साक्षात्कार: 2007 में भाजपा से अलग होने वाले गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता का कहना है कि मोदी ने ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के नारे को प्रोपेगेंडा में बदल दिया. बढ़ते हुए क़र्ज़ और स्पष्ट नीतियों के अभाव में गुजरात रसातल की ओर चला गया है.
नई दिल्ली: ऐसे में जब भाजपा अपने विकास के गुजरात मॉडल का इस्तेमाल गुजरात और हिमाचल प्रदेश के आने वाले विधानसभा चुनावों में अपने तुरूप के पत्ते के तौर पर करने की तैयारी कर रही है, भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता ने राज्य के औद्योगिक मॉडल की तीखी आलोचना की है.
2002 में राजनीतिक विदाई से पहले, मेहता का राज्य की राजनीति में एक लंबा करिअर रहा. द वायर को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने पिछले दशक में गुजरात की विभिन्न सरकारों की नाकामियां गिनाईं. सरकारी आंकड़ों के हवाले से ही उन्होंने गुजरात मॉडल की प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े किए, जो उनके मुताबिक सिर्फ अमीरों की तरफदारी करता है.
प्रस्तुत हैं इंटरव्यू के मुख्य अंश:
गुजरात में अगला विधानसभा चुनाव सिर पर है. आप इस समय के राजनीतिक हालात का आकलन किस तरह से करते हैं?
व्यापारी वर्ग भाजपा का सबसे अहम वोट बैंक था. लेकिन जीएसटी (को लागू किए जाने) के बाद, यह पूरा वोट बैंक दूसरी तरफ शिफ्ट कर गया है. इस गुजरात चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता, भाजपा के प्रति बढ़ रहा मोहभंग है. और इसने कुछ हद तक राजनीतिक माहौल को कांग्रेस के पक्ष में मोड़ दिया है.
अगर कांग्रेस जीतती है, तो यह भाजपा के खिलाफ पड़े नकारात्मक वोटों की वजह से होगा, न कि (कांग्रेस) पार्टी के प्रति प्रेम के कारण. कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती सत्ताधारी दल के खिलाफ इस भावना को चुनावी फायदे में बदलने की होगी.
अब तक यहां भाजपा इसलिए आसानी से जीतती रही, क्योंकि मुख्य विपक्षी दल के तौर पर कांग्रेस कहीं भी इसके नजदीक नहीं थी. लेकिन इस बार लड़ाई की जमीन थोड़ी समतल दिखाई दे रही है.
यहां हमें यह बात समझनी होगी कि गुजरात की वर्तमान कांग्रेस इकाई के पास प्रशासन का कोई पूर्व अनुभव नहीं है, क्योंकि यह पार्टी 1990 के दशक की शुरुआत से ही सत्ता से बाहर रही है.
एक पूरी पीढ़ी निकल गई है. पार्टी की इकाई इस समय, छोटे-छोटे गुटों में बंटी हुई है, जो एक-दूसरे के प्रति दुश्मनी का भाव रखते हैं. अगर पार्टी जीत के प्रति गंभीर है, तो इस स्थिति से बाहर निकलना होगा.
फिलहाल भाजपा रक्षात्मक मुद्रा में है. और अपने स्वभाव के काफी उलट कांग्रेस का रुख आक्रामक है. पहले के विपरीत ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व राज्य इकाई की सीधी देख-रेख कर रहा है और इसके भीतर की नकारात्मक आदतों पर भी लगाम कसे हुए है.
आपके अनुसार इन चुनावों में कौन से मुद्दे छाए रहेंगे?
फिलहाल भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं है. राज्यसभा में चुने जाने के बाद अमित शाह ने सदन के पटल पर बयान दिया कि भाजपा तीन मुद्दों पर चुनावों में जा रही है: नर्मदा (सरदार सरोवर परियोजना, वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति का निर्माण), (प्रधानमंत्री) गरीब कल्याण योजना और कुछ निश्चित ओबीसी तबकों के लिए कोटा, जो आरक्षण की नीति से बाहर रहे हैं.
इन तीनों मुद्दों को उठाने की योजना नाकाम हो गई है. नर्मदा का मुद्दा जनता में ज्यादा स्वीकार्यता हासिल नहीं कर पाया. दूसरी बात, गरीब कल्याण (योजना) को उठाने के लिए सारी तैयारियां कर लेने के बाद गुजरात सरकार को समझ में आया कि जनता के बीच इससे बहुत फायदा नहीं होगा. इसलिए उन्होंने इस कार्यक्रम को रद्द कर दिया.
इसी तरह राज्य सरकार ने निश्चित वर्गों के लिए कोटा की घोषणा करने के लिए तारीखें भी तय कर ली थीं, लेकिन उसे भी आखिरी मौके पर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.
इसलिए वे विकास की ओर वापस लौट गए हैं, क्योंकि उनके पास और कोई चारा नहीं है. और जहां तक विकास की बात है, उनकी हालत काफी पतली है.
आपके ऐसा कहने के पीछे क्या वजह है?
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि इस बार गुजरात में विकास के गुजरात मॉडल को भुनाया नहीं जा सकेगा.
राज्य के मुख्यमंत्री होने के अलावा आपने गुजरात के वित्त मंत्री और उद्योग मंत्री के तौर पर भी काम किया. आप उस वक्त गुजरात मॉडल की आलोचना कर रहे हैं, जब भाजपा संगठन इसको लेकर काफी उत्साहित है.
गुजरात मॉडल और कुछ नहीं, बस शब्दों की हेराफेरी है. गुजरात की जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयान करती है.
2004 में कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) ने गुजरात की वित्तीय स्थिति की जांच की थी. उस समय गुजरात पर कुल कर्ज 4,000 करोड़ से 6,000 करोड़ रुपये के आसपास था. कैग ने गुजरात को वित्तीय अनुशासन का पालन करने के लिए कहा था ताकि गुजरात को स्थायी तौर पर कर्जदार होने से बचाया जा सके.
लेकिन सरकार ने कैग की हिदायतों को नजरअंदाज कर दिया. राज्य सरकार द्वारा पेश किए गए ताजा बजट दस्तावेज के मुताबिक 2017 में गुजरात का कर्ज बढ़कर 1,98,000 करोड़ हो गया है.
ये सरकार के अपने आंकड़े हैं, जिनकी घोषणा इसने गुजरात राजकोषीय उत्तरदायित्व एक्ट (गुजरात फिस्कल रिस्पॉन्सबिलिटी एक्ट), 2005 के तहत फरवरी 2017 में की गई.
इसी तरह से, उसी दस्तावेज में हम गुजरात सरकार की प्राथमिकताओं के बारे में भी जान सकते हैं. किसानों को फायदा पहुंचाने वाली सब्सिडी 2006-07 से लगातार घटती गई है. 2006-07 में 195 करोड़ और 2007-08 में 408 करोड़ से यह 2016-17 में घटकर मात्र 80 करोड़ रुपये (संशोधित अनुमान) रह गई है.
अब इस सब्सिडी की तुलना ऊर्जा और पेट्रोकेमिकल्स क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी से कीजिए, जो अडानियों और अंबानियों के कब्जे में है. यह 2006-07 में 1,873 करोड़ से नाटकीय अंदाज में बढ़कर 2016-17 में 4,471 करोड़ रुपये (संशोधित अनुमान) तक पहुंच गई है.
इसी तरह से खाद्य और नागरिक आपूर्ति के लिए (आवंटन), जो कि गरीबों के लिए काफी ज्यादा अहमियत रखता है, इसी अवधि में 130 करोड़ से घटकर 52 करोड़ रुपये रह गया है.
जहां तक अर्थव्यवस्था का सवाल है, तो यह सरकार किस तरह से चल रही है, इसे कोई भी देख सकता है.
लेकिन, इस दौर में काफी औद्योगिक विकास भी हुआ है.
जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने हर दो साल में ‘वाइब्रेंट गुजरात’ समिट की शुरुआत की. सरकार ने हर साल एक करोड़ युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने का वादा किया था. लेकिन औद्योगिक विकास का रोजगार विकास पर शायद ही कोई असर पड़ा हो.
गुजरात सरकार ने किस तरह से सिर्फ पूंजीपतियों का ही पक्ष लिया है, यह दिखाने के लिए मैं आपको एक उदाहरण देता हूं. टाटा नैनो परियोजना मोदी के निमंत्रण पर गुजरात लाई गई थी.
टाटा ने यह शर्त लगाई कि वह उसी स्थिति में राज्य में परियोजना लेकर आएगी, जब राज्य सरकार उसे कर्ज देगी. तब सरकार ने नैनो प्रोजेक्ट को आकर्षक बनाने के दरवाजे खोल दिए. इसने परियोजना को टैक्स में भारी छूट, सस्ती जमीन और बिजली सब्सिडी दी.
टाटा ने कर्ज के तौर पर 33,000 करोड़ की मांग की थी. सरकार ने शून्य ब्याज दर पर 11,000 करोड़ रुपये अनुमोदित किए, जिसे 20 साल के बाद बराबर किस्तों में चुकाया जाना था.
टाटा को राज्य की रोजगार नीति का पालन न करने की भी इजाजत दी गई, जिसके मुताबिक जिस इलाके में फैक्टरी लगाई गई, उस इलाके से कुल श्रम बल के 85 फीसदी कामगारों को नौकरी देना अनिवार्य होता है.
इसके बावजूद नैनो धड़ाम से गिर गई लेकिन टाटा को सरकारी खजाने से आज भी वही फायदे दिए जा रहे हैं.
आप एक बहुत डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हैं. क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि राज्य बड़ी कंपनियों के लिए फूलों की सेज बिछाए हुए था, जबकि वे अपनी जिम्मेदारियां भी पूरी नहीं कर रहे थे.
सरकार की अपनी घोषणा के अनुसार वास्तव में जमा नहीं किया जा सका कर-राजस्व 31 मार्च, 2016 को 25,866.78 करोड़ रुपये था. इससे पिछले साल यह रकम 18,000 करोड़ रुपये थी.
हर साल यह रकम 7,000-8,000 करोड़ रुपये बढ़ जाती है. इससे राज्य सरकार की नीयत पर शक पैदा होता है. आखिर ऐसी कौन सी चीज है, जो बकाया करों को जमा करने से इसे रोक रही है. इससे सरकारी भ्रष्टाचार की ओर भी संकेत जाता है.
क्या आप भाजपा के भीतर किसी तरह की घबराहट देख रहे हैं? केंद्रीय वित्त मंत्री ने कारोबारियों को फायदा पहुंचाने के लिए जीएसटी के कुछ नियमों मे ढील दी है.
हां, निश्चित तौर पर वे घबराए हुए हैं. जिन राहतों की आप बात कर रहे हैं, वे बेमानी हैं. यह बस आंखों का धोखा है. ये चुनावी जादुगरी के सिवा और कुछ नहीं हैं.
अब देखिए, उन्होंने किन जगहों पर कुछ नियमों में ढील देने की कोशिश की है: कपड़े, हीरे, पापड़, खाखरा आदि… ये सब मुख्य तौर पर गुजरात से जुड़े हुए उद्योग हैं.
लेकिन मुझे लगता है कि व्यापारियों ने अपना मन बना लिया है. वे खुश नहीं हैं.
कई रिपोर्टों में यह भी कहा जा रहा है कि आरएसएस और उनसे जुड़े संगठनों ने भी केंद्र की भाजपा सरकार की ऐसी नीतियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है.
मैंने अपने पूरे करिअर में आरएसएस को काफी करीब से देखा है. इसके द्वारा की जाने वाली आलोचना सिर्फ एक हथकंडा है. जब आरएसएस यह देखता है कि चुनाव नजदीक आ गए हैं, तो वह भाजपा का विरोध करने के लिए अभियान शुरू कर देता है और इस तरह से उन लोगों का विश्वास जीतता है, जो ऐसी नीतियों का सबसे ज्यादा शिकार हुए हैं.
लेकिन, जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, आरएसएस कैडरों द्वारा विभिन्न मंचों से यह कहा जाने लगता है कि कांग्रेस उम्मीदवार को वोट देने का कोई मतलब नहीं है और वे लोगों को सांप्रदायिक आधार पर भड़काते हैं. उसके बाद वे लोगों से भाजपा को एक और मौका देने की गुजारिश करते हैं. यहां तक कि उनका स्वदेशी अभियान भी उनके इसी हथकंडे का हिस्सा है.
गुजरात पर वापस लौटते हैं. भाजपा सरकार ने हमेशा यह दावा किया है कि इसने गरीबों के जीवन में सुधार लाने का काम किया है. इस पर आपकी टिप्पणी?
मैं आपको दो ठोस उदाहरण देता हूं. 2007 में, यानी गुजरात में चुनाव के वर्ष, गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने काफी धूमधाम से ‘वन बंधु कल्याण योजना’ की शुरुआत की थी, जिसका मकसद आदिवासियों के जीवन को बेहतर बनाना था. उन्होंने इस योजना के लिए 15,000 करोड़ रुपये अलग किए थे.
यह कार्यक्रम ‘हर एक को घर, हर एक को आरोग्य’ के नारे के साथ शुरू हुआ था. इसके साथ ही उन्होंने आदिवासियों के लिए 5 लाख कौशल आधारित रोजगार का सृजन करने और आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बारहमासी सड़कों के निर्माण का भी वादा किया था.
सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक इन लक्ष्यों का 5 प्रतिशत भी हासिल नहीं किया जा सका है.
इसी तरह से, 6 जुलाई, 2007 को मोदी ने तटीय क्षेत्रों के विकास के लिए ‘सागर खेडू सर्वांगी योजना’ नाम से एक और योजना की शुरुआत की थी. राज्य की 1600 किलोमीटर की तटीय पट्टी के 300 गांवों और 38 तालुकाओं में रहने वाले 60 लाख लोगों के लिए 11,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था.
मोदी ने कहा था कि तटीय इलाके के बच्चे इतने प्रतिभाशाली हैं कि उनके लिए वे एक ट्रेनिंग कॉलेज खोलेंगे ताकि उन्हें भारतीय नौसेना में शामिल किया जा सके.
उस योजना का क्या हुआ? इसका जवाब खुद सरकार ने दिया था. मार्च, 2012 में विधानसभा के पटल पर एक गैर-तारांकित सवाल के जवाब में सरकार ने कहा था कि तटीय इलाके से एक भी बच्चे को ट्रेनिंग नहीं दी गई और न किसी की भारतीय नौसेना में भर्ती हुई.
उसी योजना के तहत मोदी ने कहा था कि इन सभी 300 गांवों में खारे पानी की समस्या को दूर करने के लिए एक आरओ प्लांट लगाया जाएगा. लेकिन किसी भी गांव में ऐसा कोई प्लांट नहीं लगाया गया. परिणाम पूरी तरह से सिफर रहा.
मेरा सवाल है आखिर यह सारा पैसा कहां गया?
एक दूसरा उदाहरण लीजिए, जो इस समय ज्यादा प्रासंगिक होगा. मोदी ने यह घोषणा की थी कि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (सरदार सरोवर बांध पर सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति) दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति होगी.
उन्होंने यह भी कहा था कि इस मूर्ति के निर्माण के लिए सरकारी खजाने पर बोझ नहीं डाला जाएगा. उन्होंने इसकी जगह, लोगों से फंड जुटाने की बात की थी. लेकिन, एक बिंदु के बाद फंड आना बंद हो गया.
अब गुजरात के वित्त मंत्री ने विधानसभा के पटल पर कहा है कि मूर्ति निर्माण के लिए पिछले तीन वर्षों में नर्मदा परियोजना के फंड से 3,000 करोड़ रुपये निकाले गए हैं. सरकार, सिंचाई और किसानों के हिस्से के फंड को इस तरफ कैसे मोड़ सकती है? मुझे यह बात बिल्कुल ही समझ नहीं आती है.
काम करके दिखाने में नाकाम रहने का क्या असर रहा है?
लोगों के भीतर काफी गहरे गुस्से का भाव है. हमने पाटीदारों और दलितों के प्रदर्शन देखे हैं. इससे निपटने के लिए भाजपा ने पाटीदारों में फूट डालने की कोशिश की है. इसने पाटीदारों के भीतर विभिन्न गुटों को अपनी-अपनी पार्टियां बनाने के लिए प्रोत्साहित किया. इसने पटेलों की प्रमुखता वाली चार-पांच पार्टियों को रजिस्टर्ड भी करा दिया.
इसका नतीजा यह हुआ है कि भले गांवों के पटेल भाजपा के खिलाफ जा सकते हैं, लेकिन शहरों के अमीर पटेल, खासकर सूरत में, अभी भी इस बात को लेकर मन बना रहे हैं कि वे पार्टी के खिलाफ जाएं या नहीं जाएं.
क्या आप गुजरात में इन मुद्दों को उठाने की योजना बना रहे हैं?
हां. एक नागरिक होने के नाते लोकतंत्र की रक्षा करना, मेरा कर्तव्य है. आज ऐसी नीतियों के कारण समाज के भीतर गुस्सा है. हममें से कुछ लोगों ने मिलकर ‘लोकशाही बचाओ अभियान’ नाम से एक मोर्चा भी बनाया है और हम सरकार से ये सवाल पूछेंगे.
मोदी ने ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के नारे को प्रोपेगेंडा में बदल दिया है. बढ़ते हुए कर्ज और स्पष्ट नीतियों के अभाव में, गुजरात मोदी के राज में और उनके बाद के मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में रसातल की ओर चला गया है.
आपने भी मोदी के नेतृत्व में एक मंत्री के तौर पर काम किया. आपने 2002 के दंगों के बाद कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया और आखिरकार 2007 में भाजपा छोड़ दिया. आखिर किस वजह से आपने भाजपा से पूरी तरह से नाता तोड़ लिया?
देखिए, मोदी के नेतृत्व में पार्टी ने जिस तरह से काम करना शुरू कर दिया, वह पहले के समय से पूरी तरह से अलग था. पार्टी तानाशाही हो गई. मैं 2007 में पार्टी से बाहर निकला, लेकिन मोदी के साथ मेरे मतभेद 2002 में ही शुरू हो गए थे.
उनके साथ मेरी तब बहस हुई थी, जब उन्होंने गोधरा कांड के मृतकों को तो श्रद्धांजलि देने का फैसला किया, लेकिन उन लोगों को नहीं, जो उसके बाद राज्यभर में मारे गए थे.
वे दरअसल इससे भी एक कदम आगे चले गए और उन्होंने गोधरा में शिकार हुए लोगों को श्रद्धांजलि के तौर पर एक दिन के लिए विधानसभा को बंद कर दिया.
मैंने उन्हें कहा था कि एक राज्य के मुख्यमंत्री होने के नाते वे ऐसे सिलेक्टिव फैसले नहीं कर सकते.
क्या आपको लगता है कि 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के लिए वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जिम्मेदार हैं?
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में, मैं नहीं जानता. मैं आपको सिर्फ अपने अनुभव के बारे में बता सकता हूं.
27 फरवरी, 2002 को, जिस दिन गोधरा की घटना हुई, मैंने गोधरा से भाजपा सांसद भूपिंदर सिंह सोलंकी से मुलाकात की. उन्होंने मुझे बताया कि मोदी ने उन्हें तुरंत बुलाया है. मोदी ने हाल ही में अपनी सीट काफी कम अंतर से जीती थी और तीन सीटों पर हुए उप-चुनावों में भाजपा दो पर हार गई थी.
सोलंकी ने मुझे बताया कि मोदी ने उन्हें कहा था कि वे उस दिन उन्हें चाय नहीं पिलाएंगे और उन्हें जितनी जल्दी हो सके, अपने क्षेत्र में पहुंचने के लिए कहा था. सोलंकी ने मुझे बताया कि एक अन्य भाजपा नेता अशोक भट्ट, भी जल्दी ही गोधरा पहुंच जाएंगे.
यही वह दिन था, जिस दिन विधानसभा की बैठक होनी थी. जब मैंने अशोक भट्ट को देखा, मैं उनके साथ मोदी के ऑफिस तक चला गया. मुझे देखकर वे भड़क गए और मुझे वहां से जाने को कहा.
कुछ घंटों में, मुझे भाजपा कार्यकर्ताओं से रिपोर्ट मिलनी शुरू हो गई जिन्होंने मुझे गोधरा की घटना के बारे में बताया.
राज्य के डेयरी को-ऑपरेटिव के चेयरमैन के नाते, मैं वहां गया और वहां की कलेक्टर जयंती रवि को सभी पीड़ितों को दूध उपलब्ध कराने का निर्देश दिया. कुछ देर के बाद, मैंने अशोक भट्ट को वहां मीडिया के साथ आते और यह बयान देते देखा कि यह एक ‘सांप्रदायिक’ घटना है. कलेक्टर ने भी इस बयान को दोहराया.
अचानक, मोदी एक हेलीकॉप्टर में सवार होकर वहां आए और साबरमती एक्सप्रेस के जले हुए डिब्बों का मुआयना करके उन्होंने बयान दिया कि यह एक ‘पूर्व नियोजित आतंकवादी कार्रवाई’ है.
वे हालात को और भड़काना चाहते थे, नहीं तो, आखिर कैसे दो मिनट मुआयना करके उन्होंने इस घटना की प्रकृति का पता लगा लिया वह भी अपने से किसी ज्यादा योग्य आदमी से कोई सलाह लिए बगैर!
अगले दिन, उन्होंने एक श्रद्धांजलि कार्यक्रम का आयोजन किया और उसके बाद दंगे शुरू हो गए.
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