कोविड से हुईं मौतों पर डब्ल्यूएचओ के अनुमान ख़ारिज करने के लिए सरकार ने ग़लत डेटा प्रयोग किया

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि 2020 में ही भारत में कोरोना वायरस संक्रमण से 8.30 लाख लोगों की मौत हुई. द रिपोर्टर्स कलेक्टिव का विश्लेषण बताता है कि इन अनुमानों को तथ्यों से परे बताकर ख़ारिज करने के लिए केंद्र सरकार ने जिन आंकड़ों का इस्तेमाल किया, उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध है.

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जून 2020 में चेन्नई के एक कब्रगाह में कोविड-19 के चलते जान गंवाने वाले शख्स का अंतिम संस्कार करते वॉलंटियर्स. (फोटो: पीटीआई)
जून 2020 में चेन्नई के एक कब्रगाह में कोविड-19 के चलते जान गंवाने वाले शख्स का अंतिम संस्कार करते वॉलंटियर्स. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के 2020 के कोविड-19 के अनुमानों का खंडन करने के लिए जिस आंकड़े का हवाला दिया है, उसमें कई खामियां हैं. इस बात की तस्दीक मौत के आधिकारिक आंकड़ों और हाल में जारी किए गए एक सरकारी सर्वेक्षण के बारीक अध्ययन से होती है. द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने इन आंकड़ों का विश्लेषण किया है.

5 मई, 2022 को डब्ल्यूएचओ ने अनुमान लगाया कि 2020 में भारत में 100.51 लाख लोगों की मौत हुई. संगठन के अनुमान के मुताबिक, इनमें से 8.30 लाख मौतें कोविड से जुड़ी हुई थीं.

कोविड महामारी की रोकथाम को लेकर शानदार काम करने का दावा करके अक्सर अपनी पीठ थपथपाने वाली केंद्र सरकार ने डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों को खारिज कर दिया.

5 मई के अपने प्रेस रिलीज में डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों को झुठलाते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा, ‘भारत में जन्म और मृत्यु के पंजीकरण की एक सुदृढ़ प्रणाली है और इसका प्रशासन दशकों पुराने वैधानिक और कानूनी फ्रेमवर्क यानी जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 से होता है.’

सरकार ने दावा किया कि 2020 में हुई सभी मौतों में से 99.9 फीसदी मौतें रिकॉर्ड की गई थीं और उस साल कुल 81.20 लाख लोगों की मौत हुई थी, जो 2019, जबकि कोई महामारी नहीं आई थी, में हुई मौतों की संख्या से भी कम है.

मंत्रालय के बयान का लब्बोलुआब यह था कि यह नामुमकिन है कि कोविड-19 से 8.30 लाख अतिरिक्त मौतें हुई होंगी. इसने डब्ल्यूएचओ के अनुमानों को तथ्यों से परे बताकर खारिज करने के लिए इन आंकड़ों का इस्तेमाल किया.

लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय की गलती का अंतराल बहुत बड़ा था और यह बात इस साल की शुरुआत में प्रकाशित एक राष्ट्रीय रिपोर्ट में इसके अपने आंकड़े से जाहिर हो रही थी. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) नामक यह रिपोर्ट मृत्यु के पंजीकरण की दर का एक और आधिकारिक अनुमान पेश करती है.

2019-21 के लिए पांचवें और सबसे हालिया एनएफएचएस की रिपोर्ट के अनुसार 2016 से 2020 के दौरान हुई मौतों में से औसतन 70.80 प्रतिशत मौतों का ही पंजीकरण हुआ. मृत्यु के पंजीकरण के स्तर पर आंकड़ों को शामिल करने वाली यह एनएफएचएस की पहली रिपोर्ट थी.

एनएफएचएस की मृत्यु पंजीकरण दर और देश के सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) के तहत दर्ज की गई मौतों की वास्तविक संख्या के हिसाब से 2020 में 114.07 लोगों की मृत्यु होने का अनुमान लगाया जा सकता है.

इस आंकड़े के हिसाब से डब्ल्यूएचओ के कुल मौतों का अनुमान भारत सरकार के अपने आंकड़े के नजदीक पहुंच जाता है और भारत सरकार द्वारा अपने पक्ष में दी गई दलीलों की हवा निकाल देता है.

99.9 फीसदी का रहस्य

तो सवाल है कि डब्ल्यूएचओ को झुठलाने के लिए भारत सरकार ने जिस आंकड़े का इस्तेमाल किया, वह उसे मिला कहां से. जवाब है: सरकार के आंकड़े जुटाने और अनुमान लगाने की दो कवायदों से.

इसमें से एक स्रोत है, सीआरएस, जो भारत के गांवों, कस्बों और शहरों में दर्ज लोगों की मौतों की कुल संख्या का रिकॉर्ड रखता है. हर साल होने वाली सभी मौतें दर्ज नहीं की जाती हैं. सिर्फ वैसी ही मौतें, जिनका दस्तावेजीकरण किया जाता है, उन्हें ही सीआरएस में गिना जाता है.

हर साल मरने वाले लोगों की कुल संख्या का अनुमान एक वार्षिक सैंपल सर्वे- सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे (एसआरएस) के परिणामों का इस्तेमाल करते हुए लगाया जाता है.

इस सर्वे में अधिकारी एक निश्चित संख्या के घरों में जाकर यह सवाल पूछते हैं उक्त साल में परिवार के कितने लोगों की मृत्यु हुई है. इसके आधार पर रजिस्ट्रार जनरल कार्यालय हर राज्य के लिए और उसके बाद पूरे देश के लिए मृत्यु दर की गिनती करता है (प्रति 1,000 लोगों पर मौतों की संख्या). याद रखिए यह एक अनुमान है.

सरकार इस अनुमानित मृत्यु दर को देश की जनसंख्या से गुणा करके किसी साल में मरने वाले लोगों की कुल संख्या तक पहुंचती है.

सरकार ने यह कवायद 2020 के लिए भी की और डब्ल्यूएचओ के दावों का खंडन करते हुए इसी के आधार पर दावा किया कि देश में हुई कुल मौतों की संख्या सिर्फ 81.20 थी. (नीचे टेबल देखें).

2020 के लिए, जो महामारी का साल था, देश में हुई कुल मौतों का यह आधिकारिक अनुमान 2019 के कुल अनुमानित मौतों से कम है, जब कोई महामारी नहीं थी.

ये आंकड़े अभी तक कोविड संबंधित अतिरिक्त मौतों को लेकर प्रकाशित सभी वैज्ञानिक मॉडलों के विपरीत है.

2020 की सीआरएस रिपोर्ट कम से कम एक दशक के समय में पहली ऐसी रिपोर्ट थी,जिसमें कुल अनुमानित मृत्यु या पंजीकरण के स्तर जैसे महत्वपूर्ण आंकड़े शामिल नहीं किए गए थे. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने मौतों के 99.9 फीसदी पंजीकरण के दावे का प्रकाशन एक प्रेस रिलीज में किया.

सीआरएस के अनुसार 81.15 लाख पंजीकृत मौतों के आधार पर मंत्रालय ने यह दावा कर डाला कि 2020 में 81.2 लाख लोगों की मृत्यु का होने का अनुमान है. 25 मई 2022 को जारी किए गए एसआरएस के आंकड़े इस दावे के अनुरूप थे.

एसआरएस डेटा के बारीक अध्ययन से यह पता चलता है कि मौतों की कुल संख्या के जिस अनुमान पर सरकार भरोसा कर रही है, वह बेहद अविश्वसनीय है.

गलती कहां हुई

एसआरएस के कुल मृत्यु के अनुमान में काफी गलतियां हैं. अगर हम एसआरएस के अनुमान के हिसाब से चलें, तो 36 राज्यों और केंद्र शसित प्रदेशों में से 20 में जितने लोगों की मृत्यु का अनुमान लगाया गया है, उससे ज्यादा मौतों का वहां पंजीकरण हुआ है. यह असंभव है.

चंडीगढ़ के मामले को ही लें. एसआरएस के मुताबिक, मृत्यु पंजीकरण का कुल आंकड़ा 2020 में मृत लोगों के कुल अनुमान से करीब चार गुना (394.82 फीसदी) था. दिल्ली में पंजीकृत मृत्यु की संख्या 2020 में अनुमानित मृत्यु की संख्या की करीब दोगुनी (196.42 फीसदी) थी. आंकड़ों का यह विरोधाभास और भी जगहों पर मिलता है.

सरकारी सांख्यिकीविद यह चेतावनी देते हैं कि छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए एसआरएस के मृत्यु का अनुमान गलत हो सकता है.

एसआरएस रिपोर्ट तैयार करने वालों के मुताबिक, छोटे राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए मृत्यु दरों और शिशु मृत्यु दरों की कॉन्फिडेंस लिमिट को छोटे सैंपल आकार और अपर तथा लोअर टॉलरेंस लिमिट के बीच काफी बड़े अंतरों के कारण पेश नहीं किया गया है.

दूसरे शब्दों में कहें, तो हम छोटी आबादी वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अनुमानों पर विश्वास नहीं कर सकते हैं.

लेकिन कई बड़ी आबादी वाले बड़े राज्यों के लिए सरकार की गलतियां साफ दिखाई देती हैं. मिसाल के लिए, तमिलनाडु में रिकॉर्ड की गई मौतों की कुल संख्या एसआरएस अनुमानों की 148.14 प्रतिशत थी. आंध्र प्रदेश में पंजीकृत मौतें अनुमानित मौतों का 137.56 फीसदी थी.

एसआरएस में गड़बड़ी

रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने मृत्यु दरों (एसआरएस) का अनुमान लगाने के लिए सैंपल सर्वे कराने और देश की मृत्यु रजिस्ट्री (सीआरएस) को संभालने वाले रजिस्ट्रार जनरल कार्यालय के एक आला अधिकारी से बात की.

अपना नाम न उजागर करने के अनुरोध पर उन्होंने बताया, ‘पंजीकृत मौतों का अनुमानित मौतों की संख्या से ज्यादा होना अस्वाभाविक नहीं है. सीआरएस के उलट, एसआरएस एक सैंपल आधारित सर्वे है.’

उन्होंने यह समझाने के लिए कि किसी राज्य में पंजीकृत मौतों की संख्या अनुमानित मौतों की संख्या से कैसे ज्यादा हो सकती है, एक कारण बताया: प्रवास. (migration)

उन्होंने समझाया, ‘अगर कोई इलाज के लिए दिल्ली जाता है और वहां उसकी मृत्यु हो जाती है, जो मृत्यु का पंजीकरण वहां होगा, जो सीआरएस आंकड़े में दिखाई देगा. एसआरएस सिर्फ सामान्य निवासियों की ही गणना करता है, इसलिए एसआरएस निवास स्थान में हुई मौत को शामिल करेगा.'

दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो वैसे राज्यों में जहां प्रवास करने वाले लोगों की संख्या ज्यादा होती है, सैंपल सर्वे में उनकी मृत्यु को उनके उद्गम वाले राज्य में दर्ज किया जाएगा- जबकि सीआरएस उनकी मौत को उन राज्यों में दर्ज करेगा, जहां वे प्रवास करके गए थे.

इसका मतलब यह है कि वैसे राज्य जहां प्रवासियों की संख्या ज्यादा होती है, वहां पंजीकृत मौतों की संख्या अनुमानित मौतों से ज्यादा होगी और इसी तरह से जिस राज्य से ज्यादा प्रवास हो रहा है, वहां पंजीकृत मौतों की संख्या कम होगी, लेकिन अनुमानित मौतों की संख्या ज्यादा होगी.

इससे संभवतः इस बात की व्याख्या हो जाती है कि दिल्ली या चंडीगढ़, जहां कई राज्यों के  लोग काम करने के लिए आते हैं, में मृत्यु का पंजीकरण ज्यादा क्यों होता है.

लेकिन फिर सवाल है कि 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 20 अनुमानित मौतों से ज्यादा मौतों का पंजीकरण कैसे कर पाए और उसमें भी इतना ज्यादा का अंतर क्यों है?

रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने रजिस्ट्रार जनरल कार्यालय को एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी है, इस रिपोर्ट के प्रकाशन तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला है.

लंदन के मिडिलसेक्स यूनिवर्सिटी के गणितज्ञ मुराद बानाजी, जो महामारी के दौरान मृत्यु दर पर नजर रखे हुए हैं, के मुताबिक, ‘दिल्ली और चंडीगढ़ के मामले में ‘राज्य के बाहर’ पंजीकरण साफ तौर पर एक मसला है, जहां लोग इलाज कराने या काम करने के लिए आते हैं. लेकिन आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में पंजीकृत मौतों की संख्या इतनी ज्यादा क्यों है, यह समझ से परे है.’

वे आगे कहते हैं, ‘यह दिखाने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है कि कुछ राज्यों में काफी बढ़ा हुआ पंजीकरण प्रवास के कारण है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अगर कोई यह तर्क देता है कि अतिरिक्त पंजीकरण ‘राज्य से बाहर’ होने वाले पंजीकरण हैं, तो इस दावे की पुष्टि करने के लिए आंकड़ा मुहैया कराने की जिम्मेदारी उनकी है.

एक सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और केंद्र सरकार के नेशनल हेल्थ सिस्टम रिसोर्स सेंटर के पूर्व एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर टी. सुंदररमन ने कहा, ‘आप उत्तर प्रदेश की कुछ मौतों के दिल्ली में जाने की उम्मीद कर सकते हैं, लेकिन आप अतिरिक्त पंजीकरण वाले सभी राज्य में ऐसा होने की उम्मीद नहीं कर सकते- ये सब एक ही पैटर्न के तहत नहीं आते हैं.’

उनका आगे कहना है, ‘अतिरिक्त मौतें इसलिए हो रही हैं, क्योंकि एसआरएस की मृत्यु दरें कम करके लगाए गए अनुमान हैं.’

दिल्ली की आंबेडकर यूनिवर्सिटी में कार्यरत अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर दीपा सिन्हा का कहना है, ‘हां, प्रवास के इस अंतर की एक हद तक भूमिका हो सकती है, लेकिन ज्यादातर प्रवासी उस आयुवर्ग कै हैं, जिसमें आपको उच्च मृत्यु दर नहीं दिखाई देगी. और आप इतने सारे राज्यों में इतने बड़े स्तर के अंतर नहीं देखेंगे.’

बानाजी और अन्यों ने भी यही बातें कहते हुए कुछ अध्ययन प्रकाशित किए हैं.

अगली बात, एसआरएस का सर्वे प्रारूप और सैंपलिंग विधि में हर दस साल के बाद नई जनगणना रिपोर्ट के आने के बाद संशोधन किया जाता है. यह काम 2014 में किया गया था.

आंकड़े दिखाते हैं कि 100 फीसदी से ज्यादा मृत्यु पंजीकरण वाले राज्यों में पंजीकृत मौतों की संख्या और एसआरएस द्वारा अनुमानित मौतों की संख्या में अंतर 2014 के बाद से बढ़ता ही गया है.

विसंगतियों को सुधारने की कोशिश

बानाजी और उनके सहयोगी आशीष गुप्ता- जो हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में डेविड ई बेल फेलो हैं, ने अपनी गणना में एसआरएस मृत्यु अनुमानों में इस विसंगति को एडजस्ट किया है. ऐसे राज्यों के मामले में, जिनमें मृत्यु पंजीकरण की असली संख्या एसआरएस की संख्या से ज्यादा थी, वहां उन्होंने पंजीकृत मौतों की वास्तविक संख्या को उस साल उस राज्य में हुई मौतों की संख्या के तौर पर लिया.

उन्होंने सरकार द्वारा सीआरएस डेटा को एसआरएस के अनुमानों के साथ समायोजित करने की परंपरा के आधार पर ऐसा किया.

जब भी सरकार के पास पंजीकृत मृत्यु की संख्या अनुमानित मृत्यु की संख्या से ज्यादा होती है, यह पंजीकरण दर को 100 फीसदी करार देती है- इसके पीछे तर्क यह है कि मृत्यु पंजीकरण के आंकड़ों को मृत्यु के कम अनुमान के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है. लेकिन विचित्र बात है कि जब बात कुल मृत्यु की आती है, तो यह अनुमानित मृत्यु की कम संख्या पर ही अड़ी रहती है.

मिसाल के लिए, 2018 में सरकार ने पाया कि आंध्र प्रदेश में पंजीकृत मृत्यु की संख्या 3.76 लाख थी, जबकि इसका एसआरएस अनुमान 3.53 लाख (6.42 प्रतिशत ज्यादा) था. इस आधार पर इसने कहा कि मृत्यु पंजीकरण 100% है. लेकिन भारत में मृत्यु की कुल संख्या की गिनती करने के लिए सरकार ने आंध्र प्रदेश की अनुमानित मृत्यु की कम संख्या 3.53 लाख का उपयोग किया!

सीआरएस 2018 हाइलाइट किए गए राज्यों में 100% पंजीकरण मानता है (पीला हाइलाइट, ऊपर की तालिका में), लेकिन अनुमानित मौतों की संख्या पंजीकृत लोगों की संख्या से कम है. (पीला हाइलाइट, नीचे की तालिका में) स्रोत: सीआरएस 2018

बानाजी और गुप्ता अपने शोध में इस बात का ध्यान रखते हुए पंजीकृत मौतों की संख्या को उस साल मृत सभी लोगों की वास्तविक संख्या के तौर पर लेते हैं.

रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने 2020 और उससे पहले के 9 सालों के लिए कुल वार्षिक मौतों की गणना करने के लिए उनकी विधि का ही पालन किया. 2020 के लिए कुल मृत्यु 91.8 लाख होगी, जिसका मतलब है कि सीआरएस के माध्ययम से मृत्यु का पंजीकरण 88.4 फीसदी है, न कि 99.9 फीसदी, जैसा कि सरकार का दावा है.

20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के डेटा को आंशिक तौर पर सुधारने के बाद पाई गई यह संख्या भी एनएफएचएस के अनुमानित मृत्यु पंजीकरण दर की तुलना में कम करके किया गया आकलन ही नजर आता है.

एनएफएचएस के अनुमानों पर भरोसा क्यों करें ?

अगर हम स्वतंत्र जनसांख्यिकीविदों और विशेषज्ञों की गणनाओं को छोड़ दें, तो हम वार्षिक मौतों की संख्या को लेकर सरकार के अपने एनएफएचस अनुमानों पर वापस जा सकते हैं.

एसआरएस के तरीके के उलट, एनएफएचएस सर्वेक्षक सर्वे किए गए हर घर से एक साल में परिवार में मृत होने वाले लोगों की संख्या के साथ-साथ इन मौतों में से हुए पंजीकरण की संख्या के बारे में भी पूछते हैं.

एनएफएचएस कराने वाले केंद्र सरकार के इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइसंसेज के निदेशक केएस जेम्स ने समझाया, ‘99.9 फीसदी मृत्यु पंजीकरण का आंकड़ा मृत्यु पंजीकरणों और सैंपल रजिस्ट्रेशन प्रणाली के द्वारा अनुमानित मृत्यु अनुमानों के बीच तुलना पर आधारित है.’

‘एसआरएस के आधार पर दी गई मृत्यु दरों में भी हो सटीकता सकती है और कभी कम आकलन भी हो सकता है. यह एसआरएस सैंपल के कवरेज पर निर्भर करता है. सैंपल आधारित होने के कारण इसमें यह समस्या है.’

उन्होंने यह भी कहा कि एनएफएचएस ने 2016-2020 की अवधि के लिए 2019-2021 के बीच दो चरणों में डेटा संकलित किया, इसलिए औसत मृत्यु पंजीकरण दर इस अवधि के दौरान सामने आए अंतरों को दिखलाएगा.

2020 में उत्तर प्रदेश और तेलंगाना जैसे बड़े राज्यों ने आधिकारिक तौर पर यह स्वीकार किया कि उनके यहां मृत्यु पंजीकरण में कोविड-19 के कारण व्यवधान पड़ा है, जिसका नतीजा कम रिपोर्टिंग के तौर पर निकला है.

2020 में 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 31 के लिए एनएफएचएस मृत्यु पंजीकरण अनुमान एसआरएससस और सीआरएस के जरिये प्राप्त रजिस्ट्रेशन दर की तुलना में कम था. इससे पहले के चार सालों के लिए कम से कम 19 राज्यों के लिए यह निरंतर कम रहे हैं.

कुल मिलाकर देखा जाए, तो एनएफएचएस सर्वे के नतीजों ने भारत सरकार के कोविड-19 महामारी के कुशल प्रबंधन के दावों पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया और कोविड से जुड़ी मौतों को लेकिर डब्ल्यूएचओ के अनुमानों के खिलाफ इसकी दलीलें कहीं नहीं ठहरतीं. इसलिए, सरकार ने अपना पक्ष रखने के लिए अविश्वसनीय एसआरएस अनुमानों की मदद लेने का फैसला किया.

(लेखक रिपोर्टर्स कलेक्टिव के सदस्य हैं.)

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