अगर शिक्षा को हम ‘मन की किवाड़ों के खुलने’, सृजनात्मकता को नई उड़ान देने की प्रक्रिया के तौर पर देखें तो धर्म उसकी बिल्कुल विपरीत प्रक्रिया की मिसाल के तौर पर सामने आता है, जहां स्वतंत्र विचार को नकारने पर ही ज़ोर रहता है. और जब आप किसी पाठ्यक्रम में धार्मिक ग्रंथ का पढ़ना अनिवार्य कर देते हैं, तब एक तरह से शिक्षा के बुनियादी उद्देश्य को ही नकारते हैं.
‘सत्य की खोज के लिए निकला मनुष्य, जब अपनी खोज के दौरान थक गया, तो उसने मंदिर, मस्जिद, चर्च का निर्माण किया’
– मिर्जा ग़ालिब अपनी एक पर्शियन कविता में
केंद्रीय और राज्य सरकारों को स्कूली शिक्षा के बारे में सलाह और सहायता देने के लिए बनी एनसीईआरटी ने वर्ष 2018 में एक मैन्युअल का प्रकाशन किया था, जिसका फोकस था कि अल्पसंख्यक छात्रों की जरूरतों के लिए स्कूलों को किस तरह अधिक संवेदनशील बनाया जाए.
इसमें छोटी-छोटी बातों का भी जिक्र हुआ कि किस तरह स्कूलों के परिसरों में देवी-देवताओं की तस्वीरें लगाने से या स्कूल की असेंबली में प्रार्थनाओं को अंजाम देने से अल्पसंख्यक मतों, समुदायों के छात्रों को अलगाव का सामना करना पड़ सकता है, ऐसे समूहों के खिलाफ स्कूल के शिक्षकों, सहपाठियों आदि द्वारा किए जा रहे प्रगट/प्रच्छन्न भेदभावों से उनकी जिंदगी किस तरह अधिक पीड़ादायी हो सकती है और स्कूल प्रबंधनों को इसके बारे में क्या कदम उठाने चाहिए।
हाल के समय में पहले गुजरात और बाद में कर्नाटक सरकार द्वारा गीता- जो हिंदुओं का धार्मिक ग्रंथ है- को पाठ्यक्रम में शामिल करने के प्रस्तावों के आलोक में इस मैन्युअल को पलटते हुए यही बात अधिकाधिक स्पष्ट होती गई कि परिषद के सलाहों, सुझावों से हम कितना दूर चले आए हैं.
इस मसले पर कर्नाटक सरकार के शिक्षा मंत्री का बयान गौरतलब है, एक हिंदू ग्रंथ को ‘नैतिक विज्ञान’ के विषय में शामिल करने के कदम को उचित ठहराते हुए उन्होंने कहा कि युगों-युगों से- जबकि स्कूल और विश्वविद्यालय अनुपस्थित रहे हैं- रामायण, महाभारत और भगवद गीता जैसे ग्रंथों ने हमारे समाज को ‘सुसभ्य’ बनाने का काम किया है, इसी सिलसिले की यह अगली कड़ी है.
यह स्पष्ट है कि यह प्रस्ताव न केवल इतिहास की दोषपूर्ण या उलट समझदारी पर आधारित है क्योंकि वह इस बात पर टिका है कि ‘युगों- युगों’ से (since times immemorial) भारत एक हिंदू राज्य रहा है.
और इस तरह एक झटके में वह दक्षिण एशिया के इस भूभाग में यही पैदा हुए जैन, बौद्ध आजीविका और ऐसे अन्य मत संप्रदायों के लंबे इतिहास को खारिज करता है, इतना ही नही अपने यहां धार्मिक प्रताड़ना से पीड़ित होकर पहुंचे यहूदियों, पारसियों की मौजूदगी को यहां तक कि व्यापार के लिए या अपने मत प्रचार के लिए पहुंचे ईसाइयों, मुसलमानों की सदियों से बसी आबादी को और उसके स्पंदित जीवन को अदृश्य कर देता है.
लेकिन क्या उन राज्यों, साम्राज्यों को भी खारिज करना मुमकिन होगा, जिनकी स्थापना मुसलमान राजाओं ने की, यहां तक मध्ययुग का उस दौर का सबसे बड़ा साम्राज्य अकबर महान का था.
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इस बात को भी याद रखना चाहिए कि कर्नाटक सरकार का यह मनमाना निर्णय- जिसके लिए न किसी से पूछने की जहमत उठाई गई है, न किसी से सलाह-मशविरा किया गया है- चुनिंदा स्मृतिलोप (selective amnesia) का अच्छा उदाहरण है.
जाहिर है कि इस मौके पर न ही भाजपा का नेतृत्व और न ही उसके केंद्र एवं राज्य के अन्य अग्रणी इस मसले पर जबान खोलना चाहते हैं कि कुछ ही समय पहले जब कर्नाटक के शिक्षा संस्थानों में हिजाब पाबंदी के राज्य सरकार के विवादास्पद निर्णय की आलोचना हो रही थी तब अचानक भाजपा के ही कई अग्रणियों ने धर्म और शिक्षा के अलगीकरण की हिमायत की थी.
ध्यान रहे ताउम्र हिंदू राष्ट्र की हिमायत करने में जुटे रहे यह नेता किसी अलसुबह ‘धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार’ हो गए थे.
और आज जबकि स्कूली पाठ्यक्रम मे हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथ को शामिल करने को लेकर बहस तेज हो रही है- जो साफ-साफ धर्म एवं शिक्षा के घालमेल का उदाहरण है- इन सभी अग्रणियों ने मौन ओढ़ लिया है.
वैसे भाजपा के इन नेताओं और सरकार के संचालनकर्ताओं का यह स्मृतिलोप महज इस बात तक सीमित नहीं है कि किस तरह उनके ही सहयोगी धर्मनिरपेक्षता की भाषा बोल रहे थे, बल्कि वह मुख्यतः फैला हुआ है भारत के संविधान के उन विभिन्न प्रावधानों को लेकर, जिनके तहत राज्य समर्थित शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षा देने पर पूरी तरह पाबंदी लगाई गई है.
संविधान की धारा 28 (1) इस बात का खुलेआम ऐलान करती है कि ‘राज्य निधि से पोषित किसी शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी.’
निश्चित ही भाजपा सरकारों का स्मृतिलोप विभिन्न उच्च अदालतों द्वारा हाल में दिए उन फैसलों तक भी विस्तारित है, जिनमें धर्म और शिक्षा के अलगाव को बार-बार रेखांकित किया है.
इतना ही नहीं, इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत उस याचिका पर शुरू होनी बाकी है, जिसका फोकस देश के केंद्रीय विद्यालयों में प्रार्थना सभा में सरस्वती वंदना को पढ़ने से लेकर है, जिसमें कहा गया है कि यह प्रार्थना किस तरह संवैधानिक प्रावधानों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करती है.
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नैतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में गीता को लागू करना एक अन्य बुनियादी प्रश्न को उठाता है, जिसका ताल्लुक शिक्षा के उद्देश्य से है और इस पड़ताल से है कि पाठ्यक्रम में गीता को लाने से कहीं शिक्षा के उन उद्देश्यों पर कुठाराघात तो नहीं हो रहा है.
बकौल रवींद्रनाथ टैगोर शिक्षा का मकसद है ‘अज्ञान को दूर करना और ज्ञान की रोशनी में प्रवेश करना.’ जानकारों के मुताबिक, शिक्षा दरअसल सीखने की प्रक्रिया को और ‘ज्ञान, सूचना, मूल्य, मान्यताओं, आदतों, कुशलताओं’ को हासिल करने को सुगम करती हैं.
इसमें भी कहीं दोराय नहीं कि सीखने की प्रक्रिया शैशवावस्था से ही शुरू होती है, जहां शिशु अपने अनुभव से सीखने लगता है और वयस्क इस प्रक्रिया को किस तरह सुगम करते है, वह एक तरह से शिक्षा की दिशा में उसका पहला कदम होता है, जो बाद में औपचारिक रूप धारण करता है.
शिक्षा पाने के इस गतिविज्ञान पर वस्तुनिष्ठ ढंग से निगाह डालें तो पता चलेगा कि शिक्षा एक तरह से मन को आज़ाद करने, खोलने और अपनी सृजनात्मकता को उन्मुक्त करने का जरिया है. स्पष्ट है कि इसका कोई अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता, क्या अज्ञान को दूर करने का कोई अंतिम लक्ष्य हो भी सकता है भला.
अपने दौर के महान वैज्ञानिक एवं गणितज्ञ न्यूटन का वह कथन गौरतलब है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अभी तक जो ज्ञान मैंने हासिल किया है, वह समुद्र किनारे फैली बालू का एक कण मात्रा है, जबकि अभी किनारे फैली विशाल बालू की पड़ताल बाकी है.
ज्ञान हासिल करने की यह असीमितता ही एक तरह से धर्म के खिलाफ पड़ती है.
जहां शिक्षा किसी को अपनी आंखें खोलने के लिए प्रेरित करती है, अपने मन पर पड़ी बंदिशों को दूर करने के लिए सहायता पहुंचाती हैं और बिना किसी से डरे सोचने के लिए उत्साहित करती है, इसके बरअक्स धर्म और धार्मिक शिक्षाएं हमें ‘अंतिम सत्य के बारे में, ईश्वर की वरीयता जहां आप महज अपनी आंखें बंद करके, बिना किसी किस्म का सवाल उठाए महज दंडवत कर सकते हैं.’
अगर शिक्षा को हम ‘मन की किवाड़ों के खुलने’, अपनी सृजनात्मकता को नई उड़ान देने की प्रक्रिया के तौर पर देख सकते हैं तो धर्म उसकी बिल्कुल विपरीत प्रक्रिया की मिसाल के तौर पर सामने आता है, जहां मन की किवाड़े बंद रखने पर ही, स्वतंत्र विचार को नकारने पर ही जोर रहता है.
और जब आप किसी पाठ्यक्रम में धार्मिक ग्रंथ का पढ़ना अनिवार्य कर देते हैं, तब आप एक तरह से शिक्षा के बुनियादी उद्देश्य को ही नकारते हैं.
यहां एक बात को स्पष्ट करना जरूरी है कि एक धर्मनिरपेक्ष बल्कि बहुधर्मीय समाज में विशिष्ट धार्मिक ग्रंथ को- भले ही नैतिक विज्ञान के नाम पर पढ़ाया जाने लगे- तो इस प्रक्रिया को हम उस दूसरी प्रक्रिया के समानांतर नही रख सकते, जहां विभिन्न धर्मों की शिक्षाओं, उनके विकास को इतिहास या समाज विज्ञान के विषय में पढ़ाया जाने लगे.
अगर कोई यह कहने लगे कि हम किसी भी सूरत में धार्मिक ग्रंथों को शिक्षा संस्थानों में पहुंचने नहीं देंगे, तो यह एक किस्म का अतिवादी रुख होगा और जिसका नतीजा बालमन पर बेहद विपरीत भी हो सकता है क्योंकि वह धर्म जैसी सामाजिक परिघटना के उदय तथा उसक संस्थागत होते जाने और ईश्वर की बदलती अवधारणा के बारे में कभी भी जान नहीं सकेगा.
साथ ही, इस बात का एहसास भी नहीं कर सकेगा कि किस तरह आधुनिकता के आगमन ने- जिसके तहत एक स्वायत्त, स्वयंभू व्यक्ति का उदय हुआ, जो तर्कशीलता से लैस था- किस तरह धर्म की जड़ पर ही प्रहार किया, और 21 वीं सदी की तीसरी दहाई मे अब धर्म अधिकाधिक लोगों का निजी मामला बनता गया है और किसी भी बाहरी एजेंसी को व्यक्तिविशेष के चयन में कोई सलाह नही देनी चाहिए.
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अंततः गीता को पाठ्यक्रम में ‘नैतिक विज्ञान’ विषय के अंतर्गत शामिल करने के बहाने इस मसले पर भी बात चल पड़ी है कि क्या वाकई धर्म किसी को नैतिक बनाता है.
दरअसल इस मामले में एक व्यापक सहजबोध बना हुआ है, जो न किसी वस्तुनिष्ठ अध्ययन या सर्वेक्षण पर आधारित है. इस संदर्भ में जो भी सीमित सर्वेक्षण हुए है, उनके निष्कर्ष अधिक से अधिक अस्पष्ट कहे जा सकते हैं.
आस्थावानों के विशाल बहुमत में ईश्वर को न मानने वालों अर्थात नास्तिकों को संदेह की निगाह से देखा जाता है, जिनके बारे में यह समझा जाता है कि न उन्हें ईश्वर का डर रहता है और न ही पुनर्जन्म आदि की चिंता रहती है, जो उन्हें इस ऐहिक जीवन में सत्य एवं नैतिक आचरण के लिए प्रेरित करें या उन्हें ‘राह दिखाए.’
किसी व्यक्ति विशेष का नैतिक आचरण एक तरह से उसे क्या अच्छा, स्वीकार्य और क्या बुरा या अस्वीकार्य लगता है, इससे ताल्लुक रखता है. और नैतिकता की यह समझ समय और स्थान के साथ बदलती भी रहती है.
एक जमाने में किसी अन्यधर्मीय या अन्य संप्रदाय से घृणा करना नैतिकता में शुमार किया जाता हो, लेकिन आधुनिक समय में वह चीज़ बदलती दिखती है.
वैसे विभिन्न धर्मों के यह आस्थावान जो धर्म के नैतिक बनाने की हिमायत करते हैं, इस बात को आसानी से भूल जाते हैं कि प्राचीन समयों से ही धर्म और आस्था के नाम पर बड़े-बड़े जनसंहार होते आए हैं, धर्मविशेष की मान्यताओं से असहमति रखनेवालों को सरेआम जिंदा तक जलाया जाता रहा है, ‘अन्य’ समझे जाने वाले इन लोगों का ‘नस्लीय शुद्धिकरणों’ के जरिये सफाया किया जाता रहा है.
ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर लगभग दो सदियों तक ‘पवित्र भूमि’ पर अपने नियंत्राण को कायम रखने के लिए ईसाइयों और मुसलमानों के बीच जो क्रूसेडस/धर्मयुद्ध चले हैं, उनमें कितने लाखों लोग मारे गए या तबाह हुए उसकी गिनती भी हम नहीं जानते.
आधुनिक समय में भी धार्मिक/सांप्रदायिक दंगों/हिंसाचारों में कोई खास कमी नहीं आई है, अलग-अलग रूपों में आज भी वह जारी है. अगर धर्म विशेष किसी को वाकई नैतिक बनाता, सभी से प्यार से रहने के लिए प्रेरित करता, तो फिर ऐसे हिंसाचारों के लिए उसमें कहां जगह होती?
विद्वानों ने यह भी पाया है कि एक खास आस्था को मानने वाले लोग जो जहां समान आस्था के लोगों के साथ अधिक नैतिक आचरण पर जोर देंगे, उसी किस्म का व्यवहार वह अन्य आस्था को मानने वालों के साथ करें यह कोई जरूरी नहीं है.
धर्म के नैतिक बनाने की बात इस वजह से भी कमजोर बुनियाद पर टिकी मालूम पड़ती है क्योंकि रिसर्च में यह बात भी देखने में आई है कि नैतिक आचरण के प्रारंभिक तत्व कई जानवरों के बीच भी दिखाई देते हैं.
शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रमों में विद्यार्थियों को ‘नैतिक’ बनाने की दुहाई देते हुए धार्मिक ग्रंथों को शामिल करने के बेहद विपरीत परिणाम भी सामने आ सकते है.
कल्पना करें कि उपरोक्त धार्मिक ग्रंथ खास किस्म के उच्चनीच अनुक्रम को, अन्य के खिलाफ हिंसा को वैधता प्रदान करता है- जैसी बात हर धर्मग्रंथ में किसी न किसी रूप में मिलती है- तो क्या वह विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क को न केवल कलुषित करेंगी बल्कि धर्म को आलोचनात्मक नज़रिये से देखने के बजाय, वह भी उसे अंतिम सत्य मानकर ग्रहण करते रहेंगे.
क्या हम ऐसे ही भावी नागरिकों की फसल पैदा करना चाहेंगे, जो न केवल कूढमगज़ हो, प्रश्न न करें, सिर्फ अन्य के खिलाफ प्रचंड गुस्से से भरे बड़े होते जाएं.
इस मामले में मार्टिन ल्यूथर प्रसंग को हम याद कर सकते हैं. मार्टिन, जिन्होंने रोमन कैथोलिक संप्रदाय के खिलाफ लड़ी लड़ाई, को हम सभी जानते हैं- जिस सिलसिले ने प्रॉटेस्टंट संप्रदाय की स्थापना की, लेकिन अधिकतर लोग यह नहीं जानते कि यहूदियों को लेकर उनके विचार कितने घृणित थे, हिंसा से भरे थे, जिसने किस तरह उनके जाने के पांच सदियों तक क्रिश्चियन व्यवहार को प्रभावित किया.
1543 में उन्होंने एक पर्चा लिखा था ‘कंसर्निंग द ज्यूज़ एंड देयर लाइज़’ [Concerning the Jews and Their Lies] जिसमें उन्होंने ईसाइयों से आह्वान किया कि वह ‘सिनेगॉग अर्थात यहूदी प्रार्थनास्थल और स्कूलों’ को आग लगा दें, इतना ही नहीं उन्होंने यह भी निर्देश दिया कि यहूदियों के ‘मकानों को भी गिरा देना चाहिए और तबाह कर देना चाहिए.’
यह भी साफ है कि हिटलर और नाजियों ने ल्यूथर के इन विचारों का खूब इस्तेमाल किया और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में यहूदियों पर बर्बर अत्याचार किए, जिस सिलसिले को बाद में ही रोका जा सका.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)