लोहा लोहे को काटता है ये तो सुना ही था. अब हिमाचल प्रदेश में भ्रष्टाचार के लिए बदनाम वीरभद्र सिंह को निपटाने के लिए महाभ्रष्ट सुखराम और उनके सुपुत्र भाजपा का साथ देंगे.
बात सितंबर 1996 की है. केंद्र से पीवी नरसिंहराव की सरकार का विसर्जन हो गया था. देश में संयुक्त मोर्चा की सरकार बन गई थी. तभी राव सरकार के एक पूर्व मंत्री के घर सीबीआई रेड मीडिया की सुर्खियां बनी. मंत्री जी के दिल्ली वाले घर से दो करोड़ पैंतालीस लाख और उनके पुस्तैनी घर से एक करोड़ सोलह लाख कैश बरामद हुआ.
दिल्ली वाले घर में आलीशान बेड के नीचे कैश के सैकड़ों बंडल छिपाकर रखे गए थे तो मंडी वाले बंगले में पूजाघर को कालेधन का स्टोर बना दिया गया था. भगवान की मूर्ति के पीछे नकद नारायण को ऐसे छिपाकर रखा गया था कि सीबीआई वालों को समझ में नहीं आया कि मंत्री जी किस नारायण की पूजा करते थे. नकद वाले की या मूर्ति वाले की. पांच सौ रुपये के चंद नोट को छोड़कर सभी नोट पचास और सौ के थे, लिहाजा नोटों को दो ट्रक और बाइस सूटकेस में समेट कर लाया गया.
तब सीबीआई डायरेक्टर जोगिंदर सिंह थे. उन्होंने कहा कि एक साथ इतने नोट एक आदमी के यहां से न तो पहले कभी बरामद हुए न उन्होंने कभी देखे. कहा गया कि आजाद भारत में किसी नेता, कारोबारी या स्मगलर के यहां से एक दिन में सबसे बड़ी कैश बरामदगी थी.
अंग्रेजी अखबारों ने इसे Mother of all raids कहा. यानी सभी छापों की अम्मा. केंद्र की सत्ता से ताजा-ताजा बेदखल हुए नेता जी के सुपुत्र हिमाचल की कांग्रेस सरकार में मंत्री थे. अपने पापा के कारनामों के बारे न सिर्फ उन्हें पता था बल्कि पापा के रुतबे, ओहदे और रसूख के बदले उगाही के लिए अपने सूबे में बदनाम भी थे.
सीबीआई को छापे के दौरान ये भी पता चला कि नेताजी के मंत्री पुत्र ने रेड की भनक मिलते ही अपने सेब के बगीचे में ऐसी फाइलें, पेपर और दस्तावजों को आग के हवाले कर दिया था, जिसमें काले धंधे का हिसाब किताब होने का अंदेशा था.
सीबीआई के बगीचे से जले हुए अवशेष भी मिले थे. कई दिनों तक करप्ट बाप-बेटे के किस्से और दो नंबरी कैश से खेलने की अनसुनी कहानियां अखबारों के जरिए देश की जनता सुनती-पढ़ती रही. घर में उनके नाम और काम के चर्चे होते रहे.
बाप तो पहले कुर्सी से रुखसत हो चुके थे. बेटे को भी हिमाचल सरकार से बाहर होना पड़ा. दिल्ली से लेकर हिमाचल तक भाजपा ने सुखराम के खिलाफ नारे लगाए. हंगामे किए. संसद में कांग्रेस के चेहरे पर कालिख पोतने का एक मौका नहीं छोड़ा था.
वैसे तो आप समझ ही चुके होंगे फिर बता दूं. बाप का नाम है पंडित सुखराम. बेटे का अनिल शर्मा. कुल गोत्र कांग्रेसी रहा है. पार्टी में अंदर -बाहर जाते, आते और पाते रहे हैं. सुखराम पर नब्बे के दशक में घोटालों के कई मुकदमे चले. घूस लेने के एक मामले में उन्हें पांच साल की सजा भी हुई थी.
जेल गए. बाहर आए. आरोपों की कालिख से मुंह काला होता रहा लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारे. अब उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं. बेटे को विरासत सौंप चुके हैं. अपनी तीसरी पीढ़ी के नुमाइंदे के तौर पर अपने पोते को भी सियासत में आगे बढ़ा रहे हैं. पोताश्री को भी भाजपा के दरवाजे में एंट्री का इंतजार है.
बाप-बेटे के बारे में ताजा जानकारी ये है कि अपने इलाके में इन दोनों के वोटबैक की भाजपा को जरूरत महसूस हुई है. लोहा लोहे को काटता है ये तो सुना ही था. अब सूबे में भ्रष्टाचार के लिए बदनाम वीरभद्र सिंह को निपटाने के लिए महाभ्रष्ट सुखराम और उनके सुपुत्र न खाऊंगा, न खाने दूंगा वाले अश्वमेध यज्ञ में भाजपा का साथ देंगे.
नब्बे पार कर चुके पापा सुखराम और पचास पार चुके बेटा अनिल शर्मा अब हिमाचल चुनाव में देश-दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा का झंडा बुलंद करेंगे. अनिल शर्मा कल तक वीरभद्र सिंह की सरकार ने मंत्री थे लेकिन कांग्रेस नेताओं और खासकर वीरभद्र सिंह की तरफ से मिल रही उपेक्षाओं से आहत थे.
उनके पापा सुखराम को अक्टूबर के पहले हफ्ते में हुई राहुल की रैली में मंच पर नहीं जाने दिया गया था. उन्हें भी टिकट बांटने से लेकर चुनाव की तैयारियों की किसी समिति में जगह नहीं दी गई थी. इधर भाजपा से कुछ शुभ संकेत मिल रहे थे. मंडी और आसपास के आठ-दस विधानसभा क्षेत्रों में सुखराम और उनके बेटे का असर है.
उनके घोटालों के राष्ट्रव्यापी चर्चे से उनके वोटरों के बीच उनके रसूख का तब भी बहुत चोट नहीं लगी थी. केंद्रीय संचार मंत्री के तौर पर सुखराम ने मंडी और आस-पास के इलाकों में घर-घर तक टेलीफोन लाइनें बिछवा दी थी. कांग्रेस से निकाले जाने के बाद उन्होंने हिमाचल विकास पार्टी बनाई.
बतौर संचार मंत्री जिस टेलीफोन को उन्होंने खूब बिछाया. खूब कमाया. उसी टेलीफोन का चुनाव चिन्ह बनाकर लड़े और लड़ाया. उनकी पार्टी को पांच सीटें मिल भी गई. ये बात 1998 की है. 31 सीटें जीतने वाली भाजपा हर हाल में सरकार बनाने पर अमादा थी. सामने पांच सीटें जीतकर सुखराम खड़े थे. राम वाली पार्टी को तब सुखराम से ऐतराज न हुआ. दिल्ली में तब अटल-आडवाणी का जमाना था.
विरोधी दल सुखरामी भ्रष्टाचार के किस्सों की मुनादी करके भाजपा को अपने फैसले से डिगाने की कोशिश करते रहे लेकिन सत्ता के लिए भाजपा ने सुखराम की बैसाखी कबूल कर ली. सुखराम से दिखावटी दूरी और बेटे को जरूरी मानकर गुल खाए और गुलगुले से परहेज वाले मुहावरे को चरितार्थ किया गया.
ये तर्क दिया गया कि राज्यहित और जनहित को ध्यान में रखते हुए सूबे में सरकार जरूरी है. चाहे वो सुखराम के सपोर्ट से ही बने. 1996 में जो भाजपा सुखराम के घपलों-घोटालों पर छाती पीट रही थी, उसी ने 1998 में उन्हें छाती से लगा लिया. सुखराम पुत्र अनिल शर्मा उसी साल भाजपा के सपोर्ट से राज्यसभा सदस्य बने.
पांच साल तक भाजपा की सरकार की बैसाखी बना सुखराम कुनबा 2004 के लोकसभा चुनावों से पहले फिर कांग्रेस के पाले में आ गया. अनिल शर्मा 2007 और 2012 का चुनाव कांग्रेस के टिकट पर मंडी से लड़े और जीते. वीरभद्र की सरकार में अनिल शर्मा पूरे टर्म मंत्री रहे लेकिन वीरभद्र सिंह और सुखराम के कुनबे के बीच दशकों तक चली पुरानी अदावत बीते कुछ सालों में फिर जिंदा हुई.
भीतरखाने खटपट होती रही. अब बाप-बेटों को इस खटपट से मुक्ति मिल गई है. उन्हें कमल मिल गया है. सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि शनिवार को दिन में अनिल शर्मा अपने फेसबुक पेज पर कांग्रेस के कसीदे पढ़ रहे थे और शाम होते-होते भाजपा का दामन थामने का ऐलान कर दिया.
भाजपा का दामन थामने के बाद अनिल शर्मा ने कहा कि कांग्रेस में उन्हें घुटन महसूस हो रही थी. उनके पिता का अपमान किया जा रहा था. उन्होंने सोशल मीडिया में लिखा, ‘हिमाचल प्रदेश की सरकार से इस्तीफा देकर मैं भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर मोदी जी के सपनों को साकार करने के सदैव प्रयत्नशील रहूंगा.’
अनिल शर्मा के इस पवित्र और निर्दोष संदेश का स्वागत करते हुए हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने जो लिखा है, वो और दिलचस्प है. ठाकुर ने लिखा है, ‘भाजपा में आपका स्वागत है अनिल शर्मा जी . भ्रष्टाचार के खिलाफ स्टैंड लेने और नरेंद्र मोदी जी के विजन के साथ भाजपा में आने के लिए शुभकामनाएं.’
तो वीरभद्र की सरकार में सत्ता की मलाई का सेवन करने के बाद चुनाव से ठीक पहले घुटन से मुक्त होकर खुली हवा में सांस लेने के लिए अनिल शर्मा भाजपा में आ गए हैं. पिता के मान-सम्मान- स्वाभिमान की रक्षा के लिए अनिल शर्मा भाजपा में आ गए हैं.
इस लिहाज से सुखराम को ‘सुख’ देना अब भाजपा की जिम्मेदारी है. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए अनिल शर्मा अब भाजपा में आ गए हैं. बेटे-पोते भाजपा के लिए वोट मांगेगे. देश में भ्रष्टाचार के साक्षात प्रतीक माने गए नब्बे पार सुखराम पितामह की तरह विजयी भव का आशीर्वाद देंगे.
भाजपा वीरभद्र और उनके परिवार के घोटालों के किस्सों का पताका लहराकर जिस रथ पर सवार होकर अपने लिए जनादेश मांगने निकलेगी, उस पवित्र रथ पर सुखराम पुत्र अनिल शर्मा भी सवार होंगे. और जब चुनाव के बाद सूबे में भाजपा की ताजपोशी होगी तो कैबिनेट मंत्री का एक ताज उन्हीं सुखराम के बेटे के सिर भी सजेगा, जो भारतीय इतिहास में करोड़ों के नोट को बिस्तर के नीचे छिपाने और नकद को नारायण मानकर पूजाघर में भगवान का दर्जा देने के लिए कुख्यात रहे हैं.
डिजिटल युग में गूगल पर दर्ज सुखराम की घूसगाथा हमेशा उन्हें जिंदा रखेगी. इतिहास में देश के बड़े -बड़े रिश्वतखोरों का जब भी नाम लिया जाएगा, सुखराम का नाम सम्मान के साथ लिया जाएगा.
1962 के नेहरू युग में मंडी से चुनाव जीतकर सुखराम सियासत में आए थे. 2017 के मोदी युग में ‘पवित्र होकर’ नए चोले में प्रवेश करेंगे. चाल-चरित्र और चेहरा यूं ही बदलता है, जब सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए कोई सुखराम दिखता है…
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)