रूस पर अमेरिकी प्रतिबंध अगर दो तिमाही तक भी चलते हैं, तो मुद्रास्फीतिकारी ताक़तें नियंत्रण से बाहर चली जाएंगी. अगर वैश्विक निवेशक अमेरिकी ट्रेज़री बॉन्ड की सुरक्षा की ओर भागेंगे, तो रुपये की विनिमय दर में भी तेज़ गिरावट आएगी.
काफी बहस के बाद अमेरिका ने आखिरकार बड़ा फैसला लेते हुए कुछ प्रमुख रूसी बैंकों को स्विफ्ट (सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशन) मैसेजिंग सिस्टम से बाहर कर दिया. स्विफ्ट 200 से ज्यादा देशों के 11,000 से ज्यादा बैंकों को एक साझा लेनदेन सूचना प्लेटफॉर्म से जोड़ता है.
यह शायद आज तक के इतिहास में रूस पर लगाया गया सबसे कठोर आर्थिक प्रतिबंध है.
इस सिस्टम से बाहर निकाले जाने से इन प्रमुख बैंकों के सहारे किए जानेवाले रूस के अंतरराष्ट्रीय व्यापार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा. यह फैसला कुछ ऐसा ही जैसे एसबीआई, कैनरा बैंक, एचडीएफसी बैंक और आईसीआईसीआई बैंक को अचानक इस वैश्विक बैंकिंग सूचना प्रणाली से बाहर कर दिया जाए.
इन बड़े भारतीय बैंकों के पास बड़े और छोटे निर्यातकों को नियमित कर्ज समेत भारतीय बैंकों की लगभग 50 फीसदी परिसंपत्ति है.
ऐसा माना जाता है कि, 2012 में ईरान पर अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के बाद ईरान को अपने तेल और गैस निर्यात समेत अपने व्यापार का 30-40 फीसदी गंवाना पड़ा.
न्यूज रपटों के मुताबिक राष्ट्रपति जो बाइडन को हालिया पाबंदियां लगाने से पहले यूरोपीय संघ के कुछ प्रमुख देशों को मनाना पड़ा था. अपनी गैस की कुल जरूरत के तीस प्रतिशत से ज्यादा के लिए रूस पर निर्भर जर्मनी के लिए रूस से होने वाले गैस के निर्यात में आने वाली रुकावट को लेकर चिंतित होना लाजिमी था.
एक तरह से यह पुतिन का तुरुप का इक्का था, जिसमें लगाए जाने वाले प्रतिबंधों की प्रकृति को लेकर अमेरिका और यूरोपीय संघ को दोफाड़ करने की क्षमता था. गौरतलब है कि ऊर्जा के मामले में अमेरिका लगभग आत्मनिर्भर है.
हालांकि अमेरिका यूरोपीय संघ के साथ एक बीच का रास्ता निकालने में कामयाब रहा, जिसके तहत रूस को उसके ऊर्जा व्यापार को पूरी तरह से ठप किए बगैर पर्याप्त तरीके से सजा दी जानी थी.
प्रमुख रूसी बैंकों को स्विफ्ट सिस्टम से बाहर निकालने से बाजार हिचकोले खाएगा और तेल की कीमतें वर्तमान की बढ़ी हुई दरों से भी और ऊपर की ओर जाएंगी.
रूसी बैंको को स्विफ्ट से हटाए जाने की प्रतिक्रिया में कच्चा तेल बढ़कर 105 डॉलर हो चुका है और रूसी मुद्रा रूबल में अमेरिकी डॉलर की तुलना में 30 फीसदी गिरावट आयी है.
इससे पहले, वैश्विक तेल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी के कारण रूस ने अपने तेल/गैस निर्यात से कहीं ज्यादा कमाई की! इसलिए रूस से इसकी वसूली करना जरूरी था.
बड़े रूसी बैंकों को स्विफ्ट से बाहर निकालने से यह मकसद कुछ हद तक पूरा होगा और रूस के तेल राजस्व को अच्छा-खासा नुकसान होगा. रूस के कुल निर्यात में तेल, गैस और संबंधित उत्पाद का हिस्सा लगभग 50 प्रतिशत है. यह रूस की कुल जीडीपी का 35 फीसदी है.
पश्चिमी गठबंधन इस पर रणनीतिक तौर पर निशाना लगाना चाहेगा, लेकिन यह वैश्विक अर्थव्यवस्था पर इसके विपरीत नतीजों का भी आकलन कर रहा है.
हो सकता है कि पुतिन ने इसका पूर्वानुमान लगा लिया हो और चीन और अन्य साथी देशों, जिनकी संख्या अभी काफी कम है, के माध्यम से एक समानांतर व्यापार और बैंकिंग व्यवस्था का निर्माण कर लिया हो.
उत्तरी कोरिया के पास भी अपने खनिज संसाधनों का निर्यात करने के लिए ऐसी गुप्त व्यवसथा है. इस पर राजनीतिक अभिजन तबके का मजबूत नियंत्रण है.
पुतिन चीन की मदद से रूसी अर्थव्यवस्था का गैर-डॉलरीकरण भी कर रहे हैं. 2020 की वैश्विक महामारी के बाद इसने रफ्तार पकड़ी जब चीन और रूस के बीच 45 फीसदी के करीब व्यापार गैर-डॉलर मुद्रा में था.
चीन भी सचेत तरीके से कुछ देशों के साथ गैर-डॉलर व्यापार कर रहा है. कुछ साल पहले ब्रिक्स फोरम में भी बड़े लेन-देन को स्थानीय मुद्रा में करके आपसी व्यापार के एक अंश के गैर-डॉलरीकरण पर चर्चा हुई थी.
रूस ने पिछले साल अपने विदेशी मुद्रा भंडार के बड़े हिस्से को सोने में बदल लिया था. इस तरह से यह पहला देश बन गया जिसका स्वर्ण में आधिकारिक विदेशी मुद्रा भंडार, अमेरिकी डॉलर में विदेशी मुद्रा भंडार से ज्यादा था.
ज्यादातर बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अपने विदेशी मुद्रा भंडार का सर्वाधिक हिस्सा (50 फीसदी से ज्यादा) अमेरिकी डॉलर में रखती हैं. इसे सबसे सुरक्षित विकल्प के तौर पर देखा जाता है. अभी यह देखा जाना बाकी है कि रूस अपने ऊपर लगाए गए अनेक प्रतिबंधों के समग्र प्रभाव का मुकाबला करने के लिए कितना तैयार है?
रूस का स्टॉक बाजार 35 फीसदी गिर गया है, जो आने वाले संकट की एक आहट हो सकता है. राजनयिक हल न निकलने की सूरत में रूसी अर्थव्यवस्था को हुए कुल नुकसान के बारे में आने वाले महीनों में पता चलेगा.
रूस को बड़ी चोट पहुंचने की सूरत में ऊर्जा की बढ़ी हुई कीमतों की मार वैश्विक बाजार पर पड़ेगी. खाद्यान्न कीमतों में भी इजाफा हो सकता है, क्यांकि गेहूं के वैश्विक उत्पादन का 25 फीसदी हिस्सा यूक्रेन और रूस से आता है. इस क्षेत्र को यूरेशिया के रोटी के कटोरे के तौर पर देखा जाता है.
भारत के दृष्टिकोण से देखें, तो ऊर्जा और भोजन दोनों ही राजनीतिक अर्थव्यवस्था के संवेदनशील पहलू हैं. पहला बड़ा झटका उत्तर प्रदेश चुनावों के बाद आएगा, जब मोदी सरकार को घरेलू पेट्रोल और डीजल की कीमतों को अंतरराष्ट्रीय स्तर के हिसाब से समायोजित करने पर मजबूर होना पड़ेगा.
तेल की घरेलू कीमतों में आखिरी बार समायोजन 4 नवंबर को किया गया था जब कच्चे तेल की कीमत 75 डॉलर प्रति बैरल थी. तब से मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के चुनावों को ध्यान में रखते हुए घरेलू कीमतों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है.
उत्तर प्रदेश चुनावों के संपन्न हो जाने के बाद केंद्र सरकार को पेट्रोल और डीजल की घरेलू कीमतों को कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों के साथ समायोजित करने के लिए उसमें 33 फीसदी की वृद्धि करनी होगी या एक्साइज ड्यूटी को इस अनुपात में कम करना होगा.
उत्पाद शुल्क में कटौती सरकार के राजस्व संग्रह के अनुमानों को उलट-पलट कर रख देगी. रूस पर अमेरिकी प्रतिबंध अगर दो तिमाही तक भी चलते हैं, तो मुद्रास्फीतिकारी ताकतें नियंत्रण से बाहर चली जाएंगी. अगर वैश्विक निवेशक अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्डों की सुरक्षा की ओर भागेंगे, तो रुपये के विनिमय दर में भी तेज गिरावट आएगी.
इसके अलावा, वैश्विक वित्तीय बाजार के उठापटक पैसे का इंतजाम करने को भी मुश्किल बना देंगे. आरबीआई के एक पूर्व गर्वनर ने मुझसे कहा कि जब भी वैश्विक वित्तीय बाजार में भय और अनिश्चितता का माहैल बनता है, निवेशक अमेरिकी बॉन्डों की सुरक्षा में शरण लेते हैं.
विकासशील देशों के शेयर बाजारों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है. भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या भारत के विनिवेश या एसेट मॉनेटाइजेशन (परिसंपत्ति मौद्रीकरण) कार्यक्रम के लिए विदेशी भागीदारी इस साल कम रह सकती है.
आने वाली कुछ तिमाहियों में केंद्र सरकार ओर आरबीआई भोजन और ऊर्जा मुद्रास्फीति पर करीबी निगाह रखेगी. 2022-23 वित्तीय वर्ष ज्यादातर बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए महज संकट-प्रबंधन का साल बनकर रह सकता है.
राष्ट्रपति के अभिभाषण के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में महंगाई का कारण 1952 के कोरियाई युद्ध को बताने के लिए नेहरू का मजाक बनाया था. अगर आने वाले समय में मोदी भारत की आर्थिक मुसीबतों के लिए यूक्रेन युद्ध पर दोषारोपण करें, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी.
नेहरू जहां होंगे, इसे देखकर खुश हो सकेंगे.
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