचार सुमन’ बिखरे मिलते हैं, जो कई बार सत्य से परे साफ-साफ दिखते हैं.
मिसाल के तौर पर, पटना रैली (2013) में उन्होंने दावा किया कि ओलेक्जेंडर (ईसापूर्व 356 – ईसापूर्व 323) बिहार पहुंचा था और बिहारियों ने उसे शिकस्त दी थी- यह जुदा बात थी कि ओलेक्जेंडर, जिसे सिकंदर नाम से हम जानते हैं, उसने कभी गंगा पार नहीं की थी.
उसी तरह इसी भाषण में उन्होंने न तक्षशिला को बिहार स्थित बताया, जबकि वह पाकिस्तान में है, इतना ही नहीं उन्होंने गुप्त राजवंश (ईसवी 319-467) के साथ महान चंद्रगुप्त मौर्य (ईसापूर्व 321-ईसापूर्व 297) का नाम जोड़ दिया.
निश्चित ही जब व्यक्ति अक्सर तथ्यों से बेमेल बातें कहता जाता है और मीडिया का मुग्ध हिस्सा या जिसे गोदी मीडिया कहा जाता है, वह गुणगान ही करते जाते हैं, तब ऐसा सिलसिला बढ़ता जाता है.
वैसे हम कतई ऐसा नहीं कह सकते कि तथ्य से परे उनके हर वक्तव्य को भूल जाने या जुबां फिसलने की श्रेणी में शुमार किया जा सकता है. आप गौर करेंगे कि अपने चुने हुए शब्दों/वाक्यों या अपनी बातों के जरिये वह अपने असमावेशी एजेंडा से जुड़ी बातों के प्रति एक सहमति तैयार कर रहे होते हैं.
पहली दफा प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद द्वारा संसद के पटल पर राष्ट्र्रपति के अभिभाषण को लेकर धन्यवाद ज्ञापन के नाम पर उन्होंने जो वक्तव्य दिया था, उसी को पलटकर याद करें. इसमें उन्होंने ‘बारह सौ साल की गुलाम मानसिकता’ की बात कही थी.
उनका कहना था ‘बारह सौ साल की गुलामी की मानसिकता हमें परेशान कर रही है. बहुत बार हमसे थोड़ा ऊंचा व्यक्ति मिले, तो सिर ऊंचा करने की हमारी ताकत नहीं होती है.’
आम भारतीय बचपन से यही सुनता आया था कि भारत ‘दो सौ साल की गुलामी’ में जिया है जिससे दो सौ साल की ब्रिटिश हुकूमत का काल संदर्भित होता है. अब उस कालखंड को 1200 साल तक फैलाकर जनाब मोदी इतिहास को देखने के अपने समूचे नज़रिये को प्रभावित करते दिखे थे.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संघ परिवार के बौद्धिकों में या उसकी अपनी किताबों में प्रस्तुत यह बात राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतन का अभिन्न हिस्सा है.
यह तथ्य है कि इस दौरान आए आक्रमणकारी राजाओं में तमाम मुस्लिम शासक थे. 200 साल के बजाय गुलामी को 1200 साल तक विस्तारित करता मोदी का यह वक्तव्य इस हकीकत को पूरी तरह नजरअंदाज करता है कि जहां ब्रिटिशों ने भारत को अपना घर नहीं बनाया जबकि इसके पहले बाहर से आए तमाम आक्रांताओं ने इसे अपना मुल्क बनाया, देश की संस्कृति के विकास में अपना योगदान दिया, जिसने देश में गंगा-जमनी तहज़ीब को जन्म दिया.
इसी तरह उनके इस दावे को देखें कि जवाहरलाल नेहरू सरदार वल्लभभाई के पटेल के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुए (2013) जिसकी तथ्यहीनता को लेकर कांग्रेस के नेताओं से लेकर अख़बारों में इतना छपा, इतने सारे प्रमाण पेश किए गए कि उन्हें अपनी बात पर खेद प्रकट करना पड़ा.
क्या कोई कहे कि उनके ऐसे वक्तव्य यूं ही गलती से दिए जाते होंगे इतने बड़े ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर वह नावाकिफ होंगे या उसके पीछे एक उद्देश्य होगा? जाहिर है कि नेहरू को पटेल के विरोध में खड़ा करने की यह सोच न केवल तथ्यों से परे है बल्कि उसके पीछे कोशिश संघ के एजेंडा को ही रफ्ता-रफ्ता आगे बढ़ाने की नीयत होती है.
वैसे तथ्य क्या कहते हैं?
पटेल ने खुद इस बात का अंदाज़ लगाते हुए कि निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उनके तथा नेहरू के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की जाएगी, 2 अक्तूबर 1950 को, अपनी मौत के महज तीन माह पहले कहा:
‘हमारे नेता जवाहरलाल नेहरू हैं. बापू ने उन्हें अपने वारिस के तौर पर अपनी जिंदगी में ही नियुक्त किया और इस बात का ऐलान भी किया. यह बापू के सिपाहियों का फर्ज़ है कि वह उनके आदेशों को कबूल करे. जो कोई दिल से इस आदेश को स्वीकारता नहीं है वह ईश्वर के सामने पापी घोषित होगा. मैं गैरवफादार सिपाही नहीं हूं. मेरे लिए यह बात गैरमहत्वपूर्ण है कि मेरा स्थान कहा है, मैं महज इतना ही जानता हूं कि मैं उस स्थान पर हूं जहां खड़ा रहने के लिए बापू ने मुझे कहा था.’ (Translated from: Pyarelal, Purnahuti, Chaturth Khand, Navjeevan Prakashan, Ahmedabad, p. 465.)
पंडित नेहरू के साठ साल पूरे होने पर तैयार किए ग्रंथ ‘नेहरू अभिनंदन ग्रंथ’ ‘ए बर्थडे बुक’ में (1949) अपने आलेख में उन्होंने देश के प्रिय, जनता के नायक और उनके नेता के तौर पर नेहरू की अहमियत की चर्चा की थी और नेहरू को एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर प्रस्तुत किया था, जो निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उनके बारे में प्रकट पूर्वाग्रहों के बरअक्स हमेशा लोगों की सलाह लेने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं:
..Contrary to the impressions created by some interested persons and eagerly accepted in credulous circles, we have worked together as lifelong friends and colleagues, adjusting ourselves to each other’s point of view as the occasion demanded and valuing each other’s advice as only those who have confidence in each other can”…
(… कुछ निहित स्वार्थ वाले लोगों द्वारा बनाई गई धारणाओं और इस पर भरोसा करने वाले हलकों के उलट हमने आजीवन दोस्तों और सहकर्मियों के रूप में एक साथ काम किया है, मौकों की मांग के हिसाब से खुद को एकदूसरे के दृष्टिकोण के साथ ढाला है और एक दूसरे की सलाह को इस तरह लिया है, जैसा आपस में एकदूसरे पर भरोसा करने वाले लोग करते हैं…)
गौर करेंगे कि चाहे भूलवश कहें या सचेतन तौर पर कहें घटनाओं, व्यक्तियों, समुदायों को लेकर तथ्य से परे उद्गार प्रकट करने का यह सिलसिला महज प्राचीन या मध्ययुगीन अतीत तक सीमित नहीं है, यह सिलसिला हमारे फौरी अतीत के बारे में तथा वर्तमान के बारे में उजागर होता देखते हैं.
मसलन क्या आज कोई याद करना चाहेगा कि जनाब मोदी ने नोटबंदी को किस तरह प्रस्तुत किया था, कैसे उन्होंने दावा किया था कि अर्थव्यवस्था के तमाम संकट इससे दूर होंगे, काले धन की समाप्ति होगी, कश्मीर से आतंकवाद का नामोनिशान मिट जाएगा आदि और कैसे इस तुगलकी किस्म के फरमान ने अर्थव्यवस्था को ही जबरदस्त झटका दिया, जिसकी समीक्षा भी करने की जरूरत उन्हें महसूस नहीं होती.
या किस तरह जम्मू और कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति की हिमायत में राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में बताया था कि किस तरह इस धारा का बने रहना राज्य की प्रगति में बाधक है- यह विवादास्पद दावा भी किया था जम्मू और कश्मीर किस तरह स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में अन्य राज्यों से पिछड़ा है, जबकि हक़ीकत इससे विपरीत थी.
आप याद कर सकते हैं कि जब नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर और नागरिकता संशोधन अधिनियम (एनआरसी और सीएए) को लेकर जबरदस्त आंदोलन खड़ा हुआ, देश में जगह-जगह शाहीन बाग के समानांतर धरने शुरू हुए- जिसमें मुस्लिम महिलाओं, छात्रों-नौजवानों और जनतांत्रिक ताकतों की जबरदस्त भागीदारी देखने को मिली, तब मोदी ने दिल्ली की भरी जनसभा में ऐलान किया कि उनके मंत्रिमंडल ने कभी एनआरसी आदि की बात नहीं की थी, जबकि इस बात के तमाम प्रमाण मौजूद थे कि उनके अनन्य सहयोगी अमित शाह और अन्य ने संसद के पटल पर किस तरह इस मामले का आगे बढ़ाया था.
इसी किस्म का जनाब मोदी का एक और दावा था कि चुनावी बॉण्ड पारदर्शिता को बढ़ावा देंगे जबकि आज बिल्कुल विपरीत चित्र सामने है या चीन द्वारा भारतीय भूभाग के अतिक्रमण को लेकर- जिसके तमाम प्रमाण सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं- मोदी आज भी मानते हैं कि चीन कहीं घुसा नहीं है.
वैसे सत्य से परे ऐसी तमाम बातें – जो 130 करोड़ से अधिक जनसंख्या के इस मुल्क के प्रधानमंत्री के मुखारविंद से निकलती हैं, उन्हें हम किस तरह देख सकते हैं ?
क्या हम यह मान लें कि हर राजनेता जनता के सामने इसी अंदाज़ में बात करता है या हम विगत सदी तीस-चालीस के दशक में सामने आए अधिनायकवादी प्रयोगों में- जिन्होंने व्यापक जन तबाही को अंजाम दिया- प्रयुक्त गोएबेल्सनुमा रणनीति से जोड़कर देखें और कहें कि किस तरह बार बार दोहराया गया झूठ सच जैसा दिखने लगता है.
लेकिन मेरे खयाल से अधिक बड़ा सवाल यह है कि आम जन ही नहीं अतिशिक्षित कहे जाने वाल जन भी वास्तविक परिस्थिति और ऐसे दावों के बीच बढ़ते अंतराल को किस तरह चुपचाप स्वीकार करते जाते हैं, बिना प्रश्न पूछे गटक जाते हैं. इतना ही नहीं गल्प की श्रेणी में शुमार ऐसी तमाम बातों को अपने मित्राें, परिवारजनों, सहकर्मियों के बीच तत्परता से साझा करते जाते हैं, गोया वह राष्ट्रभक्ति का कार्य हो.
निश्चित ही इस मसले पर तरह तरह से सरोकार के सवाल उठ रहे हैं, लोग पूछ रहे हैं कि भारत किस तरह ‘झूठ की आगजनी’ (fire hosing of falsehood’) का सामना कर रहा है और इसके बारे में क्या किया जाना चाहिए?
दरअसल हम अमेरिका के पूर्वराष्ट्रपति के कार्यकाल में ही इस संबंध में उठी चर्चाओं को नए सिरे से देख सकते हैं कि किस तरह आलोचकों ने ट्रंप के हर वक्तव्य या हर छद्म बयान की विवेचना की और यह समझा कि आखिर लोग झूठ को कितनी तेजी से मान लेते हैं.
हम पुराने अख़बारों को पलटकर देख सकते हैं कि विश्लेषकों ने ट्रंप के झूठ को नापने का एक तरीका भी विकसित किया था और उनके कार्यकाल के अंत में बताया कि इन चार सालों के दौरान उन्होंने 30,573 बार झूठ बोला, जिसका मतलब था कि हर रोज औसतन वे 21 दफा गलत दावे करते थे.
यहा हम ट्रंप के झूठों की एक बानगी पेश कर रहे हैं, जिसे उन्होंने अमेरिकी जनता के सामने बेधड़क रखा:
‘…बराक ओबामा इस्लामिक स्टेट के संस्थापक रहे हैं; टेक्सास के गवर्नर टेड क्रज के पिता जॉन एफ. केनेडी की हत्या की साजिश में शामिल थे; उन्होंने हजारों मुसलमानों को न्यू जर्सी में 9/11 के आतंकी हमले को सेलिब्रेट करते देखा; या वह चुनाव जीते (जबकि वह 25 लाख वोटों से चुनाव हार गए थे.)’
जानकार लोग जिन्होंने ट्रंप के बयानों एवं भाषणों की पड़ताल की है, उन्होंने इसे इस तरह स्पष्ट किया है.
उनके मुताबिक अगर झूठ पर विश्वास किया जाना है तो झूठ बोलने वाले पर पहले विश्वास मजबूत होना चाहिए; आखिर लोग झूठ पर क्यों यकीन करते हैं? रिसर्च बताता है कि इसे समझना आसान है.
यह इस वजह से होता है कि मनुष्य नियंत्रण में रहना चाहता है; तीसरे, लोग झूठ पर तभी यकीन करते हैं जब वह अपने आप को नाजुक स्थिति में पाते हैं; जितना लोगों के अपने जीवन पर कम नियंत्रण होता है, वही वह दिमागी कसरत के जरिये उसे बहाल करने की कोशिश करते हैं. और फिर डोनाल्ड ट्रंप का आगमन होता है, जो झूठ फैलाने के लिए कुख्यात है, उसने तमाम लोगों के कल्पनाजगत पर नियंत्रण कर लिया, जो अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को लेकर अपने आप को नाजुक स्थिति में पा रहे थे.’
क्या उम्मीद की जानी चाहिए भारत में भी ऐसा सिलसिला तेज होगा, जो बिना संकोच या बेझिझक ऐसी समानांतर पड़ताल शुरू करेगा, जैसी ट्रंप के कार्यकाल के शुरूआती वक्त़ में ही अख़बारों आदि ने की थी.
कहा जाता है कि The price of democracy is eternal vigilance यानी निरंतर निगरानी जनतंत्र की पूर्वशर्त होती है. आज इसकी अहमियत नए सिरे से मौजूं हो उठी है.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)