प्रासंगिक: भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागिता के चलते गिरफ़्तार की गईं कस्तूरबा ने हिरासत में दो बार हृदयाघात झेला और कई माह बिस्तर पर पड़े रहने के बाद 22 फरवरी 1944 को उनका निधन हो गया. सुभाष चंद्र बोस ने इस ‘निर्मम हत्या के लिए’ ब्रिटिश सरकार को ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि ‘कस्तूरबा एक शहीद की मौत मरी हैं.’
बर्तानवी उपनिवेशवाद की ज्यादतियों को लेकर जब जब चर्चा खड़ी होती है, उस वक्त़ हिरासत में हुई एक मौत को लेकर आम तौर पर बात नहीं होती या कम से कम इस मौत को इस तरह देखा नहीं जाता. बात कर रहे हैं 22 फरवरी 1944 को बर्तानवी हुकूमत की हिरासत में हुए कस्तूरबा गांधी के इंतकाल की.
इतिहास इस बात का गवाह है कि उपनिवेशवादी हुक्मरानों के बेहद क्रूर और निर्मम रवैये ने इस मौत को करीब ला खड़ा किया था क्योंकि उनके गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने कस्तूरबा को रिहा करने से मना किया था. उन्हें हिरासत में दो बार दिल का दौरा पड़ा था और इसके चलते वह चार माह तक बिस्तर तक ही सीमित रहीं.
मालूम हो कि कस्तूरबा को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में अपनी सहभागिता के चलते गिरफ्तार किया गया था. जैसा कि सभी जानते हैं ब्रिटिशों के खिलाफ खड़े इस उग्र जनांदोलन में हजारों लोग गिरफ्तार हुए थे, तमाम लोग मारे गए थे, कई स्थानों पर जनाक्रोश को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार को बाकायदा हेलिकॉप्टरों से गोली चलानी पड़ी थी.
गौरतलब है कि उनकी इस मौत को लेकर देश-दुनिया के अखबारों- पत्रिकाओं में बयान छपे; तमाम अग्रणियों ने उनके जीवन और संघर्ष को याद किया.
लेकिन एक श्रद्धांजलि जिसे याद करना अब भी जरूरी है वह थी आज़ाद हिंद फौज के संस्थापक सुभाषचंद्र बोस की श्रद्धांजलि, क्योंकि मौजूदा हुकूमत इस कोशिश में बेहद गंभीरता से मुब्तिला है कि उन्हें अपने में समाहित किया जाए.
कस्तूरबा को दी अपनी श्रद्धांजलि में बोस ने कहा कि ‘कस्तूरबा एक शहीद की मौत मरी हैं.’ और उन्होंने इस ‘निर्मम हत्या के लिए’ ब्रिटिश सरकार को जिम्मेदार ठहराया. उनके लफ्ज़ थे:
‘इन पशुओं के लिए मैं केवल अपनी घृणा व्यक्त कर सकता हूं जो दावा तो आजादी, न्याय और नैतिकता का करते हैं लेकिन असल में ऐसी निर्मम हत्या के दोषी हैं. वे हिंदुस्तानियों को समझ नहीं पाए हैं….अंग्रेजों ने… गांधीजी को एक सामान्य अपराधी की तरह जेल में ठूंस दिया. वे और उनकी महान पत्नी जेल में मर जाने को तैयार थे लेकिन एक परतंत्र देश में जेल से बाहर आने को तैयार नहीं थे. अंग्रेजों ने यह तय कर लिया था कि कस्तूरबा जेल में अपने पति की आंखों के सामने हृदयरोग से दम तोड़ें. उनकी यह अपराधियों जैसी इच्छा पूरी हुई है, यह मौत हत्या से कम नहीं है.’
उन्होंने आगे बताया,
‘… इस महान महिला को जो हिंदुस्तानियों के लिए मां की तरह थी, मैं अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं और इस शोक की घड़ी में मैं गांधीजी के प्रति अपनी गहरी संवेदना व्यक्त करता हूं… कस्तूरबा हिंदुस्तान की उन लाखों बेटियों के लिए एक प्रेरणास्रोत थीं जिनके साथ वे रहती थीं और जिनसे वे अपनी मातृभूमि के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मिली थीं.
दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के बाद से ही वे अपने महान पति के साथ परीक्षाओं और कष्टों में शामिल थी और यह सामीप्य तीस साल तक चला. अनेक बार जेल जाने के कारण उनका स्वास्थ्य प्रभावित हुआ लेकिन अपने चौहत्तरवे वर्ष में भी उन्हें जेल जाने से जरा भी डर न लगा. महात्मा गांधी ने जब भी सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया, उस संघर्ष में कस्तूरबा पहली पंक्ति में उनके साथ खड़ी थीं हिंदुस्तान की बेटियों के लिए एक चमकते हुए उदाहरण के रूप में और हिंदुस्तान के बेटों के लिए एक चुनौती के रूप में कि वे भी हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई में अपनी बहनों से पीछे नहीं रहें.’ (नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, पेज 177-178, टेस्टामेंट ऑफ सुभाष बोस, पेज 69-70)
ब्रिटिश हिरासत में कस्तूरबा की मौत के इस अठहत्तरवें साल पर जब राष्ट्र कस्तूरबा को याद कर रहे हैं हमारे सामने उनके साठ से अधिक साला सार्वजनिक जीवन तथा निजी जीवन के तमाम पहलुओं पर नए सिरे से रौशनी डालना मौजूं लग रहा है.
स्वतंत्रता सेनानी, तमाम नागरिक कार्रवाइयों में तथा विरोध-प्रदर्शनों में शामिल रहीं तथा उसके लिए जेल की यात्रा की कस्तूरबा और दूसरी तरह अपने निजी जीवन में गांधी के साथ उन्होंने स्थापित किए विभिन्न आश्रमों के संचालन पर उनका फोकस आदि तमाम बातें बताई जा रही थी.
इनमें से पहला था डरबन के नजदीक फिनिक्स सेटलमेंट (1904), जो एक किस्म का सहकार्य के आधार पर संचालित ग्राम था जहां निवासी सभी कामों में साझा करते थे और अपना अनाज खुद उगाते थे. उनकी पहली गिरफ्तारी भी दक्षिण अफ्रीका में हुई जहां उन्होंने नस्लीय कानूनों के खिलाफ महिलाओं के जुलूस की अगुआई की थी. (1913)
उनकी पड़नाती बताती है कि किस तरह उनकी दादी लक्ष्मी- कस्तूरबा की सबसे छोटी बहू, उन्हें कस्तूरबा के बारे में बताया करती थीं कि जब वह 15 साल की उम्र में अपने पिता सी. राजगोपालाचारी के साथ सिलोन गई थीं (1927) और कस्तूरबा ने उनको अपने पास रखकर उनका खूब खयाल रखा था.
पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्षरत गुजरात के बोरसाड की महिलाओं को दिए उनके प्रेरणादायी भाषण के बारे में- जिन दिनों गांधी जेल में थे- हम पढ़ते हैं और यह भी पता चलता है कि इस भाषण के बाद उन्होंने आसपास के कई गांवों में जाकर महिलाओं के प्रति अपना नैतिक समर्थन भी जाहिर किया था.
उस वक्त़ उन्होंने जारी किया प्रेस वक्तव्य, जिसमें उनके बेटे देवदत्त गांधी ने उनकी सहायता की थी, भी पठनीय है:
जहां-जहां मैं गई, मैंने महिलाओं की छाती पर, सिर पर, पैरों पर पुलिस की लाठियों के निशान देखे… मुझे यह जानकर और पीड़ा हुई कि पुलिस ने बच्चों पर भी लाठियां चलाईं, महिलाओं के बाल खींचे, महिलाओं की छातियों पर मुक्के मारे और उन्हें गालियां दीं… यह मेरी जिंदगी का पहला मौका है कि मैंने गुजरात की महिलाओं पर हुई ज्यादतियों को देखा है. मैंने कहीं भी पुलिस द्वारा महिलाओं पर की गई ऐसी ज्यादती को देखा नहीं है. (पेज 371, रामचंद्र गुहा, ‘गांधी- द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया, पेंग्विन- रैंडम हाउस)
यह तो बिल्कुल माकूल था कि ब्रिटिश हिरासत में कस्तूरबा की मौत के बाद उनके सार्वजनिक जीवन की सेवाओं के मद्देनज़र उनके कुछ सहयोगियों ने ‘कस्तूरबा गांधी मेमोरियल फंड’ की स्थापना की, जिसमें उनका मकसद महिलाओं और लड़कियों के कल्याण पर केंद्रित करना था और इसके लिए उन्होंने फंड जुटाना भी शुरू किया.
दरअसल, जेल से अपनी रिहाई के बाद गांधी ने उसके लिए फंड भी जुटाए और उसके लिए चंद दिशानिर्देश भी तय किए. उस वक्त़ के वातावरण को देखते हुए फंड की स्थापना के प्रति जनता की बेहद सकारात्मक प्रतिक्रिया रही और देश के विभिन्न हिस्सों से उसके लिए चंदा और सहयोग जुटने लगा.
उन दिनों लोगों को यह बिल्कुल विचित्र सा लगा कि हिंदू संगठनवादियों को इस पूरे घटनाक्रम से बेचैनी हो रही थी और उन्होंने इसे गांधी को नीचा दिखाने और स्वतंत्रता संग्राम में कस्तूरबा की किसी भी किस्म की भूमिका से इनकार करने तथा उन्हें महज गृहिणी तक सीमित करने को प्रमाणित करने का बहाना बनाया.
विनायक दामोदर सावरकर, जो हिंदू महासभा के अग्रणी नेता थे, इस संदर्भ में आगे रहे. यह वही सावरकर थे जो अंडमान जेल से रिहा होने के लिए ब्रिटिशों के सामने तमाम दया याचिकाएं भेज चुके थे तथा जिसके चलते रिहा हुए थे, एक तरफ जब भारतीय जनता ‘भारत छोड़ो’ के नारों के तहत जनविद्रोह में मुब्तिला थी, गोलियां खा रही थीं, तब यही जनाब देश का दौरा करके ‘हिंदुओं का सैनिकीकरण करो, राष्ट्र का हिंदूकरण करो’ के नारे के तहत हिंदू युवाओं से आह्वान कर रहे थे कि वह ब्रिटिश सेना में भर्ती हों.
कहने के लिए इस दौरे का मकसद था युद्ध में ब्रिटिश कोशिशों की हिमायत करना और वास्तव में भारतीय जनता के बर्बर दमन में उनकी सहायता करना. गांधी के साथ उनकी बरसों से चली आ रही राजनीतिक अदावत से निपटने के अवसर के तौर पर उन्होंने इसे देखा था.
उन्होंने इस मौके पर बाकायदा प्रेस बयान जारी किया था: कांग्रेसी कस्तूरबा फंड में हिंदू संगठनवादियों को कतई सहायता नहीं करनी चाहिए. अपने बयान में उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष में शहीद नौजवानों पर गांधी की कथित चुप्पी पर सवाल उठाए थे. (पेज 745, वही)
जैसा कि स्पष्ट था कि गांधी के प्रति सावरकर की प्रचंड घृणा का ही वह संकेत था, जहां वह भारत के तेजी से बदलते राजनीतिक घटनाक्रम पर अपनी बढ़ती निराशा छिपा नहीं पा रहे थे, जहां उनकी छवि ब्रिटिशों के पिट्ठू की तरह दिख रही थी. शायद यही वजह थी कि कस्तूरबा के जीवन के वस्तुनिष्ठ आकलन- जैसा कि सुभाषचंद्र बोस ने किया, करने में भी वह असमर्थ दिख रहे थे.
यह विडंबनापूर्ण ही था कि सावरकर को गांधी की देशभक्ति पर सवाल उठाने से कोई गुरेज नहीं था जबकि वह और उनकी पार्टी हिंदू महासभा सिंध और बंगाल सूबे में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर साझा सरकार चला रही थी और उन्होंने सत्ता में इस साझेदारी की बेशर्मी के साथ हिमायत की थी. [VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya Hindu Rasthra Darshan (Collected works of VD Savarkar) Vol VI, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p 479-480]
सावरकर के तत्कालीन कनिष्ठ सहयोगी श्यामाप्रसाद मुखर्जी- जो उनके बाद हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने- इस मंत्रिमंडल में दूसरे स्थान पर ओहदा संभाले थे. मुमकिन है गांधी-कस्तूरबा को नीचा दिखाने की यह सावरकर की हरकत दरअसल कांग्रेस की तुलना में हिंदू संगठनवादियों को बढ़त दिलाने को लेकर हो.
दरअसल8 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के बाद कांग्रेस के राजनीतिक मंच से हटाए जाने के बाद सावरकर इस बात को मानते थे कि ‘राजनीतिक दायरा एक खुला संगठन होता है… एकमात्र हिंदू महासभा ही अब बची थी जो उसके दायरे में आने वाली ‘भारतीय राष्ट्रीय’ गतिविधियों का संचालन कर सकती थी. [VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya Hindu Rasthra Darshan (Collected works of VD Savarkar) Vol VI, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p 475]
सावरकर का तो यह भी दावा था कि इस तरह एकत्रित पैसा हिंदू मुस्लिम एकता के कांग्रेस के नारे में इस्तेमाल होगा जिसका उनकी पार्टी विरोध करती है और इस तरह मुस्लिम खजाने को मजबूत करेगा.
अपने नेता से गोया संकेत पाकर पुणे के उनके एक शिष्य एसएल करंदीकर कस्तूरबा को नीचा दिखाने की मुहिम में एक कदम आगे बढ़ते दिखे, जिन्होंने कहा कि कस्तूरबा की याद में लड़कियों और महिलाओं के लिए स्कूल खोलने की क्या जरूरत- जो खुद अधिक शिक्षित नहीं थीं और न ही स्त्री शिक्षा की कर्णधार थीं. इसके बरअक्स उन्होंने सुझाव दिया कि हिंदू नारीत्व की परंपरा को महिमामंडित करने के लिए एक मेमोरियल बनाया जाए क्योंकि ‘कस्तूरबा एक पारंपरिक हिंदू महिला थी, जिनकी एकमात्र खुशी थी अपने पति के जीवन का हिस्सा बने रहना. इसके परे कस्तूरबा की जीवन और मौत का कोई अर्थ नहीं है.’ (पेज 745, रामचंद्र गुहा, ‘गांधी- द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया, पेंग्विन- रैंडम हाउस)
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)