केंद्र सरकार के मुताबिक़, कोविड महामारी के दौरान क़रीब 1.5 लाख बच्चे अनाथ हुए, जिनमें से 10,386 बच्चों ने दोनों मां-बाप को खो दिया, 1,42,949 बच्चों ने अपने किसी एक अभिभावक को खोया, वहीं 492 बच्चे बेघर हो गए. ऐसे बच्चों के लिए केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी कई योजनाओं के ज़रिये मदद की बात की थी.
नई दिल्ली: ‘वो बच्चा सिर्फ़ 14 साल का था और मां-बाप दोनों कोविड-19 से ख़तम हो गए थे. बच्चा बाहर खेल रहा था कि मोटरसाइकिल पर उसका कोई विश्वसनीय आदमी आया और बिहार ले गया. वहां नालंदा में ईंट की भट्टी में बतौर बाल मज़दूर उसको बेच आया.’
‘और एक मामला 15 साल की बच्ची का था. वो कमाने के लिए झारखंड से मुंबई गई थी. ठाणे में एक घर में नौकरानी थी. वहां कोविड फैला तो उस बच्ची को बुखार हो गया. उसके मालिक ने कोई टेस्ट करवाया नहीं करवाया और बस घर से निकाल दिया!
बेचारी मुंबई में अकेले कहां-कहां भटकी तो कहीं से उसको मेरा नंबर मिला. मुझे कॉल आया तो मैंने फेसबुक पर उसके लिए पोस्ट लिखा. तब जाकर उसको झारखंड उसके घर लाने की कार्रवाई शुरू हुई. यौन-शोषण के तो इतने मामले रहे कि क्या बताऊं.’
कोविड त्रासदी में अनाथ हुए बच्चों की परिस्थितियों के बारे में जब झारखंड में कार्यरत समाजिक कार्यकर्ता बैद्यनाथ कुमार बता रहे थे तो मानो जितनी वीभत्स परिस्थितियों की आप कल्पना कर सकते हैं वह एक सच्चाई के रूप में आपके सामने मुंह बाए खड़ी हो गई.
कोविड त्रासदी के दौरान साल 2020 में ट्विटर से लेकर फेसबुक पर छोटे-छोटे बच्चों की मां या पिता या दोनों की मौत को लेकर कई पोस्ट वायरल हुए और अब जब इस त्रासदी को लगभग दो साल हो चुके हैं, यह जानना ज़रूरी है कि
- सरकार कितने अनाथ बच्चों को सरकारी योजना से जोड़ पाई है?
- बच्चों की शिक्षा के साथ अन्य जरूरतों आदि का ख़्याल कैसे रखा जा रहा है?
भारत में कोविड त्रासदी के दौरान कितने बच्चे अनाथ हुए
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के मुताबिक़, क़रीब 1.5 लाख बच्चे अनाथ हुए हैं जिनमें से 10,386 बच्चों ने दोनों मां-बाप को खो दिया, 1,42,949 बच्चों ने अपने किसी एक अभिभावक को खोया, वहीं 492 बच्चे बेघर हो गए.
सबसे ज़्यादा आंकड़े ओडिशा (26,318) और फिर महाराष्ट्र (20,429) से हैं.
हालांकि चिकित्सा के क्षेत्र में विश्व प्रसिद्ध द लांसेट जर्नल ने अपना अध्ययन (फरवरी 2022) में भारत में अनाथ बच्चों की गिनती क़रीब 19 लाख बताई थी (मार्च 2020-अक्टूबर 2021).
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो कहते हैं कि लांसेट के अध्ययन पर भारत ने आपत्ति जताते हुए कड़ी प्रतिक्रिया दी थी और यह कहा था कि जर्नल ने अपने आंकड़ों में कोविड के साथ-साथ उन सभी बच्चों की भी गिनती कर ली है जिनके अभिभावक किसी और रोग के कारण गुजरे, या अभिभावकों के अलावा, उनके कोई और रिश्तेदार (जैसे दादा-दादी) नहीं रहे इसलिए लांसेट का डेटा ज़मीनी हक़ीक़त से मेल नहीं खाता.
अनाथ बच्चे और सरकारी योजना
साल 2021 में दिल्ली में रहने वाली सुमन अपने भांजे, प्रयाग को पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन योजना से जोड़ने के लिए चाइल्ड हेल्पलाइन 1098 पर कॉल करती हैं. प्रयाग ने अपने मां-बाप को कोविड में खो दिया. साल 2021 में 12 साल का यह बच्चा अनाथ हो गया.
सुमन ने बताया कि उनको वहां से जानकारी मिली कि केंद्र सरकार की इस योजना के साथ-साथ राज्य सरकार की अपनी योजना से भी प्रयाग जैसे बच्चों को जोड़ा जा सकता है.
दिल्ली सरकार 2000 रुपये प्रति माह देने के साथ ही अपने एक अभिभावक को खोने पर 50,000 रुपये और दोनों को कोविड से खोने पर 1 लाख रुपये तक का मुआवज़ा दे रही है.
वहीं केंद्र सरकार की पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन योजना कोविड त्रासदी में अनाथ हुए उन बच्चों के लिए है:
- जो माता-पिता की मौत के समय 18 साल या उससे कम उम्र के हों
- मां-बाप दोनों को या वैध अभिभावकों को खो चुके हों.
- अभिभावकों की कोविड से मौत 11 मार्च 2020 से 28 फरवरी 2022 के बीच हुई हो.
योजना के तहत:
- समेकित बाल संरक्षण योजना (ICPS) योजना के तहत 18 साल तक मासिक 4000 हज़ार रुपये मिलेगा. (यह पहले 2000 रुपये था, बाद में से बढ़ाकर 4,000 रुपये किया गया.)
- बच्चे के खाते में किस्त में 10 लाख रुपये चढ़ेंगे जिसमें से उसको 18 साल से 23 साल तक मासिक स्टाइपेंड मिलेगा
- बच्चे के 23 साल पूरे होने पर 10 लाख रुपये मिलेंगे
- बीमारी या अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के लिए बच्चे को 5 लाख की आयुष्मान भारत योजना से भी जोड़ा जाएगा
- बाकी बच्चे की उम्र के हिसाब से स्कूल, कॉलेज और पढ़ाई के लिए अन्य व्यवस्था के प्रावधान हैं, जिसमें मुफ़्त में क़िताब, यूनिफॉर्म, शिशु-सेवा जैसी चीज़ें शामिल हैं.
इसके साथ ही अलग-अलग राज्यों ने कोविड त्रासदी में अनाथ बच्चों को लेकर अपनी-अपनी योजना की घोषणा भी की थी, जैसे उत्तराखंड की वात्सल्य योजना, छत्तीसगढ़ की महतारी दुलार योजना, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बाल सेवा योजना या फिर केरल की 3 लाख रुपये और 2000 मासिक राशि की घोषणा वाली योजना. इन सब योजनाओं के नियम भी अलग-अलग हैं.
अब तक कितने बच्चों को मिला लाभ
‘कोविड के समय में मैंने अपना नंबर अख़बार में छपवाया जिससे बच्चे या उनके रिश्तेदार हमसे संपर्क कर पाए और हम उनको सरकार की योजनाओं के बारे में बता सकें.’
झारखंड के खूंटी ज़िले की बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष तनुश्री ने ऐसे कई बच्चों की मदद की. इसमें से एक रहे जामताड़ा ज़िले के 16 साल के अंशु, जो अपनी क्लास के टॉपर थे लेकिन कोविड में अपने दोनों मां-बाप को खो दिया.
वह बताते हैं ‘मैंने मैम का वो विज्ञापन देखा और फोन लगाया. उसके बाद मुझे पीएम केयर्स योजना से मैम ने जोड़ा ताकि मेरी पढ़ाई जारी रह सके. मेरे पेरेंट्स का सपना था कि मैं आईआईटी करूं…’
यह बोलते हुए उनकी आवाज़ भारी हो गई. अभी उनकी पढ़ाई का खर्च पीएम केयर्स योजना से चल रहा है और 18 साल तक अंशु को हर महीने 2,000 रुपये पीएम केयर्स और 2000 रुपये झारखंड की अपनी योजना से उनको मिल रहा था. वह अपने चाचा के साथ रहते हैं. इसी साल अंशु 18 साल के हो गए हैं.
इसके साथ ही तनुश्री ने बताया कि उन्होंने दो ऐसे बच्चों को भी लाभांवित करवाया जो हॉकी के खेल में अच्छे हैं और खूंटी में केंद्रीय स्कूल में पढ़ाई के साथ खेलकूद पर भी ध्यान देते हैं.
जिन बच्चों के रिश्तेदार नहीं रहते और उनके बैंक खाते भी नहीं होते हैं तो उनका खाता ज़िला अधिकारी खुलवाते हैं. पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन योजना का पूरा डेटा लेने के लिए जब आरटीआई आवेदन डाला, तो जवाब में यह आंकड़े मिले-
राज्य के हिसाब से पीएम केयर फॉर चिल्ड्रन फंड से कितने अनाथ बच्चों को अब तक जोड़ा गया, उसका डेटा: (डेटा जुलाई 2022 तक जो अपडेट है.)
पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन योजना से बच्चों को जोड़ने में क्या हैं चुनौतियां
- 'केवल 18 साल से कम और दोनों मां-बाप को खो चुके बच्चों के लिए ही है योजना'
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि यह योजना केवल उन बच्चों के लिए हैं जिन्होंने अपने दोनों यानी मां-बाप दोनों को खो दिया हो और जिनकी उम्र 18 साल से कम है.
कृति भारती राजस्थान में अपना गैर सरकारी संगठन सारथी ट्रस्ट चलाती है, उनका मानना है कि जिनके पिता का निधन हो गया है और केवल मां है, वह कमाती नहीं है या फिर कोई भी कमाऊ अभिभावक नहीं रहते हैं तो उस बच्चे के लिए कितनी परेशानी की बात हो जाती है. साथ ही 18 साल से ज़्यादा के बच्चे को भी इस योजना का लाभ नहीं मिलेगा.
उनके पास ऐसे कई मामले आए जिनको फिर उन्होंने राजस्थान की पालनहार योजना से जोड़ा. इसके तहत अगर बच्चा किसी एक अभिभावक को भी कोविड के चलते खोता है उसको मासिक भत्ता मिलता है, साथ ही कई और सुविधा भी मुहैया कराई जाती हैं.
कृति कहती हैं, 'ऐसे में राज्य सरकारों की कुछ योजना काम आ सकती है जिसमें यह सख्त तौर पर नहीं लिखा है कि बच्चे के दोनों मां-बाप का नहीं होना ज़रूरी है. हालांकि हर राज्य के बाल संरक्षण विभाग की कोरोना को लेकर अपनी-अपनी योजनाएं हैं, अपने-अपने नियम हैं.'
- बच्चों को चिह्नित करना
चूकि कोविड त्रासदी के दौरान साल 2020-2021 तक कई बार लॉकडाउन, कर्फ्यू लगे जिससे लोगों की आवाजाही बाधित तो हुई लेकिन मज़दूरों का पलायन बड़ी मात्रा में शहरों से गांव की तरफ़ होते देखने को मिला.
सरकारी नियम के मुताबिक ऐसे बच्चों को चिह्नित करने के लिए,
शहरी इलाकों में ज़िला अधिकारी को शिशु हेल्पलाइन 1098, ज़िला बाल संरक्षण विभाग, पुलिस और गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर ऐसे बच्चों को चिह्नित करना रहा.
वहीं, ग्रामीण इलाकों में ग्राम पंचायत, आंगनवाड़ी और आशा नेटवर्क के ज़रिये ऐसे बच्चों की खोज करनी रही.
बैद्यनाथ कुमार के अनुसार, झारखंड में गृह मंत्रालय की भावी योजना के तहत बनाए गए 16 एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट में से मात्र 2 या 3 ही यूनिट सही मायने में सक्रियता से कार्यरत रहीं.
कृति भारती बताती हैं, 'हालांकि संगठनों को सरकार की तरफ़ से पास मिले थे जिसके ज़रिये वह बाहर निकलकर कार्य कर सकते थे लेकिन फिर भी अपनी जान की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कई संगठन तो उस दौरान पूरी टीम के साथ काम ही नहीं कर पा रहे थे. वहीं जो काम कर रहे थे उनको बच्चों को चिह्नित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था क्योंकि पलायन की गति काफ़ी तेज़ थी.'
कृति ने बताया, 'रही बात आंगनवाड़ी में जो महिलाएं कार्यरत हैं वह क़ाग़ज़ पर भले ही शिक्षित लगे लेकिन उनके साथ काम करने पर पता चलता है कि उनकी शिक्षा उतनी भी नहीं कि वह ऐसी योजना के प्रति जागरुकता फैलाने में सहयोग कर सके.'
चिह्नित करने की चुनौती में मानव तस्करी और देह-व्यापार भी बड़ा मुद्दा रहा है. हालांकि बैद्यनाथ कुमार से जब यह पूछा कि एनसीआरबी की 2020 की रिपोर्ट में मात्र 1,651 मानव तस्करी के केस रिपोर्ट हुए, वहीं 2019 में यह आंकड़ा 2111 था. तब बैद्यनाथ कुमार ने कहा, 'एनसीआरबी की रिपोर्ट में केस कम इसलिए हैं क्योंकि कोरोना महामारी, लॉकडाउन, पलायन की वजह से कितने बच्चे तो कहां गए, क्या हुआ पुलिस थाने में रिपोर्ट ही नहीं हुए होंगे. तो आंकड़े तो कम अपने आप नज़र आएंगे.'
वहीं उत्तर प्रदेश में फ़तेहपुर में ज़िला समाज कल्याण अधिकारी (अब सेवानिवृत्त) के तौर पर कोविड के समय में कार्यरत रहे कृष्ण कुमार मिश्रा ने बताया कि जब ज़िला प्रोबेशन अधिकारी छुट्टी पर चले गए तो उनको बच्चों को चिह्नित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी.
फ़तेहपुर में 35 अनाथ बच्चों को केंद्र सरकार की नहीं बल्कि राज्य सरकार की मुख्यमंत्री बाल सेवा योजना से उन्होंने बच्चों को जोड़कर लाभांवित कराया था.
हालांकि उन्होंने बताया कि शहरी इलाकों में तो बच्चों को चिह्नित करना उतना मुश्किल नहीं रहा जितना ग्रामीण इलाकों में स्थिति चुनौतीपूर्ण रही. जागरुकता कम होने के कारण वहां से बच्चे कम ही चिह्नित हो पाए.
- मृत्यु प्रमाण पत्र से लेकर कोविड से हुई मौत का प्रमाण
साल 2021 में मध्य प्रदेश सरकार ने प्रदेश के अनाथ बच्चों को प्रति माह 5,000 रुपये देने की घोषणा की थी. उसी दौरान मध्य प्रदेश के सिवनी ज़िले में रहने वाले 16 वर्षीय हनुशीष ने अपने दोनों मां-बाप को कोविड के चलते खो दिया. अपनी दादी के साथ वह भोपाल नगर निगम से मृत्यु प्रमाण पत्र लेने गया तो उन्होंने प्रमाण पत्र में मृत्यु की वजह कोविड लिखी ही नहीं. जबकि बच्चे के पास अस्पताल से जो सर्टिफिकेट था उसमें कोविड से मृत्यु हुई है ऐसा लिखा हुआ था. लेकिन फिर भी मृत्यु प्रमाण पत्र पर यह नहीं लिखा गया.
इसके कारण वह योजना से वंचित रह गए, जिसके बाद मीडिया में ख़बर चली.
साल 2018 से 2021 तक बैद्यनाथ कुमार खूंटी की बाल संरक्षण समिति के सदस्य रहे थे. उन्होंने बताया कि 14 साल के बच्चे (जिसे ईंट की भट्टी से बचाया गया था) को जब पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन योजना ने जोड़ने की बात आई तो सबसे पहला काम तो उनके दोनों अभिभावकों की मृत्यु का प्रमाण पत्र जुटाना था.
वह बताते हैं, 'नियम यह रहा कि पहले हमने उसके घर को सत्यापित किया जिससे पहचान तय हो, आधार कार्ड से यह मुमकिन हुआ. इस बच्चे के साथ यह सही था कि मां-बाप सरकारी अस्पताल में भर्ती थे तो वहां से उनके कोविड वॉर्ड में भर्ती होने की पुष्टि हो पाई. ऐसे करके मृत्यु प्रमाण पत्र ग्राम पंचायत अधिकारी ने दे दिया.'
चुनौती तब आई जब उनको कुछ बच्चे ऐसे मिले जिनके मां-बाप की मृत्यु घर पर ही हुई या फिर अस्पताल में कोविड की जगह किसी और रोग के चलते मृत घोषित कर दिया गया. तो ऐसी परिस्थिति में उनके मुताबिक, 'किसी मामले में गांव के मुखिया से हमने पुष्टि की. पता लगाया कि क्या वाकई में इसके अभिभावक कोविड से गुजरे. गांव के लोगों से इसके बारे में पूछताछ की. अगर किसी डॉक्टर से दवाई की पर्ची ली होती है जो कोविड में इस्तेमाल होती है तो उसको कोविड प्रमाण पत्र के तौर पर ले लेते हैं. लेकिन कई केस में मुश्किल हो जाता है पुष्टि करना तो हम पीएम योजना की जगह उसको बाल संरक्षण विभाग की जो अनाथ बच्चों से जुड़ी आईसीपीएस योजना है उससे जोड़ने की कोशिश करते हैं.'
आईसीपीएस योजना यानी समेकित बाल संरक्षण योजना में अभिभावक कोविड से गुजरे हों या नहीं, जो भी बच्चा किसी भी कारण से समाज में असुरक्षित है उसको प्रतिमाह 2000-3000 रुपये के बीच मिलने का प्रावधान है. यह योजना 2009 से हर राज्य के बाल संरक्षण विभाग चलाते आए हैं.
- किसी पर कर्ज़ तो किसी की संपत्ति का मामला
एनसीपीसीआर के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने बताया कि दिल्ली में एक ऐसे बच्चे का मामला उनके पास आया था जिसमें बच्चे के परिवार में कोई नहीं बचा था और वह आर्थिक रूप से मजबूत घर का लड़का था तो परिवार वाले सारी संपत्ति पीछे छोड़ गए थे. इसके बाद उसके परिवार के जो बाकी के रिश्तेदार थे वह संपत्ति हड़पने की होड़ में लग गए.
उन्होंने बताया कि मामले को कोर्ट से लेकर हर लिहाज़ से उनके विभाग ने संभाला और सुलह करवाने तक की स्थिति तक मामले को लेकर आए.
लेकिन उन बच्चों का क्या जो अपने मां-बाप के कर्ज़ तले दब गए.
मई 2021 में मध्य प्रदेश की वनिशा पाठक ने अपने मां-बाप को खो दिया था. वनिशा अभी 18 साल की भी नहीं हुई है और उनके पास एलआईसी से साल 2022 में 30 लाख के होम लोन से जुड़ा नोटिस आया. हालांकि जब उन्होंने एलआईसी को जवाब भेजा कि वह अभी बालिग भी नहीं है तो वहां से उन्हें सुनिश्चित किया गया कि जब तक वह 18 साल की नहीं होगी, उन्हें नोटिस नहीं भेजा जाएगा. वनिशा अपने छोटे भाई के साथ अपने मामा जी के यहां रहती हैं.
- 'जो मासिक पैसे मिल रहे हैं वह पर्याप्त नहीं'
राजस्थान के रुद्र प्रताप सिंह एक 15 साल के हैं जिनको पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन योजना से जोड़ा गया. उनसे जब इस योजना के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, 'मैं अभी 2,500 प्रति माह राज्य की योजना और 2,000 रुपये प्रति माह पीएम योजना से पा रहा हूं. स्कूल की फीस, घर का किराया पीएम केयर दे रहा है. मैं किसी तरह की कंप्यूटर स्किल सीखना चाह रहा हूं जिससे रोज़गार का इंतज़ाम हो सके. मुझे लैपटॉप खरीदना है.'
कृति कहती हैं, 'अब कंप्यूटर स्किल सीखने के लिए पहले लैपटॉप की ज़रूरत है. वैसे भी आप सोचिए क्या 4,500 प्रति माह में बच्चे के लिए राशन से लेकर कपड़े तक सबका इंतज़ाम हो जाएगा? एक 2 साल के बच्चे के लिए डाइपर से लेकर उसका खाना तक कितना मंहगा है, तो यह तो 15 साल का बच्चा है.'
हालांकि जब इस मामले पर हमने बाल कल्याण समिति के एक सदस्य से बात की तो उन्होंने कहा कि लैपटॉप भी अगर चाहिए तो वह भी उपलब्ध करवाया जा सकता है. आवेदन डालने पर यह सब सुविधा मिलेगी क्योंकि पीएम योजना से जुड़ी धनराशि का संज्ञान सीधे ज़िला आयुक्त लेते हैं.
कितने बच्चों को 2020-2022 के बीच गोद लिया गया
भारत में गोद लेने की प्रक्रिया में कारा (CARA) सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी की अहम भूमिका होती है.
कृति भारती बताती हैं, '2015 में इसके गठन के बाद गोद लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता आई वरना तो पहले कई निजी संगठन गैर क़ानूनी ढंग से इस प्रक्रिया को अंजाम देते थे.'
सुप्रीम कोर्ट में बतौर वक़ील कार्यरत विवेक नारायण शर्मा के अनुसार, भारत में गोद लेने की दर विदेशी देशों से बेहद कम है और इसका कारण है- यहां के गोद लेने के क़ानून का जटिल होना. ऐसे में कोविड के समय कोर्ट में कई आवेदन इसको लेकर आए कि दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया में कोविड त्रासदी को देखते हुए थोड़ी ढील दी जाए. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर संज्ञान लिया था.'
यहां यह भी जानना ज़रूरी है कि भारत में केवल 0-18 साल तक के बच्चों को ही गोद लिया जा सकता है जिससे वो बच्चे फिर असुरक्षा की श्रेणी में आ जाते हैं जो 18 साल से बड़े हैं और अनाथ है.
आरटीआई के मुताबिक साल 2020-2022 में इतने बच्चों को गोद लिया गया:
राज्य के हिसाब से 2020-2021 तक गोद लेने का डेटा:
वहीं इन बच्चों की सबसे बड़ी प्राथमिकता होती है शिक्षा और मानसिक तौर पर किसी का साथ होना.
कोविड के दौरान भारत सरकार ने संवाद नामक एक मानसिक सहयोग के तौर पर प्रोग्राम चलाया था.
बैद्यनाथ कुमार के अनुसार, पीएम केयर फॉर चिल्ड्रन के तहत मासिक पेमेंट मिलना शुरू हो गई है, वहीं केंद्र के शिक्षा विभाग से जब शिक्षा संबंधी डेटा मांगा तो उन्होंने बताया कि जिन बच्चों को पीएम केयर वाली योजना में आवेदन की स्वीकृति मिली है उनमें से कुछ बच्चे पहले से निजी स्कूल में पढ़ते थे तो उनकी आर्थिक स्थिति के हिसाब से जिनकी फ़ीस माफ़ करवाई जानी थी वह की गई है.
यह भी बताया गया कि कुछ बच्चे स्कूल में न पढ़कर कोई हुनर सीखना चाहते हैं तो उनको ओपन यूनिवर्सिटी में दाखिला दिलवाने की प्रक्रिया जारी है. वहीं बच्चों को केंद्रीय विद्यालय में दाखिला भी करवाया जाएगा.
नियम के मुताबिक, जिलाधिकारी को साल में एक बार इन चिह्नित बच्चों से संवाद करना है या फिर बाल संरक्षण विभाग हर महीने कम से कम एक बार बच्चों से बात करे.
कृति भारती मानसिक तौर पर इन बच्चों को सहयोग देने पर कहती है, 'कई बच्चे अपने रिश्तेदारों के पास हैं और वहां जो ये कोविड का मासिक पैसा जाता है वह इन बच्चों पर खर्च होता भी है या नहीं, यह भी हम नहीं जानते. एक बच्चे का तो हमने ख़ुद केस देखा जहां उसको मिल रहा पैसा उसके रिश्तेदार अपने बच्चों में लगा रहे थे. ऐसे में एक दुरुस्त व्यवस्था की ज़रूरत है जो बच्चों के हक़ पर निगरानी रख सके.'
बैद्यनाथ कुमार कहते हैं, 'डीएम ख़ुद इतने कामों से लदे होते हैं कि मुझे नहीं लगता संभव होगा. लेकिन संवाद ज़रूरी तो है मगर करे कौन?'
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)