अशोक ने जिस भारत का तसव्वुर किया था, जिस तरह सब निवासियों के मिल-जुलकर रहने, प्रगति करने की बात की थी, उससे केंद्र में सत्तासीन हिंदुत्व वर्चस्ववादी हुकूमत और उनके समर्थकों को गहरी तकलीफ़ होती है.
‘इतिहास क्या है ? …वह इतिहासकार और तथ्यों के बीच निरंतर चलनेवाली निरंतर प्रक्रिया है, एक समााप्त न होने वाला संवाद जो वर्तमान और अतीत के बीच जारी रहता है.’
प्रख्यात ब्रिटिश इतिहासकार ईएच कार (1892-1982), जो मशहूर रहे हैं सोवियत यूनियन के इतिहास पर 14 खंडों में लिखी अपनी किताब ‘ए हिस्ट्री आफ सोवियत यूनियन’ के लिए, उन्होंने इतिहास की समझदारी को अपने अंदाज़ में प्रस्तुत किया था.
निस्संदेह, ऐसे लोगों, समूहों के लिए जिनकी समझदारी का प्रस्थान बिंदु ‘हम’ आर ‘वे’ की समझदारी के इर्द-गिर्द घूमता है, अतीत के साथ जारी यह अंतःक्रिया अक्सर बेहद बुरे किस्म के एकालाप में तब्दील हो जाती है, जहां कुल मिलाकर उसका असर वर्तमान में लोगों के मन मस्तिष्क को विषाक्त करने, पूर्वाग्रहों से लैस करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जहां फिर वह न अतीत से सही सबक निकाल सकते हैं और न ही उसके जरिये भविष्य का रास्ता तलाश सकते है.
जियानवादियों, इस्लामिस्ट की तरह हिंदुत्व वर्चस्ववादी भी इससे अलग नहीं हैं. ऐसी तमाम मिसालें आए दिन मिलती हैं, जो बताती हैं कि उनके इस संकीर्ण चिंतन ने उन्हें हास्यास्पद नतीजों तक पहुंचाया है.
मिसाल के तौर पर हम याद कर सकते हैं कि कुछ साल पहले उन्होंने एक सूबे की पाठ्यपुस्तकों में यह बात दर्ज करने में सफलता पाई थी कि ऐतिहासिक हल्दीघाटी की लड़ाई (1576) जो मुगल सम्राट अकबर तथा मेवाड़ के राजा राणा प्रताप की फौजों के बीच लड़ी गई थी, उसमें अकबर की सेनाओं ने नहीं बल्कि राणा प्रताप के लड़ाकों ने जीत हासिल की थी– जबकि ऐतिहासिक तथ्य इसमें अकबर की सेनाओं की जीत उपलब्ध तथ्यों के आधार पर दर्ज करते आए हैं.
या आप ने विगत कुछ सालों से जोर पकड़े उनके इन प्रयासों को भी देखा होगा जहां ऐसे ही संकीर्णमना लोगों की पूरी कोशिश ऐतिहासिक ताजमहल- जो मुगल सम्राट शाहजहां (1592-1666) द्वारा अपनी पत्नी मुमताजमहल के लिए बनाया गया मक़बरा है, उसे ‘तेजो महालय’ अर्थात शिव का मंदिर साबित करने की रही है, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मिली फटकार से भी संतुष्टि नहीं मिली है.
याद रहे अपने अतीत को एकांगी निगाह से देखनेवाले इन लोगां ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका डाली थी, जिस अदालत ने एक तरह से मज़ाक उड़ाने के अंदाज में खारिज किया गया था, जिसमें अदालत ने कहा था कि किसी के ‘कार के बोनट में मक्खी पहुंची है और इसलिए यह याचिका’ Somebody has a bee in his bonnet, hence this petition.’
और अब फिलवक्त़ इतिहास के साथ जारी यह अलग किस्म की हिंसा सम्राट अशोक महान (ईसापूर्व 303 से ईसापूर्व 232 तक) के संदर्भ में उरूज पर है, जहां हिंदुत्व दक्षिणपंथ की तरफ से उनको नायक नहीं खलनायक के तौर पर पेश किया जा रहा है, एक ऐसे मुगल बादशाह के साथ उनकी तुलना की जा रही है– जिसकी अपनी छवि को पहले ही सुनियोजित तरीके से बिगाड़ा जा चुका है- जो एक तरह से धार्मिक कट्टरता और क्रूरता का प्रतीक बना दिया गया है.
अशोक महान, जो मौर्य साम्राज्य के आखरी बड़े शासकों में गिने जाते है, लेकिन इतिहास अशोक को उसके साम्राज्य की व्याप्ति के लिए नही याद करता बल्कि इसलिए याद करता है कलिंग युद्ध के बाद- जिस पर अशोक की सेनाओं ने आक्रमण किया था- जो जबरदस्त हिंसा हुई, जिसमें डेढ़ लाख से अधिक लोग मारे गए, उसके बाद अशोक को इस समूचे हिंसाचार का जबरदस्त पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने अपना शेष जीवन ‘धम्म’ के जरिये अर्थात नैतिक जीवन के सिद्धांतों के आधार पर लोगों को ‘जीतने’ में इस्तेमाल किया.
वह दुनिया के ऐसे शासकों में अग्रणी माने जााते हैं जिन्होंने अस्पतालों के निर्माण, सड़कों के किनारे पेड़ लगाना, कुएं खुदवाना तथा टिकने के ठिकाने बनाना आदि सार्वजनिक उपयोग के कामों का राज्य की तरफ से शुरू किया; जिनकी सार्वजनिक तर्कशीलता के प्रति प्रतिबद्धता जबरदस्त थी आर ईसापूर्व दो सौ साल पहले उन्होंने दुनिया की पहली आम सभाएं बुलाईं, जिन्हें शेष दुनिया भी महान सम्राटों की फेहरिस्त में शुमार करती है, वह खलनायक के तौर पर पेश किए जा रहे हैं.
इस मामले में रिटायर्ड नौकरशाह दयाप्रकाश सिन्हा, जो लेखक तथा नाटककार भी हैं, और जिनकी केसरिया समूह से नजदीकी खुला रहस्य है, उनके विवादास्पद बयान सुर्खियों में हैं.
जनाब सिन्हा, जो भाजपा के सांस्कृतिक सेल के राष्ट्रीय संयोजक भी हैं और इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशंस (आईसीसीआर) के उपाध्यक्ष भी हैं तथा जिन्हें अपने नाटक सम्राट अशोक के लिए पिछले साल ही साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है-जिस किताब के विमोचन के लिए बाकायदा एक केंद्रीय मंत्री पहुंचे थे- और जो इस साल (2021) पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके हैं, उनका सम्राट अशोक कोे लेकर साक्षात्कार वायरल हो चुका है.
उपरोक्त साक्षात्कार में- जिसे एक राष्ट्रीय अख़बार में जगह मिली है- सिन्हा अशोक महान का सिलसिलेवार खंडन करने का प्रयास करते दिखते हैं. अपनी प्रस्तुति में वह सम्राट अशोक की तुलना क्रूरता के मामले में मुगल बादशाह औरंगजेब से करते हैं.
यह साक्षात्कार कलिंग युद्ध के पहले के अशोक के जीवन पर केंद्रित करता है तथा उनकी जिंदगी के सही गलत किस्सों को जोड़कर उन्हें एक ऐसे शासक के तौर पर पेश करता है, जिन्होंने अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न किया, यहां तक कि अपने कई आत्मीयजनों को मार डाला.
दयाप्रकाश सिन्हा के विवादास्पद उद्गारों को लेकर न भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व और न ही उनके मात्र संगठन की तरफ से कोई आपत्ति दर्ज की गई और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह साफ किया गया कि दयाप्रकाश सिन्हा के विचार उनके अपने नहीं है, वह महज व्यापक परिवार के नज़रिये को ही प्रगट कर रहे हैं.
मुश्किल तब पेश हुई जब सम्राट अशोक के इस प्रगट अपमान को लेकर बिहार की राजनीति में उबाल आया और संघ-भाजपा को बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करना पड़ा. दरअसल जनता दल (यू), जिसके साथ भाजपा बिहार में सत्ता में साझेदारी कर रही है- उसने साफ किया कि बिहार के पाटलिपुत्र से शासन करनेवाले सम्राट अशोक की यह बदनामी हिंदुत्ववादी संगठनों की तरफ से ही की जा रही है.
और फिर बिहार के अन्य कई राजनीतिक दलों ने भी जनता दल (यू) का इस मामले में साथ दिया. राजद भी खुलकर समर्थन में उतरा. मांग उठी कि सिन्हा से न केवल पद्मश्री वापस ली जाए, साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी छीन लिया जाए तथा उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए जाएं.
अपना राजनीतिक नफा-नुकसान देखते हुए भाजपा को पहल लेनी पड़ी और बिहार के एक अग्रणी भाजपा नेता ने न केवल सिन्हा के संघ-भाजपा के साथ किसी रिश्ते से इनकार किया और पुलिस स्टेशन जाकर उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए.
भारतीय दंड विधान की धारा 195 ए /(किसी की धार्मिक आस्था पर चोट), धारा 505 (2) (ऐसे वक्तव्य देना जिससे सार्वजनिक शांतिभंग हो) और धारा 506 (आपराधिक आतंक) आदि धाराओं के तहत दर्ज मुकदमे के तहत अगर अदालती कार्रवाई आगे बढ़ेगी तो उन्हें कम से कम पांच साल तक जेल में रहना पड़ सकता है.
वैसे इस मसले पर फिलवक्त संघ या भाजपा जो भी प्रलाप करे, इस बात के तमाम प्रमाण उपलब्ध हैं कि उनका चिंतन किस प्रकार का है.
जानकार बता सकते हैं कि अशोक के प्रति यह नज़रिया संघ परिवार के चिंतन का हिस्सा है. जनाब माधव सदाशिव गोलवलक- जो संघ के दूसरे सुप्रीमो रहे हैं, ने महात्मा बुद्ध या बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव को लेकर किस तरह नकारात्मक किस्म की बातें अपने आलेखों में लिखी है, उसके पर्याप्त उदाहरण मौजूद हैं.
वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार कुलदीप कुमार ने अपने हालिया आलेख में गोलवलकर की किताब के अंश को बाकायदा उद्धृत किया है:
‘बुद्ध के पश्चात यहां उनके अनुयायी पतित हो गए. उन्होंने इस देश की युगों प्राचीन परंपराओं का उन्मूलन आरंभ कर दिया. हमारे समाज में पोषित महान सांस्कतिक सद्गुणों का विनाश किया जाने लगा. अतीत के साथ के संबंध-सूत्रों को भंग कर दिया गया. धर्म की दुर्गति हो गई. संपूर्ण समाज-व्यवस्था छिन्न-विच्छिन्न की जाने लगी.
राष्ट्र एवं उसके दाय के प्रति श्रद्धा इतने निम्न तल तक पहुंच गई कि धर्मांध बौद्धों ने बुद्ध धर्म का चेहरा लगाए हुए विदेशी आक्रांताओं को आमंत्रित किया तथा उनकी सहायता की. बौद्ध पंथ अपने मातृ समाज तथा मातृ धर्म के प्रति द्रोही बन गया.’
लाजिम है कि बुद्ध या बौद्ध धर्म के प्रति यह गुस्सा सम्राट अशोक पर अधिक केंद्रित होता है क्योंकि कलिंग युद्ध के बाद जिस तरह उन्होंने ‘धम्म’ के आधार पर सबको साथ लेकर चलने की बात की और जिस तरह बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन दिया, वह इतिहास में दर्ज है.
कहां तो चाहिए था कि प्राचीन भारत के इतिहास पर गर्व करने की बात करने वाले हिंदुत्ववादी सम्राट अशोक का नाम भी फख्र के साथ लेते, दक्षिण एशिया के इस भूभाग पर ज्ञात इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य कायम करने वाले सम्राट अशोक की तारीफ में कसीदे पढ़ते (बकौल नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन- भारत के अब तक के इतिहास में सम्राट अशोक के बाद सम्राट अकबर का नाम आता है, जिनका साम्राज्य भी काफी विशाल था) लेकिन अपनी किताबों, प्रकाशनों में अशोक की बदनामी की संगठित मुहिम यहां कहां देखी जा सकती है.
राजस्थान से प्रकाशित संघ परिवार द्वारा समर्थित एक पत्रिका में छपे इस दावे पर गौर करिए ‘अशोक द्वारा बौद्ध धर्म का स्वीकार और उसके द्वारा अहिंसा को बढ़ावा दिए जाने के बाद भारतीय सीमाएं विदेशी आक्रांताओं के लिए गोया खुल गई.’
आलेख में यह आरोप भी लगाए गए थे ‘जिसमें कहा गया था कि अशोक के तहत बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने ग्रीक आक्रांताओं की मदद की थी तथा देशद्रोही भूमिका अदा की थी, दरअसल उन्हें यह लग रहा था कि इससे ‘वैदिक धर्म’ की तबााही होगी और बौद्ध धर्म को फैलने का अवसर मिल जाएगा.’
हाल के समयों में ऐसे पॉपुलर लेखक भी सामने आए हैं, जिन्होंने भारतीय इतिहास पर किताबें प्रकाशित की हैं, जो हिंदुत्व वर्चस्ववादी नज़रिये के साथ काफी सामंजस्य रखती दिखती हैं.
ऐसी ही श्रेणी में शुमार है एक किताब ‘द ओशन आफ चर्न: हाउ द इंडियन ओशन शेप्ड ह्यूमन हिस्ट्री (पेंगुइन प्रकाशन) जिसके लेखक हैं जनाब संजीव सान्याल- जो फिलवक्त भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के डिपार्टमेंट ऑफ इकोनोमिक अफेयर्स मे प्रमुख आर्थिक सलाहकार के तौर तैनात हैं. अपनी उपरोक्त किताब में वह भी ‘अशोक के महिमामंडन’ को प्रश्नांकित करते हैं.
दयाप्रकाश सिन्हा की तरह यह जनाब भी अशोक के ‘प्रारंभिक क्रूर और अलोकप्रिय शासन’ के बारे में बात करते हैं और ऐतिहासिक कलिंग युद्ध के बाद अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के स्वीकार के स्थापित तथ्य को भी प्रश्नांकित करते है.
किताब में वह यह दावा करते हैं कि ‘अशोक ने बौद्ध धर्म का स्वीकार कलिंग प्रसंग के दो साल पहले किया था.’ कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक के पश्चात्ताप का भी मज़ाक उड़ाते हुए वह यह भी लिखते हैं कि ‘बौद्ध धर्म का स्वीकार दरअसल युद्ध से उपजे पश्चात्ताप के कारण नहीं बल्कि उत्तराधिकार की राजनीति से जुड़ा था.’
जनाब संजीव के लिए अशोक द्वारा देश के विभिन्न इलाकों में मिले स्तूपों पर जो शिलालेख लिखवाए गए हैं, जिसमें धार्मिक सहिष्णुता की बात पर जोर है, वह एक तरह से अशोक की ‘राजनीतिक प्रचार की कोशिश है ताकि क्रूरता के अपने इतिहास को ढंका जा सके.’
इतना ही नहीं वह सम्राट अशोक की तुलना ‘आधुनिक युग के उन मूलवादियों से करने में संकोच नहीं करते, जो धर्म के अपमान की दुहाई देते हुए कार्टूनिस्टों को भी मार देते हैं.’
गौरतलब है कि संजीव सान्याल के विवादास्पद दृष्टिकोणों पर- जो बहुसंख्यकवादी पूर्वाग्रहों को खाद पानी देते हैं- इतिहास के गंभीर अध्येताओं की निगाह गई है, जिसमें इस तथ्य को नोट किया गया है कि किस तरह वह ऐतिहासिक अनुसंधान की बुनियादी प्रणालियों के बारे में भी अनभिज्ञ हैं और इतिहास के पुनर्लेखन के बड़े-बड़े दावों के बावजूद वह कभी इतिहास के प्राइमरी स्रोतों पर गौर नहीं करते हैं और अपनी दलीलों को लोकप्रिय इतिहास और अख़बीरी लेखनों के प्रमाणों के जरिये पुष्ट करते हैं.’
स्पष्ट है कि केंद्र में सत्तासीन हिंदुत्व वर्चस्ववादी हुकूमत और समाज के मुखर हिस्से में इस नज़रिये की बढ़ती स्वीकार्यता के चलते, सम्राट अशोक जैसे भारत के गौरवशाली इतिहास के एक कर्णधार की बदनामी का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा.
सम्राट अशोक ने जिस भारत का तसव्वुर किया था, सब निवासियों के मिल-जुलकर रहने की, प्रगति करने की बात की थी उससे उनकी गहरी बेआरामी होती है.
मिसाल के तौर पर हम राम पुनियानी किताब को पढ़ें, जिसमें वह बारहवें स्तूप Rock Edict XII के आलेख की बात करते हैं, जो आज भी किसी भी सभ्य समाज के लिए मौजूं लगता है. वह एक तरह से धार्मिक सहिष्णुता और सार्वजनिक जीवन में सभ्य व्यवहार पर जोर देता है.
‘बातचीत में संयम’, ‘अपने धर्म की प्रशंसा न करना और न ही बिना वजह दूसरे के धर्म की निंदा न करने’ की बात करता है .. ‘धर्मों के बीच आपसी संपर्क, संवाद’ की आवश्यकता पर भी वह बल देता है. [Sunil Khilnani, Incarnations; India in 50 Lives, page 52]
वे सभी लोग, समूह, संगठन भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, जिन्होंने हक़ीकत में धार्मिक अल्पसंख्यकों को हर जगह बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर किया है और जो इसी हिसाब से संविधान को भी तब्दील करना चाहते हैं, क्या उनसे कभी उम्मीद की जा सकती है कि सम्राट अशोक के जीवन के वास्तविक मर्म को समझेंगे.
निश्चित ही ऐसे संकीर्णमना लोग जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन से दूरी बनाए रखी उन्हें निश्चित ही यह बात हजम नहीं होगी कि न्याय और अहिंसा के अशोक के सिद्धांतों ने आज़ादी के गांधी-नेहरू जैसे रहनुमाओं को प्रेरित किया था.
यह अकारण नहीं कि सम्राट अशोक, जो सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलतावाद के हामी थे, उनके प्रतीक चार शेरों की तस्वीरें भारतीय मुद्रा पर अंकित है और उनका चक्र भारतीय तिरंगे के केंद्र में है.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)