भारत सरकार ने अपने केंद्रीय बैंक से ब्याज दरों में कटौती करने की कहते हुए उस पर विकसित देशों के पक्ष में यह दरें निर्धारित करने का आरोप लगाया था.
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नई दिल्ली: 2014 में नरेंद्र मोदी की भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता में आने के एक साल बाद वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारी ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) पर विकसित देशों को लाभ पहुंचाने के लिए ब्याज दरें निर्धारित करने का आरोप लगाया था. द रिपोर्टर्स कलेक्टिव को प्राप्त आधिकारिक दस्तावेज बताते हैं कि इसके बाद बैंक के आचरण की जांच की मांग की गई थी.
तत्कालीन वित्त मंत्री दिवंगत अरुण जेटली के अधीन काम कर रहे वित्त सचिव राजीव महर्षि ने यह दावा तब किया जब आरबीआई ने ब्याज दरों को कम करने पर बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने को प्राथमिकता देने का विकल्प चुना, जिससे व्यवसायों और नागरिकों के लिए उधार लेना सस्ता हो जाता.
हालांकि सरकार और आरबीआई के अलग-अलग विचार असामान्य नहीं हैं, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है जब एक शीर्ष सरकारी अधिकारी द्वारा आरबीआई पर ‘विकसित देशों’ में ‘श्वेत व्यक्ति’ को लाभ पहुंचाने के लिए काम करने का आरोप लगाया गया और केंद्रीय बैंक के फैसलों के पीछे के ‘असली मकसद’ की जांच की मांग की गई.
सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत द रिपोर्टर्स कलेक्टिव को मिले दस्तावेजों को पहली बार तीन भाग की श्रृंखला के हिस्से के रूप में सार्वजनिक किया जा रहा है. यह इस श्रृंखला का पहला हिस्सा है.
2015 में उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली सरकार द्वारा नियुक्त रघुराम राजन आरबीआई गवर्नर के पद पर थे. भाजपा सरकार ने राजन के उत्तराधिकारी के रूप में उर्जित पटेल को चुना था.
लेकिन आरबीआई ने ब्याज दरों में उतनी तेजी से कटौती नहीं की जितनी सरकार चाहती थी, यहां तक कि पटेल के कार्यकाल में भी ऐसा नहीं हुआ. दस्तावेजों के अनुसार, इसलिए वित्त मंत्रालय ने ब्याज दरों में कटौती के लिए बैंक की नवगठित मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के साथ बैठक बुलाई. 2017 में हुई इस बैठक का वो हश्र हुआ था जैसा पहले कभी नहीं हुआ था- समिति के सदस्यों ने इसमें भाग लेने से इनकार कर दिया. इसके बारे में तब काफी खबरें आई थीं.
पूर्व वित्त सचिव राजीव महर्षि के अगस्त 2015 के एक फाइल नोट में आरबीआई पर अपनी मौद्रिक नीति के माध्यम से विकसित देशों की मदद करने का आरोप लगाते हुए जांच की मांग की गई थी.
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मोदी सरकार द्वारा 2016 में भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम में संशोधन, जिसके जरिये कीमतों को नियंत्रित करने के आरबीआई के प्राथमिक काम और सरकार के राजनीतिक आवेश में बढ़ती मुद्रास्फीति की कीमत पर भी विकास को बढ़ावा देने के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया गया था, के बावजूद केंद्रीय बैंक को प्रभावित करने की कोशिश की गई.
आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल ने इससे असहमति जाहिर करते हुए सरकार को पत्र लिखकर कहा कि उसे ‘जनता और संसद’ की नजर में नए मौद्रिक ढांचे की ‘अखंडता और विश्वसनीयता’ को बनाए रखने के लिए आरबीआई को प्रभावित करने की कोशिश करना बंद कर देना चाहिए. अन्यथा, सरकार उस कानून का उल्लंघन करेगी, जो आरबीआई की स्वायत्तता की रक्षा के लिए बना है.
इस बात और अन्य मुद्दों पर आगे भी इस तरह के मसले खड़े होते गए और 10 दिसंबर, 2018 को पटेल ने ‘व्यक्तिगत कारणों’ का हवाला देते हुए इस्तीफा दे दिया.
तब सरकार ने उनकी जगह शक्तिकांत दास को नियुक्त किया. आधिकारिक दस्तावेजों से पता चलता है कि उन्होंने वित्त मंत्रालय के एक शीर्ष नौकरशाह के रूप में आरबीआई के दर-निर्धारण के काम में सरकार के बढ़ते प्रभाव को उचित ठहराया था.
अलग-अलग भूमिकाएं
आरबीआई की प्रमुख भूमिकाओं में से एक अर्थव्यवस्था में उपलब्ध धन और ऋण की मात्रा को उस ब्याज दर के माध्यम से नियंत्रित करना है जिस पर वह बैंकों को उधार देता है- यह केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति का काम है. कम ब्याज दरें अल्पावधि में तो आर्थिक विकास को बढ़ावा देती हैं, लेकिन इसका नतीजा वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में वृद्धि या महंगाई भी हो सकता है.
अनियंत्रित महंगाई एक छिपे हुए कर की तरह काम करती है जो अमीरों की तुलना में गरीब और निम्न-आय वाले नागरिकों को अधिक प्रभावित करती है. इसके चलते नागरिकों, विशेषकर गरीबों के लिए धन का अवमूल्यन होता है.
मौद्रिक नीति को आम तौर पर सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र रखा जाता है क्योंकि नेताओं को अधिक पैसा बनाने और लोकलुभावन व व्यर्थ परियोजनाओं पर अपने साधनों से अधिक खर्च करने के लोभ का सामना करना पड़ता है. लंबे समय तक सरकार द्वारा किया जाने वाला अतिरिक्त खर्च अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता है.
मुद्रास्फीति किस ओर जा सकती है और ब्याज दरों को कैसे निर्धारित किया जाना चाहिए, इसके अलग-अलग विश्लेषण अक्सर भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में केंद्रीय बैंकों और सरकारों के बीच तनाव पैदा करते रहते हैं. लेकिन भारत में मई 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने पर इस तनाव ने एक खराब शक्ल अख्तियार कर ली, क्योंकि उस समय देश में दुनियाभर में मुद्रास्फीति उच्चतम स्तरों में से एक पर थी.
नवनियुक्त वित्त मंत्री अरुण जेटली ने घोषणा की कि सरकार एक मौद्रिक नीति व्यवस्था स्थापित करेगी जो पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने पर ध्यान केंद्रित करेगी. इसके होने से वह मौजूदा प्रणाली ख़त्म हो जाएगी जहां आरबीआई गवर्नर अकेले ही मुद्रास्फीति लक्ष्य के बिना ब्याज दरें निर्धारित करते हैं.
फरवरी 2015 में एमपीसी की स्थापना की दिशा में पहला कदम उठाते हुए महर्षि और तत्कालीन आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने पहली बार एक मुद्रास्फीति लक्ष्य को रेखांकित करते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए.
केंद्रीय बैंक ने जनवरी 2016 तक मुद्रास्फीति को 6 प्रतिशत और बाद के वर्षों में 4 प्रतिशत तक लाने के लिए, साथ ही 2 से 6 प्रतिशत की सीमा के भीतर बनाए रखने के लक्ष्य के साथ प्रतिबद्धता जाहिर की. यदि आरबीआई लक्ष्य को पूरा करने में विफल रहता, तो उसे सरकार को स्पष्टीकरण पत्र भेजना होता.
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विदेशों में अमीरों को मिली ‘सब्सिडी’
2014 में रघुराम राजन ने रेपो दर- जिस दर पर आरबीआई बैंकों को उधार देता है- को मुद्रास्फीति संबंधी चिंताओं के कारण 8 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रखा. 2015 में जैसे ही मुद्रास्फीति का दबाव कम हुआ, उन्होंने दर में कटौती करना शुरू कर दिया और जून तक इसे घटाकर 7.25 प्रतिशत कर दिया गया. अगस्त 2015 की बैठक में उन्होंने यथास्थिति बनाए रखी गई.
मोदी सरकार इस कटौती से संतुष्ट नहीं थी. अरुण जेटली और मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम अक्सर सार्वजनिक रूप से आरबीआई की आलोचना करते और शिकायत किया करते थे कि उधार लेने की लागत अब भी बहुत अधिक है.
दस्तावेज दिखाते है कि उनका सार्वजनिक तौर पर इतना कुछ कहना पर्दे के पीछे बनाए जा रहे दबाव का एक संकेत था.
6 अगस्त 2015 को आरबीआई द्वारा नवीनतम दर के निर्णय की घोषणा के दो दिन बाद वित्त सचिव महर्षि ने एक आंतरिक नोट लिखा, जिसमें ब्याज दर में सीधे 5.75 प्रतिशत की कटौती की मांग की गई.
महर्षि ने अपने नोट में कहा, ‘मैं न तो [भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति के] विश्लेषण से सहमत हूं और न ही निष्कर्ष ब्याज दरों को 150 आधार अंक [या 1.5 प्रतिशत अंक] तक अधिक रखने से. क्रेडिट और इसके जरिये निवेश को अवरुद्ध करने से भारतीय अर्थव्यवस्था और भारत के विकास की संभावनाओं को बेहिसाब क्षति हुई है.’
महर्षि ने तब आरबीआई पर भारतीय व्यवसायों और नागरिकों की कीमत पर अमीर विदेशी व्यवसायों की मदद करने का आरोप लगाया और दावा किया कि भारत की उच्च ब्याज दरों के ‘लाभार्थी’ केवल विकसित देश थे.
उन्होंने कहा, ‘हमने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, यूरोप और जापान में अमीर और प्रभावशाली लोगों को सब्सिडी दी है.’
उल्लेखनीय है कि विकसित देशों में ब्याज दरें आम तौर पर भारत की तुलना में कम होती हैं, जिसके चलते कुछ निवेशक ऊंची ब्याज दर से फायदा लेने के लिए अस्थायी तौर पर भारतीय वित्त प्रणाली में पैसा लगाने के लिए प्रोत्साहित होते हैं.
महर्षि ने निष्कर्ष के तौर पर कहा, ‘मुद्रास्फीति की आड़ में भारत में- क्रेडिट फ्लो, निवेश और विकास की कीमत पर- ब्याज दरों को ऊंचा रखने के असल कारण पर अधिक गहराई से सोचने, विश्लेषण और जांच करने की जरूरत है.’
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फाइल पर महर्षि के नोट को स्वीकार करते हुए इस पर ‘चर्चा की इच्छा’ जाहिर की थी.
आखिरकार सितंबर 2016 में एमपीसी अस्तित्व में आई, तब तक रघुराम राजन शिकागो विश्वविद्यालय के बूथ स्कूल ऑफ बिजनेस में पढ़ाने के लिए वापस चले गए थे. उनकी जगह डिप्टी गवर्नर उर्जित पटेल ने ली थी, जो नए मौद्रिक ढांचे के निर्माण में भी शामिल थे.
एक महीने बाद जब पटेल ने पहली एमपीसी की अध्यक्षता की, तो उन्होंने ब्याज दर में 0.25 प्रतिशत अंक की कटौती की. नवंबर की बोर्ड मीटिंग में पटेल के नेतृत्व में केंद्रीय बैंक ने नरेंद्र मोदी के रातोंरात 500 और 1,000 रुपये के नोट को अमान्य करने के फैसले यानी नोटबंदी को मंजूरी दी गई.
कुछ अर्थशास्त्रियों ने पटेल पर मोदी को आरबीआई द्वारा सबसे बड़े घरेलू आर्थिक संकट में से एक को मंजूरी देने और केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता में सेंध लगाने का मौका देने का आरोप लगाया. बाद में, रघुराम राजन ने दावा किया कि मोदी सरकार ने उनके कार्यकाल के दौरान नोटबंदी पर आरबीआई से परामर्श लिया था, लेकिन कभी भी इसकी अनुमति नहीं मांगी.
इसके बाद फरवरी 2017 में एमपीसी ने मानो स्वायत्तता कम करने की आलोचना का जवाब देते हुए अपनी अगली बैठक में एक सख्त रुख अपनाया जब उसने मौद्रिक नीति का रुख को उदार [accommodative] की बजाय तटस्थ [न्यूट्रल] में बदल दिया. उसके ‘रुख’ में यह बदलाव, जिसने विश्लेषकों को चौंका दिया, वित्तीय बाजारों के लिए एक संकेत था कि एमपीसी अब दरों में कटौती के लिए तैयार नहीं होगा.
केंद्रीय बैंक ने अप्रैल 2017 में एमपीसी की अगली बैठक में दरों को अपरिवर्तित रखा, जब सरकार ने नोटबंदी से प्रभावित अर्थव्यवस्था को जिलाने के लिए हाथ-पैर मार रही थी.
बढ़ता तनाव
उर्जित पटेल के सरकारी दबाव का विरोध करने के साथ वित्त मंत्रालय ने आरबीआई की स्वतंत्र मौद्रिक नीति समिति, जो ब्याज दरें निर्धारित करती है, को प्रभावित करने का प्रयास किया.
तत्कालीन आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास के एक फाइल नोट में वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ चर्चा के बाद एमपीसी के साथ बैठक बुलाने के निर्णय का उल्लेख है.
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दस्तावेज दिखाते हैं कि 10 अप्रैल 2017 को जेटली ने अपने आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास के साथ एक बैठक की, जिसके दौरान उन्होंने फैसला किया कि एमपीसी की बैठकों से पहले तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम और तत्कालीन प्रधान आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ‘सरकार द्वारा मनोनीत एमपीसी के तीन सदस्यों के साथ बैठक करेंगे, जिसके बाद आरबीआई के साथ चर्चा की जाएगी.’
12 अप्रैल को एक नोट में दास ने लिखा, ‘यह विचार है कि एमओएफ (वित्त मंत्रालय) के विश्लेषण को एमपीसी सदस्यों और आरबीआई तक पहुंचाना है. अंतिम फैसला उन्हीं (आरबीआई) का होगा.’
एमपीसी में गवर्नर सहित आरबीआई के अंदर के तीन सदस्य और सरकार द्वारा नियुक्त तीन बाहरी विशेषज्ञ शामिल होते हैं. एमपीसी के फैसले, जिन्हें सरकार के प्रभाव से स्वतंत्र माना जाता है, बहुमत के वोट पर आधारित होते हैं. बराबर वोट मिलने की स्थिति (tie) में गवर्नर के पास एक कास्टिंग वोट होता है.
एमपीसी की स्थापना करने वाले मोदी सरकार के कानून के तहत सरकार को केवल लिखित रूप में समिति के सामने अपने विचार प्रस्तुत करने की अनुमति है. सरकारी अधिकारी समिति से नहीं मिल सकते या किसी अन्य माध्यम से इसे प्रभावित नहीं कर सकते.
हालांकि इस कानून की अनदेखी करते हुए 17 मई, 2017 को वित्त मंत्रालय ने एमपीसी के प्रत्येक सदस्य को एक पत्र भेजा, जिसमें कहा गया था कि ‘वित्त मंत्री के अनुमोदन पर एक संस्थागत ढांचा विकसित करने का निर्णय लिया गया है जिसके तहत सरकार समय-समय पर एमपीसी के सदस्यों के साथ चर्चा कर सकती है ताकि आर्थिक विकास और मुद्रास्फीति सहित व्यापक आर्थिक स्थिति पर सरकार का नजरिया साझा किया जा सके.
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समिति की बैठक से कुछ दिन पहले 1 जून 2017 को एमपीसी के बाहरी सदस्यों को सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में हुई एक बैठक के लिए बुलाया गया था. उर्जित पटेल को एक अलग पत्र लिखा गया था जिसमें उन्हें मुंबई में अपने मुख्यालय में एमपीसी पर आरबीआई के अधिकारियों के साथ चर्चा करने के वित्त मंत्रालय के फैसले के बारे में बताया गया था.
तीन दिन बाद वित्त मंत्रालय ने अपना निर्णय पलट दिया और एक फाइल नोट में कहा कि ‘संवेदनशीलता’ के कारण चर्चा अनौपचारिक होगी.
नोट में कहा गया है, ‘एमपीसी को एक संशोधित पत्र भेजा जा सकता है… इस बात का उल्लेख किए बिना कि हम उनके साथ अनौपचारिक चर्चा के लिए एक तंत्र तैयार करना चाहते हैं.’
एमपीसी के सभी सदस्यों को एक नया पत्र जारी किया गया था, जिसमें कहा गया था कि सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार की अध्यक्षता में होने वाली बैठक में केवल ‘देश की समग्र व्यापक आर्थिक स्थिति और वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास पर चर्चा’ की जाएगी. ब्याज दरें, जो इस बैठक का असल उद्देश्य थीं, उनका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया था.
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पत्र
22 मई 2017 को पटेल ने बैठक का विरोध करते हुए जेटली को पत्र लिखा. द रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा समीक्षा किए गए दस्तावेजों के अनुसार, उन्होंने कहा कि आरबीआई ‘इस मसले पर दो बिंदुओं को लेकर हैरान और निराश’ था.
पटेल ने कहा, ‘सबसे पहले, हमने एक दूसरे से इस मामले पर चर्चा नहीं की है, हालांकि हाल के हफ्तों में काम के मामलों पर हमारी कई बार बातचीत हुई है; और दूसरा, यहां एमपीसी सदस्यों के साथ ही अलग से गैर-आरबीआई और आरबीआई सदस्यों के साथ बैठक करने की बात कही गई है.’
उन्होंने जोर देकर कहा कि यह कदम ‘संशोधित आरबीआई अधिनियम (मौद्रिक नीति के लिए एक स्वतंत्र समिति स्थापित करने के लिए) का उल्लंघन है और मौद्रिक नीति से संबंधित मुद्दों पर आरबीआई और वित्त मंत्रालय के बीच 2014 से हुए संबंधों को खराब करता है.’
पटेल ने लिखा, ‘असल में अगर मौद्रिक नीति के फैसले की अखंडता और विश्वसनीयता को जनता और हमारी संसद की नजर में बचाए रखना है, तो सरकार के साथ या (द्वारा) बातचीत से बचा जाना चाहिए.’ उन्होंने यह भी जोड़ा कि निवेशकों को मौद्रिक नीति में किसी भी प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की कम ही संभावना होगी.
आरबीआई के पूर्व गवर्नर ने कहा, ‘स्पष्ट कहा जाए तो इसे टाला जा सकता है क्योंकि हम राष्ट्रीय हित में आधुनिक अर्थव्यवस्था के अनुकूल संस्थानों को बढ़ावा देना चाहते हैं.’
पटेल ने जेटली उस नियम की भी याद दिलाई जिसमें कहा गया है कि कि संघीय सरकार एमपीसी के साथ समय-समय पर केवल लिखित रूप में अपने विचार साझा सकती है, साथ ही पटेल ने यह भी कहा कि किसी अन्य तरह से की गई बातचीत या तरीका कानून का उल्लंघन होगा.
उनके पत्र में कहा गया, ‘शायद आपको याद हो कि यह धारा (जहां एमपीसी लिखित संवाद की बात की गई है) स्पष्ट तौर पर इसीलिए तैयार की गई थी, जिससे पिछली व्यवस्था के विपरीत सरकारी अधिकारियों द्वारा अनौपचारिक और गैर-पारदर्शी ‘निर्देशों’ की अनुमति न दी जाए.’
इस बारे में वित्त मंत्रालय, आरबीआई, राजीव महर्षि, रघुराम राजन और उर्जित पटेल को सवालों की एक सूची भेजी गई थी. उनमें से किसी ने जवाब नहीं दिया.
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दास ने क्या कहा
तत्कालीन आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास द्वारा फाइल नोट में आरबीआई की एमपीसी के साथ वित्त मंत्रालय की प्रस्तावित बैठक को सही ठहराया गया है.
इस मामले पर वित्त मंत्रालय के फाइनल आंतरिक नोट में दास ने लिखा कि ‘वित्त मंत्रालय और एमपीसी के सदस्यों के बीच बातचीत को आरबीआई अधिनियम के उल्लंघन के तौर पर नहीं देखा जा सकता.’
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29 मई 2017 को दास ने एक नोट में एमपीसी सदस्यों को लिखित रूप में वित्त मंत्रालय के अर्थव्यवस्था के विश्लेषण को भेजने की मंजूरी देते हुए कहा, ‘आखिरकार अर्थव्यवस्था के कामकाज के बारे में जवाबदेही सरकार, विशेष रूप से वित्त मंत्रालय पर है.’
सरकार की हां में हां मिलाने वाले दास मई 2017 में वित्त मंत्रालय से जाने के डेढ़ साल बाद आरबीआई गवर्नर बने. दिसंबर 2018 में पटेल के अचानक इस्तीफा देने के बमुश्किल 24 घंटे अंदर उन्हें रिज़र्व बैंक का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया.
(सोमेश झा रिपोर्टर्स कलेक्टिव के सदस्य हैं.)
यह रिपोर्ट मूल रूप से अंग्रेज़ी में अल जज़ीरा पर प्रकाशित हुई है.