नरेंद्र मोदी के आठ साल के कार्यकाल का सार- बांटो और राज करो

'एक भारत-श्रेष्ठ भारत' और 'सबका साथ-सबका विकास' सरीखे नारे देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने शासन में इस पर अमल करते नज़र नहीं आते हैं.

नरेंद्र मोदी. (फोटो: रॉयटर्स)

‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ और ‘सबका साथ-सबका विकास’ सरीखे नारे देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने शासन में इस पर अमल करते नज़र नहीं आते हैं.

नरेंद्र मोदी. (फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: कुछ लोगों को उनमें आधुनिक नीरो नजर आता है, जबकि कई उन्हें भगवान राम का कलयुगी अवतार मानकर फूले नहीं समाते.

केंद्र सरकार के मुखिया के तौर पर नरेंद्र मोदी आजादी के बाद से अब तक के सबसे ज्यादा विभाजनकारी प्रधानमंत्री रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी को लगातार दो बार संसदीय चुनावों में जबरदस्त जीत दिलाने वाले मोदी भारत के भीतर ही नहीं बाहर भी ‘न्यू इंडिया’ के प्रतीक हैं.

उनके प्रशंसक प्रधानमंत्री के लार्जर दैन लाइफ व्यक्तित्व को एक मूर्तिभंजक राजनीति के हिस्से के तौर पर देखते हैं, जिसकी वर्तमान समय में विकासशील भारत को सख्त जरूरत है.

उनके आलोचकों, जिनमें ज्यादातर भारत के लोकतंत्रवादियों का असंतुष्ट तबका और भारतीय अल्पसंख्यक शामिल हैं, को लगता है कि उन्होंने अपनी कुर्सी का इस्तेमाल सिर्फ एक खास तरह की विभाजनकारी राजनीतिक को पुख्ता करने के लिए किया है, जिसका नतीजा भविष्य में भारत के विखंडन के तौर पर निकल सकता है.

ऐसे में जबकि सरकार आठ सालों का जश्न मना रही है, भाजपा इसकी उपलब्धियां गिनाने में मशगूल है.

यह दावा किया जा रहा है कि सरकार या तो पहले ही सभी वादों को पूरा कर चुकी है या 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले कर देगी. इनमें से कई पूरे किए गए वादे विशिष्ट तौर पर भेदभावकारी हैं.

अनुच्छेद 370 को निरस्त करना, नागरिकता संशोधन कानून लागू करना, तीन तलाक का अपराधीकरण और यहां तक कि अयोध्या में राम मंदिर के लिए मुहिम, जहां भाजपा समर्थकों ने 1992 में एक 16वीं सदी की मस्जिद का विध्वंस कर दिया- ये सब उस हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेंडा का हिस्सा हैं, जो आजादी के पहले से भारत की राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रहा है.

मोदी के वादों का ‘दूसरा भाग’ जो भारत को एक आर्थिक महाशक्ति और एक भ्रष्टाचारमुक्त देश बनाने के उनके दावे से जुड़ा है, अभी तक पूरा नहीं किया गया है. लेकिन भाजपा इसे सुविधाजनक ढंग से भुलाकर भारत की सबसे शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति के तौर पर अपने आठ साल का जश्न मना रही है.

दूसरी तरफ लस्त-पस्त विपक्षी पार्टियां अर्थव्यवस्था, प्रशासन और सामाजिक सद्भाव के मोर्चे पर इस सरकार की नाकामी को उजागर कर रही हैं. वे इन न झुठलाए जा सकने वाले कठोर तथ्यों को सामने ला रही हैं कि कैसे मोदी सरकार के आठ सालों के दौरान बेरोजगारी दर, गरीबी स्तर, आय में असमानता, आवश्यक वस्तुओं की कीमतें या वित्तीय घरानों और लोकतांत्रिक संस्थानों का क्षरण एक अभूतपूर्व ऊंचाई पर पहुंच गया है.

लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी परियोजना ने आम जनधारणा में इन सबको अपने भीतर दबा दिया है.

पिछले दो चुनावों से जिस तरह से मतदाताओं के बहुमत ने भाजपा का साथ देने के लिए अपने सामने खड़े आर्थिक हितों को दरकिनार कर दिया है, वह मोदी के नेतृत्व के बारे में काफी कुछ बताता है.

लेकिन यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि आखिर मोदी युग, उनसे पहले की सरकारों से किस तरह से अलग है. ऐसी कौन सी बात है जो लोगों को एक ऐसी पार्टी की ओर आकर्षित करती है, जिसने खुलेआम सामाजिक विभाजनकारी, बहुमतवादी एजेंडा को आगे बढ़ाया है.

अगर पिछले आठ सालों की बात करें, तो मोदी के शासन के तीन व्यापक पहलू सामने निकलकर सामने आते हैं, जो इससे पहले की सरकारों के दौरान भारत ने कभी नहीं देखा था.

पहला, मोदी के नेतृत्व में भाजपा भारत के लोगों को एक सामूहिक विस्मृति की ओर ले गई है. यह अपनी सफलताओं को दिन-रात गिनाती रहती है. ‘मुफ्त’ टीकाकरण अभियान से रेलवे स्टेशनों पर एस्केलेटर्स लगाने तक, भाजपा प्रशासन के सभी पहलुओं को अभूतपूर्व कदम के तौर पर पेश करती है.

पिछले आठ सालों में भाजपा द्वारा उठाए गए हर कदम को वर्तमान प्रधानमंत्री की उपलब्धि के तौर पर दिखाया गया है. इन्हें कुछ इस तरह से दिखाया गया है कि पिछले प्रधानमंत्री या अन्य राजनीतिक दल ऐसा कर सकने की बात तो छोड़िए, ऐसा कुछ करने का सोच पाने में भी सक्षम नहीं थे.

मोदी के नेतृत्व में जितना जोर अपनी उपलब्धियों को गिनाने पर है उतना ही जोर इस बात पर भी है कि लोग भारत और इसके नेताओं की अतीत की उपलब्धियों को भूल जाएं- जिसका मकसद यह दिखलाना है कि मोदी का हर कदम देश के लिए पहला कदम है.

इसमें कोई इनकार नहीं कर सकता है कि आज भाजपा को कॉरपोरेट घरानों का जिस तरह का सराहना भरा समर्थन हासिल है, वैसा समर्थन किसी भी अन्य पार्टी को कभी नसीब नहीं हुआ था. अकूत फंड पर बैठी भाजपा के पास अपने अति उन्नत जनसंपर्क अमले के द्वारा अपने हर फैसले को युगांतकारी के तौर पर प्रचारित और स्वीकृत कराने की शक्ति है.

भाजपा की सियासत एक के बाद एक भव्य कॉरपोरेट इवेंट में ढल गई है. प्रधानमंत्री का लार्जर दैन लाइफ व्यक्तित्व इन समारोहों की ओर ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए आवश्यक सही तड़का लगाने का काम करता है.

भारत को एक विस्मृति की ओर धकेलने की प्रक्रिया को भारत के इतिहास को मिटाने और उसे भाजपा के राजनीतिक हितों को पूरा करने वाली अतीत की घटनाओं की फर्जी कहानियों से बदलने की योजनाबद्ध कोशिश का भी उग्र साथ मिला हुआ है.

भारत के जटिल, लेकिन सामंजस्यपूर्ण इतिहास को दबाने का यह काम सिर्फ स्कूलों और कॉलेजों में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन– अटल बिहारी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार में जिस मॉडल को वरीयता दी गई थी- के द्वारा ही नहीं किया जा रहा है. वर्तमान में इसे एक साथ पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फर्जी संदेशों के प्रसार और भाजपा और इससे संबद्ध संस्थाओं के नेताओं की मदद से झूठ के प्रचार के मेलजोल से किया जा रहा है.

भारत के लोगों को इतिहास की समझ दिए बगैर अतीत की पीड़ादायक घटनाओं की याद दिलाकर भाजपा ने अपने फायदे के लिए इतिहास के (दु)रुपयोग की कला में महारत हासिल कर ली है. धनकुबेर भाजपा ऐसे अभियानों में तकनीक के अभूतपूर्व ढंग से दक्षतापूर्ण उपयोग का श्रेय जरूर ले सकती है.

दूसरी बात, भारत ने इससे पहले कभी भी विपक्षी शक्तियों और आलोचकों के खिलाफ इस तरह का संगठित अभियान नहीं देखा है.

मोदी के शासनकाल को विरोध का अपराधीकरण करने के लिए याद किया जाएगा और इस मामले में कोई भी सरकार इसके आसपास नहीं ठहरती है. विरोध करने वाले विद्यार्थियों, नेताओं, अल्पसंख्यकों के खिलाफ राजद्रोह और यूएपीए जैसे दमकनारी कानूनों के इस्तेमाल में नाटकीय ढंग से वृद्धि हुई है.

ऐसी राजनीतिक कार्रवाइयों की शुरुआत विश्वविद्यालयों से हुई जहां विरोध करने वाले विद्यार्थियों पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया और ये अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुंचा जब जांच एजेंसियों ने विभिन्न मामलों में विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई करना शुरू किया.

आठ सालों में भारत का प्रेस फ्रीडम इंडेक्स ऐतिहासिक निचले स्तर पर आ गया है और कई पत्रकार भारतीय दंड संहिता के अधीन गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं.

इन सालों में हमने जांच एजेंसियों को भाजपा नेताओं के पापों को धोते हुए देखा है. मामला चाहे हेट स्पीच का हो या दंगा भड़काने का, लिंचिंग और हत्याओं में उनकी कथित भूमिका या ऊंचे स्तर पर भ्रष्टाचार का, भाजपा नेताओं पर कोई आंच नहीं आई या उन पर किसी तरह की जांच का शिकंजा नहीं कसा गया.

यह सब इतना स्पष्ट है कि कई विपक्षी नेता जांच एजेंसियों के पंजे से बचने के लिए भाजपा में शामिल हो गए हैं. जहां तक जांच एजेंसियों का सवाल है, ऐसा लगता है कि उन्होंने अपनी स्वायत्तता पूरी तरह से गिरवी रख दी है.

यूपीए के शासनकाल में इसी भाजपा ने भारत की शीर्ष जांच एजेंसी- केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की आलोचना करते हुए उस पर ‘पिंजरे में बंद तोता’ होने का आरोप लगाया था. लेकिन इन एजेंसियों ने मोदी के शासनकाल में पिंजरे से बाहर निकलने का शायद ही कभी कोई सबूत दिया है.

वास्तव में इनमें से ज्यादातर एजेंसियों ने सिर्फ साफ तौर पर बदले की भावना से काम करनेवाली भाजपा सरकार के सामने घुटने टेकने की प्रवृत्ति का ही प्रदर्शन किया है.

ऐसे में जबकि विभिन्न हलकों में मोदी सरकार के खिलाफ आलोचना का स्वर तेज दिन-ब-दिन तेज होता गया है, लोकतंत्र के दो प्रमुख स्तंभों- मीडिया और न्यायपालिका- ने संस्थानों पर मोदी सरकार का पूर्ण वर्चस्व स्थापित करने में मदद की है.

अगर मोदी सरकार को वास्तव में किसी नई शुरुआत का श्रेय जाता है, तो वह है बिग मीडिया का इसके सामने पूर्ण आत्मसमर्पण. मोदी सरकार में भारतीय मीडिया जिस तरह से सरकार के हितों को आगे बढ़ाने के एकसूत्रीय एजेंडा पर काम कर रहा है, वैसा कभी नहीं देखा गया था. ज्यादातर बार, मीडिया को सामाजिक विभाजन और बहुमतवाद को बढ़ावा देने के मामले में बराबर का कसूर ठहराया जा सकता है.

इसी दौरान, न्यायपालिका ने आम लोगों में किसी किस्म का विश्वास बहाल करने के लिए कुछ भी नहीं किया है. कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को छोड़कर, पूरी न्यायपालिका ने ज्यादातर मामलों में सरकार के पक्ष में फैसला किया है. चाहे बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मामले का फैसला हो या हालिया ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में इसका रवैया. भारत का इतिहास सरकार के अलोकतांत्रिक आदेशों के खिलाफ जजों द्वारा फैसला दिए जाने का रहा है.

इसका सबसे अच्छा उदाहरण पूर्व कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान बंदी प्रत्यक्षीकरण वाले मामले में जस्टिस एचआर खन्ना का विमत वाला फैसला था. लेकिन वर्तमान युग में भारतीय न्यायपालिका के शीर्ष स्तर पर ऐसी परंपरा में नाटकीय ढंग से परिवर्तन हुआ है.

और अंत में, सबसे महत्वपूर्ण तरीके से मोदी सरकार ने संवैधानिक राष्ट्रवाद, जिसका पालन दुनिया की ज्यादातर सरकारें करती हैं, को अपने रूप-रंग के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से बदलने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने काम किया है. मोदी की राजनीति सिर्फ विकास कार्य, प्रशासन और कल्याण तक ही सीमित नहीं है- बल्कि इसमें साथ ही साथ भारत के खो गए ‘गौरव’ को फिर से हासिल करना भी जुड़ा हुआ है.

भाजपा ने भारत को हमेशा सिर्फ और सिर्फ एक हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखा है, जिसका स्वर्ण काल विभिन्न हिंदू शासकों के शासनकाल के दौरान था, लेकिन जिसे मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मिट्टी में मिला दिया. ऐसी समझ की नुमाइश इसके राजनीतिक व्यवहार में होती है, जिसका लक्ष्य मुसलमानों को मुख्यधारा से बाहर करना है.

मोदी ने बगैर किसी अपराधबोध के संघ परिवार के बहुमतवादी एजेंडा को नई ऊर्जा से भरने का काम किया है. भाजपा में मुसलमानों को किसी प्रकार की चुनावी नुमाइंदगी न देने का निर्णायक कदम उठाकर उन्होंने हिंदुओं को गोलबंद करने का एक राजनीतिक सूत्र ईजाद किया है. वे इस सीधी और अपरिष्कृत चुनावी राजनीति का फायदा उठा रहे हैं.

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वाली परियोजना का संबंध सिर्फ चुनावों से नहीं है, बल्कि यह भाजपा के हर स्तर तक समा चुकी है. कार्यकर्ताओं के लिए जरूरी है कि वे सतत तरीके से हिंदू मिथकों की बात करें, मुस्लिमों के कब्जे से हिंदू धार्मिकस्थलों को मुक्त कराएं, समय-समय पर धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन करके लोगों से उनकी हिंदू पहचान को खुलकर धारण करने के लिए ललकारें.

भगवा पार्टी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अभियान इतना जोरदार है कि इसने लगभग पूरी तरह से हिंदुओं के बीच ऐतिहासिक तौर पर महत्वपूर्ण जाति, संरक्षण और श्रेणी के राजनीतिक विरोधाभासों को दबा दिया है, जिससे सामाजिक न्याय, नुमाइंदगी या कल्याण से निकलने वाली राजनीति के लिए शायद ही कोई जगह बाकी रह गई है.

विपक्षी ताकतों का एक बड़ा तबका जिसकी राजनीतिक लोकतंत्र के मूल्यों पर टिकी थी, उनके लिए हिंदुत्व के ऐसे आक्रामक रुख के सामने टिक पाना मुश्किल साबित हो रहा है.

वर्तमान में, मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने सभी अन्य राजनीतिक शक्तियों पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया है. और अगर विपक्ष भाजपा के ब्रांड वाले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बरअक्स कोई वैकल्पिक और स्वीकार्य सांस्कृतिक जवाब लेकर नहीं आती, तो आने वाले समय में भाजपा का यह वर्चस्व इसी तरह से कायम रहेगा.

मोदी और उनकी सरकार को सिर्फ इन कारकों के संयोजन का इस्तेमाल करके भाजपा का रूपांतरण करने के लिए नहीं, बल्कि भारतीयों के एक बड़े तबके को सत्ता की राजनीति में अपने स्थान का दावा करने के लिए उकसाने के लिए भी याद किया जाएगा.

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