आठ सालों से नरेंद्र मोदी उसी राजनीति को पोषित करते आए हैं, जिसका अधिकांश ‘होने वाले’ अग्निवीर प्रतिनिधित्व करते हैं. और किसी को हैरानी नहीं होगी अगर वे व्यक्तिगत तौर पर इस योजना की निगरानी करें और 2024 के चुनावों से पहले ही इसमें उचित बदलाव भी कर दें.
सामान्य तौर पर किसी बड़े नीतिगत बदलाव से पहले उसे जांचने के लिए बिना किसी प्रचार के पायलट प्रोजेक्ट को अंजाम दिया जाता है.
थल सेना उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बीएस राजू ने कहा है कि अग्निपथ के तहत पहले बैच के सशस्त्र बलों में प्रवेश को एक पायलट प्रोजेक्ट माना जाना चाहिए: ‘भर्ती की पद्धति, सैनिकों को (चार साल बाद) सेना में बनाए रखने या (सेवा) विस्तार देने का प्रतिशत… में यदि किसी बदलाव की जरूरत महसूस होती है, तो इसे एक बार हमारे पास पर्याप्त डेटा होने के बाद चार-पांच साल में किया जाएगा.’
यही कारण है कि इसे एक पायलट प्रोजेक्ट माना जाना चाहिए. जनरल राजू ने यह इशारा करते हुए कि बदलावों की संभावना है, कहा, ‘हमने इसे पायलट प्रोजेक्ट नहीं कहा होगा, लेकिन यह स्पष्ट रूप से ‘वर्क इन प्रोग्रेस’ है.’
जनरल राजू सत्ताधारियों की हैरान करने वाली अक्षमता छुपाने के लिए- जिसने शासन को सुर्खियों में छा जाने वाले इवेंट समझने वाले अपने स्वभावानुसार अग्निपथ योजना को एक नाटकीय पहल बनाकर पेश किया है- शायद स्पष्ट बोल रहे हैं.
यदि सेना उप प्रमुख द्वारा इस्तेमाल शब्दों के मुताबिक, इस योजना को एक चुपचाप कार्यान्वित किए जा रहे पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर पेश किया जाता तो नाराज युवा सड़क पर हिंसा नहीं करते, जैसा उन्होंने बीते दिनों कई राज्यों में किया. शर्मनाक बात यह है कि सुर्खियों की लालसा में आधी-अधूरी जानकारी देकर नुकसान कर चुकने के बाद सरकार अब सेवा प्रमुखों के पीछे छिप रही है, जिनके सिर पर अब डैमेज कंट्रोल का पूरा भार आ पड़ा है.
ऐसा लगता है कि जब चीजें गड़बड़ा जाती हैं, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो अपने बेजोड़ राजनीतिक संवाद के लिए जाने जाते हैं, लंबे समय के लिए चुप्पी साध लेते हैं.
इस योजना की घोषणा और जिस तरह कृषि कानूनों की बिना किसी चर्चा के नाटकीय रूप से घोषणा की गई थी, मानो कोई कृषि क्रांति होने वाली हो, के बीच असाधारण समानताएं हैं. सुर्खियां बटोरने वाली घोषणाओं के बाद श्रृंखलाबद्ध तरीके से कुछ कदम वापस लिए गए, फिर इन ‘कृषि सुधारों’ को अस्थायी रूप से रोक दिया गया और आखिरकार वो निरस्त ही कर दिए गए. इन कानूनों के रद्द होने में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों की बड़ी भूमिका थी, क्योंकि किसान ज्यादातर ‘पिछड़े’ समुदायों से संबंधित हैं, जिसे भाजपा बड़ी मेहनत से अपने पास ही रखना चाहती है.
इसी तरह, अग्निपथ योजना का विरोध करने वाले युवा, विशेषकर हिंदी भाषी राज्यों में, एक ऐसे वर्ग से हैं, जिसे भाजपा अपने पक्ष में रखना चाहेगी. सरकार स्पष्ट तौर पर विरोधों की तीव्रता और पैमाने से स्तब्ध थी, जो इतने सहज और व्यापक थे कि विपक्ष को भी समझने में थोड़ा समय लगा कि क्या हो रहा है.
दो साल के अंतराल के बाद सेना में भर्ती शुरू होने का इंतजार कर रहे युवाओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया को देखते हुए सरकार ने पहले ही अग्निपथ नीति में कुछ बदलाव किए हैं. आयु सीमा 21 से 23 तक करने का उद्देश्य उन लोगों को आश्वस्त करना है जो कोविड-19 की अवधि के दौरान भर्ती से चूक गए थे. इसके अलावा, सेना के अधिकारी चार साल की सेवा के बाद सेवानिवृत्ति पर करीब 11 लाख रुपये की एकमुश्त राशि जैसी अन्य लुभावने पहलुओं पर जोर दे रहे हैं.
महिंद्रा, टाटा और अंबानी जैसे उद्योगपतियों को यह आश्वासन देने के लिए लाया गया है कि इन अग्निवीरों को सेवानिवृत्ति के बाद उचित प्लेसमेंट मिलेगा. मध्य प्रदेश के एक प्रमुख भाजपा नेता ने तो पार्टी कार्यालय में सुरक्षा गार्ड की नौकरी के लिए अग्निवीरों को रखने का आश्वासन दिया. भाजपा नेता नियमित तौर पर 17 साल की पेंशनशुदा नौकरी पाने पर मिली प्रतिष्ठा और स्तर को पूरी तरह से भूल गए- जो अधिकारी रैंक से नीचे के कार्मिकों (पीबीओआर) के लिए सुनिश्चित है.
जवानों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद की संभावनाओं के बारे में बताने के प्रयास में सरकार द्वारा इस पहलू को अभी तक समझा नहीं गया है.
द वायर में प्रकाशित एक लेख में राहुल बेदी ने एक और समस्या पर प्रकाश डाला है कि सरकार अब यह बताने की जी-जान से कोशिश कर रही है कि अग्निपथ योजना का बढ़ते पेंशन बिल पर होने वाली बचत से कोई लेना-देना नहीं है, जो कि रक्षा व्यय का 22% तक पहुंच गया है, जो किसी भी आधुनिक सैन्य प्रतिष्ठान के सर्वाधिक आंकड़ों में से एक है.
राजनीतिक रूप से पेंशन में बचत की बात भाजपा के लिए विनाशकारी होगी, क्योंकि ‘वन रैंक वन पेंशन‘ पर सशस्त्र बलों के लिए पेंशन प्रतिबद्धताओं पर वह खुद को अन्य राजनीतिक दलों से श्रेष्ठ मानती है.
ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी अग्निवीर के राजनीतिक संदेश के बारे में समान रूप से चिंतित हैं, खासकर हिंदी भाषी क्षेत्र में, जहां भाजपा को अपनी अधिकांश लोकसभा सीटें मिलती हैं.
मोदी भले ही नीति को लागू करने में अक्षम रह सकते हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक चतुराई को कम नहीं आंका जा सकता. आठ सालों से उन्होंने उसी राजनीति को पोषित किया है जिसका अधिकांश ‘होने वाले’ अग्निवीर प्रतिनिधित्व करते हैं, और किसी को हैरानी नहीं होगी अगर वे व्यक्तिगत तौर पर इस योजना की निगरानी करें और 2024 के चुनावों से पहले ही उचित बदलाव भी कर दें. आखिरकार जनरल राजू के अग्निपथ को ‘पायलट प्रोजेक्ट’ बताने के अपने राजनीतिक इस्तेमाल भी हो सकते हैं.
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