डूबती अर्थव्यवस्था को लेकर कई भाजपा नेता लगातार वित्त मंत्री पर हमला कर रहे हैं, लेकिन जिन आर्थिक फैसलों से यह स्थिति आई है, उन्हें लेने में प्रधानमंत्री की भूमिका पर एक चुप्पी छाई हुई है.
ये ग़लत है कि भाजपा द्वारा ही अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क करने का इल्ज़ाम बेचारे अरुण जेटली पर लगाया जा रहा है. ये नाइंसाफी है क्योंकि भले ही ऐसा लगे कि जेटली आर्थिक नीतियां बना रहे हैं, लेकिन नोटबंदी जैसे प्रमुख फैसले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के थे.
पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे गए अपने एक तर्कपूर्ण लेख में जेटली पर हमला किया है लेकिन मुख्य अपराधी यानी मोदी का नाम उन्होंने भी नहीं लिया है. नोटबंदी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा झटका रही और ये पूरी तरह से मोदी की बुलाई हुई आफत थी. आधिकारिक सूत्रों ने इस बात की पुष्टि की है कि जेटली और भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल को इस फैसले के बारे में केवल औपचारिकता के लिए बताते हुए दस्तख़त करने के लिए कहा गया था.
यहां मोदी ने एक ही झटके में रिज़र्व बैंक की 70 सालों से बचाकर रखी गयी स्वायत्तता और इसकी वैश्विक प्रतिष्ठा, दोनों को बर्बाद कर दिया. इससे पहले भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी के रोज़-रोज़ के हमलों के बाद प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री रघुराम राजन को रिज़र्व बैंक के गवर्नर पद से इस्तीफ़ा देने को मजबूर किया गया था. स्वामी का कहना था कि राजन ‘मानसिक रूप से पूरी तरह भारतीय नहीं’ हैं.
यहां दिलचस्प बात यह है कि अब स्वामी और ट्विटर पर उनकी ‘स्वामी आर्मी’ जेटली के अर्थव्यवस्था न संभाल पाने के ख़िलाफ़ हर रोज़ मोर्चा खोले रहते हैं. क्या जेटली, जो ‘मोदी लहर’ के बावजूद अमृतसर में अपनी सीट नहीं बचा पाए थे, बिगड़ती अर्थव्यवस्था के लिए ‘प्रधान सेवक’ नरेंद्र मोदी को बचाने के लिए आसान निशाना बनाए जा रहे हैं? जैसे-जैसे विकास दर नीचे जा रही है क्या स्वामी और सिन्हा ये सुनिश्चित कर रहे हैं कि मोदी को हमलों से बचाया जाये?
गौर करने वाली बात है कि पिछली बार जब यशवंत सिन्हा ने सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था, तब वो हमला सीधे मोदी पर था. पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के बाद यशवंत सिन्हा ने मोदी का नाम लिए बिना कहा था कि अगले चुनाव में ‘जनता उन्हें धूल चटा देगी.’ ये बात दूसरी है कि इस बात का असर अगर किसी पर पड़ा तो वे थे सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा. जयंत से वित्त राज्यमंत्री की ज़िम्मेदारी लेकर उन्हें नागरिक उड्डयन मंत्रालय भेज दिया गया. इस बार सीनियर सिन्हा थोड़े सतर्क थे. उन्होंने मोदी का नाम तक नहीं लिया. उन्होंने सिर्फ जेटली को ही इसका ज़िम्मेदार बताया.
विवेक देबरॉय की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन करना भी अर्थव्यवस्था में फैली इस गड़बड़ी के लिए और लोगों को ज़िम्मेदार बनाने और मोदी को बचाने का प्रयास है. अगर नीति आयोग का उदाहरण लिया जाए, तो ये एक ऐसी बेख़बर सलाहकार इकाई है, मोदी जिसकी उपेक्षा करना ही पसंद करते हैं. और रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति का क्या, जो व्यापक आर्थिक नीति बनाते हैं? क्या नए सलाहकार आने पर इसे छुट्टी पर भेज दिया जायेगा?
जीएसटी, जिसने टैक्स प्रक्रिया को और जटिल बना दिया है, जिससे छोटे और मझोले व्यापार एक तरह से ठप हो गये हैं. आदर्श रूप में तो जेटली को जीएसटी लागू करने के बाद नोटबंदी का फैसला लेना चाहिए था. लेकिन ज़्यादातर मामलों की तरह यहां भी उन्हें प्रधानमंत्री मोदी की ओर से कोई विकल्प नहीं दिया गया.
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अब जेटली पर अर्थव्यवस्था को मिले इन दो बड़े झटकों का इल्ज़ाम है. एक वरिष्ठ भाजपा नेता कहते हैं, ‘जेटली का अधिकार क्षेत्र बस मीडिया है. उन्हें भाजपा के अंदर ही ‘ब्यूरो चीफ’ कहा जाता है. विपक्षी भी इसी बात को लेकर उन्हें नापसंद करते हैं कि जेटली उन्हें लेकर प्रेस में होने वाले दुष्प्रचार के लिए ज़िम्मेदार हैं. जेटली कोई भी इल्ज़ाम लगाने के लिए सबसे आसान निशाना हैं. क्योंकि उनके पास कोई आधार नहीं है, इसलिए वे सिर्फ मीडिया मैनेज करके जवाब दे सकते हैं. गुजरात कैडर के आईएएस अधिकारी और वर्तमान राजस्व सचिव हसमुख अधिया को प्रधानमंत्री कार्यालय संपर्क करने के लिए सीधी लाइन मिली हुई है, वे शायद ही कभी जेटली की सुनते हैं.’
एक वरिष्ठ नेता ने यह भी बताया कि 2015 में जेटली द्वारा पेश किये गए पहले पूर्ण बजट का 70 फीसदी इनपुट प्रधानमंत्री कार्यालय और मोदी के विश्वसनीय अधिकारियों की ओर से मिला था.
एक भद्दा मज़ाक बनकर रह गई किसानों की कर्ज़माफ़ी, जिसका मोदी द्वारा उत्तर प्रदेश चुनाव जीतने के लिए वादा किया गया था, का भी जेटली से कोई सीधा लेना-देना नहीं है. ये अलग कहानी है कि उत्तर प्रदेश में कृषि संकट झेल रहे किसानों को कुछ पैसों और 1 रुपये की ऋण माफ़ी दी गई. कई जगह तो प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीर लगे पत्र से किसानों को यह ‘खुशखबरी’ मिली.
यह बहस का मुद्दा है कि मोदी सलाह लेने और मानने में कितना विश्वास रखते हैं. किसी भी मामले में वे उनके ख़ामोश और सजावटी मंत्रिमंडल के बजाय अपने भरोसेमंद अधिकारियों से सलाह लेना ज़्यादा पसंद करते हैं. मुद्रा बैंक का ही उदाहरण ले लीजिये, जिसे मोदी और अमित शाह दोनों एक चुनावी संपत्ति की नज़र से देखते हैं. सूत्रों ने इस बात की पुष्टि की है कि न तो ये जेटली का विचार था और न ही इसके अमल को लेकर उन पर भरोसा किया गया.
जेटली की स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों और रक्षा मंत्रालय सहित कई मंत्रालयों की ज़िम्मेदारी को देखते हुए ये समझा जा सकता है कि वे केवल वित्त मंत्रालय पर कितना ध्यान दे पाते होंगे.
सुब्रह्मण्यम स्वामी, जो अपने ट्वीट्स के ज़रिये रोज़ जेटली पर हमला बोल रहे हैं, उन्होंने मुझे कुछ समय पहले दिए एक इंटरव्यू में बताया था कि नई दिल्ली सीट से विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए उनका नाम फाइनल हो गया था, यहां तक कि तब के दिल्ली भाजपा अध्यक्ष हर्ष वर्धन ने स्वामी को इस बारे में बताया भी था- लेकिन जेटली के कहने पर ऐसा नहीं हुआ. स्वामी उन्हें कैबिनेट में जगह न मिलने का ज़िम्मेदार भी जेटली को ही बताते हैं.
पिछले हफ्ते एक न्यूज़ वेबसाइट को दिए वीडियो इंटरव्यू में स्वामी ने कहा कि जेटली की अर्थशास्त्र की जानकारी एक डाक टिकट के पीछे लिखी जा सकती है. याद हो तो ऐसी ही एक टिप्पणी 2014 में पी चिदंबरम ने की थी, पर वो मोदी की अर्थशास्त्र की समझ के बारे में थी.
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क्या ये महज संयोग है कि जब प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा रघुराम राजन को बाहर का रास्ता दिखाया जाना था, तब उनका हथियार स्वामी बने थे और अब वही स्वामी जेटली पर हमले बोल रहे हैं? हालांकि इससे पहले वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण शौरी ने भी जेटली के अर्थव्यवस्था न संभाल पाने की आलोचना करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, वे इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी की भी आलोचना कर चुके हैं.
कुछ समय पहले एस गुरुमूर्ति, जो प्रधानमंत्री को प्रमुख आर्थिक नीतियों पर परामर्श देते हैं, ने भी कहा कि अर्थव्यवस्था डूब रही है और व्यापार नोटबंदी और जीएसटी, दोनों से मिला सदमा नहीं बर्दाश्त कर पा रहा है.
तो जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था डूब रही है, मोदी इससे बचकर निकले जा रहे हैं. बिज़नेस स्टैंडर्ड का एक लेख कहता है, ‘अगर कभी बाज़ार के व्यापारियों को नियमों को लेकर कोई मुश्किल आती है, तब वे वित्त मंत्रालय के बजाय प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क करना पसंद करते हैं, जैसा कि वे पहले भी कर चुके हैं.’ इस लेख में ये भी बताया गया है कि बीते 6 महीनों में ‘20 मौकों पर प्रधानमंत्री कार्यालय का हस्तक्षेप’ हुआ.
भले ही मोदी अर्थव्यवस्था के गिरते आंकड़ों के बीच ध्यान भटकाने के लिए कल्याणकारी योजनाएं ला रहे हैं, ऐसा लगता है कि जेटली को केवल दोष मढ़ने के लिए रखा गया है. जेटली को कई और बातों के लिए इल्ज़ाम दिया जा सकता है, लेकिन भारत को दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था को धीमी विकास दर वाले दुनिया के किसी भी अन्य देश की श्रेणी में लाने के लिए अकेले उन्हें उत्तरदायी ठहराना ग़लत होगा.
(स्वाति चतुर्वेदी स्वतंत्र पत्रकार हैं और उन्होंने ‘आई एम अ ट्रोल: इनसाइड द सीक्रेट डिजिटल आर्मी ऑफ द बीजेपी’ किताब लिखी है.)
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