सार्वजनिक निवेश के बल पर टिकी विकास की रणनीति को वैश्विक मुद्रास्फीति से ख़तरा है

आम बजट में इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए आवंटन को 35 फीसदी बढ़ाते हुए उम्मीद की गई है कि राज्य सरकारें पीएम गति शक्ति परियोजना, जिसका मकसद नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन के तहत चिह्नित नए इंफ्रा प्रोजेक्ट्स हेतु फंड जुटाने के लिए सरकारी परिसंपत्तियों का मौद्रिकरण है, के तहत फंडिंग में योगदान करेंगी. पर सवाल है कि सरकार द्वारा सार्वजनिक निवेश में इज़ाफ़ा किस हद तक निजी निवेशक को प्रोत्साहित कर पाएगा?

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

आम बजट में इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए आवंटन को 35 फीसदी बढ़ाते हुए उम्मीद की गई है कि राज्य सरकारें पीएम गति शक्ति परियोजना, जिसका मकसद नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन के तहत चिह्नित नए इंफ्रा प्रोजेक्ट्स हेतु फंड जुटाने के लिए सरकारी परिसंपत्तियों का मौद्रिकरण है, के तहत फंडिंग में योगदान करेंगी. पर सवाल है कि सरकार द्वारा सार्वजनिक निवेश में इज़ाफ़ा किस हद तक निजी निवेशक को प्रोत्साहित कर पाएगा?

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट को पिछले आठ वर्षों से ठहर से गए निजी क्षेत्र के निवेश में तेजी लाने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आखिरी कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है.

प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी का कार्यकाल लगभग एक दशक पूरा करने की ओर बढ़ रहा है. उन्हें यह चिंता अवश्य सता रही होगी कि आय, निजी निवेश, रोजगार, बचत ओर पूंजी निर्माण जैसे विभिन्न अहम पैमानों पर निराशाजनक वृद्धि को उनकी विरासत के तौर पर लिए याद किया जाएगा. 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत होने के बाद से इन मोर्चों पर किसी भी प्रधानमंत्री का रिपोर्ट कार्ड इतना फीका नहीं रहा है.

ज्यादा राजस्व संग्रह और सरकार के परिसंपत्ति मौद्रिकरण (एसेट मॉनेटाइजेशन) कार्यक्रम के बल पर नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनईपी) कार्यक्रम के तहत बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश में बड़ी वृद्धि करना इस बजट का मुख्य लक्ष्य है.

नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन प्रोग्राम के तहत कुछ खास परियोजनाओं की पहचान की गई है, जिनमें 5 सालों तक प्रतिवर्ष 20 लाख करोड़ रुपये का निवेश किया जाना है. निर्मला सीतारमण ने सरकार द्वारा विशाल पूंजी निवेश के द्वारा ‘निजी निवेश को प्रोत्साहित करने’ की जो बात की, उसका सार यही है.

यह विकास और रोजगार की बंद पड़ी गाड़ी को आगे बढ़ाने की केंद्रीय रणनीति है. लेकिन क्या यह कामयाब होगी?

इस बजट में बुनियादी ढांचे (इंफ्रास्ट्रक्चर) के लिए आवंटन को 35 फीसदी की बढ़ाते हुए इसे 2022-23 के लिए 7.5 लाख करोड़ कर दिया गया है. यह उम्मीद की गई है कि राज्य सरकारें पीएम गति शक्ति परियोजना, जिसका मकसद एनईपी के तहत चिह्नित नए इंफ्रा प्रोजेक्ट्स हेतु फंड जुटाने के लिए सरकारी परिसंपत्तियों का मौद्रिकरण करना है, के तहत इंफ्रास्ट्रक्चर फंडिंग में अपने हिस्से का योगदान करेंगी. लेकिन सवाल उठता है कि सरकार द्वारा सार्वजनिक निवेश में बड़ा इजाफा किस हद तक निजी निवेशक को प्रोत्साहित कर पाएगा?

बढ़ रही वैश्विक मुद्रास्फीति, जो तीस सालों के सर्वाधिक स्तर पर है, और विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा तरलता (लिक्विडिटी) में कमी लाने और 2023 में ब्याज दरों को तेजी से बढ़ाने की पहल, इस रणनीति की राह में सर्वप्रमुख जोखिम है.

अमेरिकी फेडरल रिजर्व मुद्रास्फीति से मुकाबला करने के लिए ब्याज दरों को तीन से चार गुना तक बढ़ाने के लिए तैयार है. इस कदम का सबसे ज्यादा नकारात्मक असर विकास और रोजगार पर पड़ सकता है. भारत इस व्यापक वैश्विक रुझान से अलग-थलग नहीं रह सकता है और फिलहाल सरकार बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में निवेश बढ़ाकर जीडीपी और रोजगार बढ़ाने का जो अनुमान लगा रही है, उस पर वैश्विक तरलता की स्थिति और मुद्रास्फीति का प्रभाव पड़ना तय है.

यह ध्यान में रखना चाहिए कि बुनियादी ढांचे के लिए चिह्नित 20 लाख करोड़ रुपये का सिर्फ आधा हिस्सा केंद्र और राज्य सरकारों से आना है. बाकी पैसा निजी क्षेत्र से आना है, जिसका प्रमुख स्रोत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश होगा.

भारत को अपने नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन के लिए पैसे जुटाने के लिए दीर्घावधिक पेंशन फंडों और संप्रभु (सोवेरेन) फंड से प्रति वर्ष करीब 100 अरब डॉलर की जरूरत पड़ सकती है. एक बेहद ऊंचे स्तर पर वाली वैश्विक मुद्रास्फीति वाले वर्ष में जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व अपनी ब्याज दरों को बढ़ा रहा होगा और इसके साथ ही अपने बॉन्ड खरीद कार्यक्रम को समाप्त करने की गति को तेज कर रहा होगा, इस पैमाने पर विदेशी पूंजी का इंतजाम कर पाना टेढ़ी खीर होगा.

वर्ष 2020 और 2021 भारतीय कंपनियों के लिए काफी सुनहरे रहे, जिन्होंने काफी सस्ते में अरबों डॉलर का इंतजाम कर लिया. इसके पीछे केंद्रीय बैंकों द्वारा महामारी से निपटने की रणनीति के तौर पर बाजार में अभूतपूर्व मात्रा में तरलता डालने का हाथ रहा. व्यावहारिक तौर पर यह तरलता महोत्सव अब समाप्त हो गया है.

मिसाल के लिए, किसी को यह पक्के तौर पर नहीं पता है कि आखिर किस हद तक वैश्विक पेंशन फंड भारत के परिसंपत्ति कार्यक्रम में भागीदारी करेंगे, जिस पर बुनियादी ढांचे की नई परियोजनाओं के लिए पैसे का इंतजाम करने का दारोमदार है.

बजट की दूसरी कमजोरी यह है कि यह राजस्व के लिए काफी बड़ी मात्रा में तेल पर लगाए जाने वाले कर पर निर्भर है. पिछले साल सरकार ने लोकसभा को बताया था कि हाल के वर्षों में पेट्रोल और डीजल पर लगे टैक्सों से वार्षिक राजस्व संग्रह में 300 फीसदी का इजाफा हुआ है.

अगर कई विशेषज्ञों के पूर्वानुमान के हिसाब से तेल की वैश्विक कीमतें 120-130 डॉलर को छू लेती है, तो सरकार को घरेलू बाजार में पेट्रोल ऑर डीजल की कीमतों को आसमान छूने से बचाने के लिए तेल पर लगाए गए कर को कम करने पर मजबूर होना पड़ सकता है. इसके अलावा, 2024 के नजदीक आने के साथ-साथ इसमें और वृद्धि राजनीतिक तौर पर नुकसानदेह हो सकता है. सरकार के राजस्व अनुमानों को लेकर यह एक और बड़ा खतरा है.

तेल और सामानों की बढ़ रही कीमतों का चक्र बजट के सभी मुख्य आंकड़ों को धराशायी कर सकता है. मुद्रास्फीति में हर चीज पर ग्रहण लगा देने की क्षमता है. मिसाल के लिए बजट में बेहद तीव्र वैश्विक मुद्रास्फीति वाले वर्ष में नॉमिनल जीडीपी वृद्धि के 11 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है. अगर मुद्रास्फीति (यहां इसकी भूमिका जीडीपी को कम करने वाले की है) 7-8 फीसदी के आसपास रहती है, जिसकी काफी संभावना है, तो वास्तविक जीडीपी फिसलकर 3-4 फीसदी रह जाएगी.

वित्त सचिव को यह उम्मीद है कि जीडीपी को कम करने वाली मुद्रास्फीति 2022-23 में इतनी ज्यादा नहीं रहेगी. लेकिन यह सिर्फ एक उम्मीद ही है!

सबसे अंत में, ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने वृद्धि और रोजगार को ऊपर उठाने की सारी उम्मीदें इंफ्रास्ट्रचर में निवेश पर टिका दी हैं. वैश्विक महामारी के बाद अर्थव्यवस्था बुरी तरह से कराह रही है और सर्वे दर सर्वे सबसे नीचे की 80 फीसदी आबादी की आय में गिरावट को दिखा रहे हैं. यहां तक कि बाजार के पैरोकार अर्थशास्त्री भी खुल कर इस बात को स्वीकार कर रहे हैं.

सिटी ग्रुप के मुख्य अर्थशास्त्री समीरन चक्रवर्ती ने कहा कि भारत का शीर्ष फीसदी उन्नति के चक्र में शामिल है, जबकि बाकी 80 फीसदी एक दुष्चक्र में फंसा हुआ है. यह बजट इस अंतर्विरोध का समाधान करने की कोई कोशिश नहीं करता है.

वैश्विक महामारी से बुरी तरह से आहत सबसे नीचे के 80 फीसदी लोगों की तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए इस बजट में कुछ भी नहीं है. यह बजट इस आशा पर टिका है कि बुनियादी ढांचे पर बड़ा निवेश अर्थव्यवस्था के बाकी सभी क्षेत्रों की गाड़ी चल निकलेगी.

वित्त मंत्री ने भारत के 25 साल के ‘अमृत काल’ में होने की बात की. ज्यादा अहम सवाल यह है कि क्या बूंद-बूंद कर मिलने वाला यह अमृत देश के गरीबों की जान बचा पाएगा?

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