अयोध्या में दंगे भड़काने का प्रयास: इस ‘तमस’ की कोई सुबह नहीं…

भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ ने बंटवारे के दौरान हिंदू मुस्लिम दंगों के निर्माण की परिघटना पर नज़र डालते हुए दूसरे के प्रार्थना स्थल पर निषिद्ध मांस फेंककर दंगा फैलाने की योजना को उजागर किया गया था. अस्सी साल का वक्फ़ा बीतने को है, लेकिन दंगा फैलाने की इस रणनीति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है.

अयोध्या. (तस्वीर: रॉयटर्स)

भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ ने बंटवारे के दौरान हिंदू मुस्लिम दंगों के निर्माण की परिघटना पर नज़र डालते हुए दूसरे के प्रार्थना स्थल पर निषिद्ध मांस फेंककर दंगा फैलाने की योजना को उजागर किया गया था. अस्सी साल का वक्फ़ा बीतने को है, लेकिन दंगा फैलाने की इस रणनीति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है.

अयोध्या. (तस्वीर: रॉयटर्स)

सत्तर के दशक के मध्य में आए भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ ने बंटवारे के दौरान हिंदू मुस्लिम दंगों के निर्माण की परिघटना पर नज़र डाली थी. दूसरे के प्रार्थना स्थल पर निषिद्ध मांस फेंक कर दंगा फैलाने की योजना को उजागर किया था. अस्सी साल का वक्फ़ा बीतने को है, लेकिन दंगा फैलाने की इस रणनीति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है.

पिछले दिनों अयोध्या में किसी हिंदूवादी संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा दंगा फैलाने की जिस साजिश का खुलासा हुआ, और यह तमाम आतंकवादी वक्त़ रहते पकड़े गए, उसने फिर एक बार इस को सुर्खियों में ला दिया है.

मालूम हो कि अयोध्या/फैज़ाबाद- जो किसी जमाने में भारत की साझी संस्कृति के प्रतीक के तौर पर जाना जाता था तथा जो आज तीस साल पहले ‘गैर कानूनी’ ढंग से ध्वस्त किए पांच सौ साल पुराने प्रार्थनास्थल और उसके लिए चली जुनूनी मुहिम की परिणति के तौर पर बेहद एकरंगी पहचान हासिल करने की ओर अग्रसर है.

पिछले दिनो वही अयोध्या एक बड़े दंगे की ओट चढ़ने से बचा, ईद के पहले पूरे इलाके में दंगा फैलाने की विधिवत साजिश को पुलिस ने वक्त़ रहते ही नाकाम कर दिया. अपनी तत्परता के लिए जहां पुलिस की तारीफ हो रही है, वहीं इस मामले में किसी बहकावे में न आकर मुस्लिम समुदाय के नेतृत्व ने जिस तरह संयम का परिचय दिया है और पुलिस से शिकायत दर्ज कराकर उसके हस्तक्षेप को सुनिश्चित किया है, वह भी काबिले तारीफ है.

गिरफ्तार किए गए इन अतिवादियों के नाम इस प्रकार हैं: महेश कुमार मिश्रा, प्रत्यूष श्रीवास्तव, नितिन कुमार, दीपक कुमार गौड़ उर्फ गुंजन, ब्रजेश पांडे, शत्रुघ्न प्रजापति और विमल पांडे. इनके अन्य चार साथी फिलवक्त़ फरार बताए जाते हैं.

इस गिरोह ने अयोध्या (पहले फैजाबाद) की तातशाह जामा मस्जिद, मस्जिद घोसियाना, कश्मीरी मोहल्ला मस्जिद और गुलाब शाह बाबा की मज़ार, जो कोतवाली पुलिस स्टेशन के अंतर्गत आती है, इनके बाहर निषिद्ध मांस, पवित्र धार्मिक किताब के पन्ने, भड़काऊ नारे लिखे पोस्टर मध्यरात्रि में फेंके.

मुसलमानों द्वारा पहनी जाने वाली टोपियोें के साथ इस कारनामे को अंजाम देते हुए इनकी तस्वीरें इलाके के सीसीटीवी कैमरे में कैद हुई. इन्हें उम्मीद थी कि सुबह आते आते हंगामा शुरू हो जाएगा, इसके बजाय हुआ बिल्कुल उल्टा.

इलाके के मुस्लिम समुदाय के अग्रणियों ने सुबह सुबह ही इस पूरी साजिश की बात पुलिस अधिकारियों को बताई, जो तत्काल हरकत में आई और किसी हिंदू योद्धा संगठन नामक संगठन से सम्बद्ध बताये जाते यह नफरती लोग पकड़े गए.

तय बात है कि अगर सबकुछ इन दंगाइयों के इरादों के मुताबिक होता तो ईद के पहले अयोध्या के उस पूरे इलाके में ही नहीं बल्कि आसपास के समूचे क्षेत्र में सांप्रदायिक दावानल भड़क उठता. और भारत की सियासत में इन दिनों अयोध्या की अहमियत देखते हुए और सांप्रदायिक दरारों को अधिक चौड़ा करने की निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा चल रही कोशिशें और राज्यसत्ता का इसके प्रति प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन के चलते शेष भारत में भी इसे फैलाने की कोशिशें होतीं.

पहले चुनावी तौर पर निष्प्रभावी करने की कोशिशें और बाद मे सामाजिक जीवन से भी उन्हें हाशिये पर डालने के जारी संगठित प्रयासों के मददेनज़र धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति कितनी और कठिन होती, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है.

जहां तत्परता दिखाने के लिए पुलिस एवं जिला प्रशासन की तारीफ हो रही है, लेकिन जिस जल्दबाजी के साथ इस पूरे खुलासे के बाद आगे बढ़ा जा रहा है, वह अधिक उत्साह नहीं जगाता. सवाल यह उठता है कि क्या इस साजिश के असली मास्टरमाइंड कभी पकड़ में आ भी पाएंगे या नहीं?

याद रहे पुलिस की तरफ से ऐलान किया गया है कि इन ग्यारह अभियुक्तों के अलावा इस साजिश में कोई अन्य शामिल नहीं है. उनके हिसाब से महेश कुमार मिश्रा – जिस पर पहले से ही कुछ मुकदमे दर्ज है- वही असली कर्ताधर्ता है; तथा यह सभी साजिशकर्ता किसी ‘हिंदू योद्धा संगठन’ के कारिंदे हैं, जिसका कोई राजनीतिक जुड़ाव नहीं है.

शायद पुलिस अधिकारी इसके पहले की ऐसी ही आतंकी कार्रवाइयों- भले उन्हें हिंदुत्ववादियों ने अंजाम दिया हो या इस्लामिस्टों ने- के बारे में बार-बार उजागर इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले जो ‘प्यादे’ [फुट सोल्जर्स] कहे जाते हैं, उनके पीछे एक लंबी कतार होती है: जिसमें साजिश को रचने वाले, सामग्री, पैसों का इंतजाम करने वाले तथा असली मास्टरमाइंड जो कहीं एयरकंडीशंड कमरे में बैठकर पूरी रूपरेखा बनाते है, यह तय करते हैं कि किस वक्त़ इसका सबसे अधिक असर होगा.

प्रथमदृष्टया यह तो माना जा सकता है कि महेश कुमार मिश्रा जैसे अभियुक्त- जिन्होंने असली कारनामे को अंजाम दिया- वह अमलकर्ता थे, जो ऊपर से आए आदेश का पालन कर रहे थे, मगर यह दावा कि सभी कुछ उसने ही तय किया होगा, अधिक यक़ीनी नहीं लगता.

दूसरे, स्थानीय तथा अन्य मीडिया में आई ख़बरें यही बताती हैं कि यह सभी अभियुक्त- जो निम्न मध्यम वर्ग के बताए जाते हैं- पहले से हिंदुत्व वर्चस्ववादी संगठनों के आनुषंगिक संगठनों के साथ सक्रिय रहते आए हैं.

अगर कानून के राज की अहमियत को तवज्जो देनी हो तो इस जांच को और आगे बढ़ाना चाहिए ताकि पूरी योजना का खुलासा हो और भविष्य में ऐसे दंगाइयों को आसानी से आतंक फैलाने या दंगा करने की हिम्मत न हो.

हमें नहीं भूलना चाहिए कि विगत दो दशकों से अधिक समय से विभिन्न छटाओं के आतंकी समूहों द्वारा भारत में ऐसी अतिवादी गतिविधियों को अंजाम दिया जाता रहा है.

बीसवीं सदी की आखिरी दहाई मे खालिस्तानी दहशतगर्दी के खात्मे के बाद फिर आलम यही बना है कि ऐसी गतिविधियों का जिम्मा लश्करे तैयबा या जैश ए मोहम्मद या सिमी जैसे संगठनों के माथे ही मढ़ा जाता रहा है. 9/11 के बाद जब अमेरिका ने ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ का ऐलान किया- जिसकी परिणति एक तरह से आतंकवाद को इस्लामिस्ट/मुस्लिम गतिविधि तक न्यूनीकृत करने में हुई, इसने इस सहजबोध को अधिक पुष्ट किया है.

इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के उत्तरार्द्ध में एक के बाद एक देश के अलग अलग हिस्सों में जो आतंकी घटनाएं सामने आई- जिसमें पुलिस एवं सुरक्षा एजेंसियों के सामने जो नए तथ्य उजागर हुए, उसने इस समझदारी को जबरदस्त तरीके से प्रश्नांकित किया है.

इसमें सबसे बड़ा शुरुआती खुलासा नांदेड बम धमाकों के रूप में सामने आया था. महाराष्ट्र के नांदेड में 6 अप्रैल 2006 की मध्यरात्रि को इलाके की सिंचाई विभाग से कभी जुड़े कर्मचारियों की कालोनी (पाटबंधारे नगर) में सिंचाई विभाग से रिटायर हुए लक्ष्मण राजकोंडवार- जो खुद किसी हिंदुत्ववादी संगठन से जुड़े थे- के घर पर हुए एक बम विस्फोट में दो युवा मारे गए.

मारे जाने वालों में नरेश राजकोंडवार- जो लक्ष्मण राजकोंडवार का अपना बेटा था- तथा हिमांशु पानसे शामिल थे तथा उनके तीन साथी जख्मी हुए थे. (The Telegraph, April 10, 2006)

यह सभी लोग पहले से ही इलाके में सक्रिय हिंदुत्ववादी संगठनों के साथ जुड़े थे. मृतक हिमांशु पानसे के घर जब पुलिस ने छापा डाला तो पुलिस के होश फाख्ता हुए.

पुलिस को न केवल इलाके की प्रमुख मस्जिदों के नक्शे, यहां तक कि मुसलमानों द्वारा आम तौर पर पहने जाने वाले पोशाक यहां तक कि ‘मुस्लिम’ टोपियां भी मिलीं. आखिर ऐसे समय में जब विपक्ष के तत्कालीन नेता लालकृष्ण आडवाणी, ‘भारत सुरक्षा यात्रा’ पर निकले थे और उनकी यात्रा पश्चिमी भारत के उस क्षेत्र में पहुंचने वाली थी, उस वक्त़ एक उग्र हिंदुत्ववादी संगठन के कारिंदे के घर से ऐसी सामग्री का बरामद होना, एक दिन पहले बम बनाते उसका विस्फोट में मारा जाना, एक खतरनाक साजिश की ओर इशारा कर रहा था.

जांच जब आगे बढ़ी तब कई अन्य खुलासे होते गए.

घायल लोगों ने पुलिस को बताया कि इसके पहले परभणी, जालना आदि इलाकों में हुए जो आतंकी घटनाएं थीं, इसके पीछे इसी गिरोह का हाथ था. परभणी, जो मराठवाड़ा का अहम शहर है, वहां जुमे की नमाज़ के वक्त़ मोटर साइकिल पर सवार दो आतंकियों ने मस्जिद पर बम फेंके थे और वह वहां से फरार हुए थे और शहर में दंगा फैल गया था.

इतना ही नहीं इस आतंकी गिरोह के साथ हिंदुत्ववादी आंदोलन के कई अग्रणी लोग संपर्क में थे, जो उन्हें पैसे, साधन तथा वैचारिक तौर पर सहायता प्रदान करते थे. दूसरी अहम बात थी कि वर्ष 2000 के बाद ऐसे ही समानधर्मा लोगों के लिए पुणे तथा आसपास हथियारों के प्रशिक्षण एवं विस्फोटक की ट्रेनिंग के लिए प्रशिक्षण शिविर चलाए गए थे.

नांदेड बम धमाके (6 अप्रैल 2006), मालेगांव बम धमाके (वर्ष 2006 तथा वर्ष 2008), अजमेर शरीफ दरगाह बम धमाके (2007), मक्का मस्जिद बम धमाके (हैदराबाद, 2007), समझौता एक्सप्रेस बम धमाके (2007) ऐसे कई बम धमाके थे जिनमें कथित तौर पर हिंदुत्ववादी संगठनों की सक्रियता देखी गई थीं.

हम याद कर सकते हैं कि महाराष्ट्र एंटी टेररिस्ट स्क्वाड के प्रभारी जांबाज हेमंत करकरे- जिनकी 2008 में शहादत हुई- के हाथों जब मालेगांव बम धमाकों की जांच का जिम्मा आया तो किस तरह उन्होंने इस पूरे सिलसिले पर नई रोशनी डाली थी और कइयों को पकड़ा था. ऐसी तमाम घटनाओं में बार-बार उर्दू साहित्य या मुस्लिम पहनावों का इस्तेमाल पुलिस को गुमराह करने के लिए किया जाता रहा है, इसका खुलासा भी हुआ था.

यह अलग बात है कि वर्ष 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद इसे लेकर चल रहे मुकदमों का धीमा किया गया या जब निचली अदालतों में अभियुक्त बरी हो गए तब उच्च अदालत में अपील करने की भी कोशिश नही हुई. इतना ही नहीं, जांच अधिकारियों पर भी परोक्ष-अपरोक्ष रूप से दबाव डाला गया कि वह जांच को धीमा कर दे. महाराष्ट्र की पब्लिक प्रॉसिक्यूटर रोहिणी सालियान ने तो इस मामले में पूरा खुलासा किया था.

वैसे अयोध्या पुलिस आज भी चाहें तो इसके पहले क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने की चंद कोशिशों एवं उसके लिए आजमाए नुस्खों पर भी गौर सकती है कि अपने इरादों को आगे बढ़ाने के लिए लोग किस हद तक आगे जा सकते हैं.

मिसाल के तौर पर, राम मंदिर आंदोलन के एक अग्रणी ने 30 अगस्त 2008 को अयोध्या पुलिस में यह शिकायत दर्ज की कि उन्हें सिमी एवं अल-कायदा की तरफ से धमकियां मिल रही हैं. पुलिस हरकत में आई तथा उन्होंने इस शख्स को न केवल अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की बल्कि उसके फोन को भी सर्विलांस पर डाल दिया.

बाद में जांच में पता चला कि धमकी देने वाले इस अग्रणी के अपने ही मुरीद थे रमेश तिवारी और पवन पांडे, जो गोंडा जिले के कटरा के रहने वाले थे. पुलिस ने जब उनसे सख्ती से पूछताछ की कि वह क्यों गुरुजी को धमकी दे रहे थे. तब इन अतिवादियों ने पुलिस को साफ बताया था कि चूंकि उनके गुरुजी का जेड प्लस सुरक्षा नहीं मिल रही थी, इसलिए गुरुजी की सलाह से ही उन्होंने यह कांड रचा था. (Indian Express, 15th Sept 2008)

गौरतलब है कि इसके एक साल पहले ऐसा ही किस्सा पुलिस ने उजागर किया था, जब उस दूसरे अग्रणी ने अल-कायदा से धमकी मिलने की बात कहते हुए शिकायत की थी. इनके मामले में वही प्रसंग सामने आया था, धमकी देने वाले उनके ही मुरीद कोई संतोष थे, जिन्हें अपने गुरुजी को जेड कैटेगरी सुरक्षा न मिलने से नाराजगी थी.

उम्मीद की जानी चाहिए कि इस मामले के खुलासे में किसी तरह के राजनीतिक दबाव में न आकर पेशेवराना ढंग से मामले का खुलासा करने वाली अयोध्या पुलिस उसी भावना के साथ जांच में आगे बढ़ेगी.

प्रश्न उठता है कि आज की तारीख़ में जबकि सत्ताधारी जमातों की तरफ से एकरंगी भारत बनाने की कोशिशें तेज हो रही हैं, बुलडोजर को तुरत न्याय का प्रतीक के तौर आगे बढ़ाया जा रहा है, वहां क्या यह जांच असली मास्टरमाइंडों तक पहुंच सकेगी.

आखिर इस ‘तमस’ की सुबह कब होगी?

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)