बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की जनता से व्यापक विमर्श नहीं किया जाता. क्योंकि जब उनसे बात होगी तो वे बाढ़ नियंत्रण से जुड़े भ्रष्टाचार की शिकायतें भी करेंगे. अपनी उपेक्षा और दुख-दर्द भी विस्तार से बताएंगे लेकिन सरकारें ये नहीं सुनना चाहतीं.
इस वर्ष देश में आई बाढ़ को इस दशक की सबसे भीषण बाढ़ माना जा रहा है. देशभर के करीब 280 जिलों में 3.4 करोड़ लोग इससे प्रभावित हुए व 1,000 से अधिक लोग मारे गए. यदि पिछले लगभग 65 वर्षों का हिसाब लगाएं तो लगभग 1,50,000 करोड़ रुपए का खर्च (वर्ष 2010-11 की कीमतों पर) बाढ़ नियंत्रण पर खर्च हो चुका है.
कुछ समय पहले बाढ़ प्रभावित होने वाले इलाकों का क्षेत्रफल 49.8 मिलियन हेक्टेयर आंका गया था, जबकि वर्ष 1980 का इस बारे में सरकारी अनुमान 40 मिलियन हेक्टेयर का था. सवाल यह है कि इतना पैसा खर्च होने पर बाढ़ प्रभावित होने वाला क्षेत्र बढ़ क्यों रहा है?
बाढ़ नियंत्रण पर अनुमानित खर्च जो ऊपर बताया गया है, उसमें कई बहुउद्देश्यीय बांध परियोजनाओं का खर्च शामिल नहीं है इसे भी जोड़ दिया तो सरकारी खर्च और बढ़ जाएगा. 35,000 किमी के तटबंध ही बना दिए गए हैं, तो फिर अधिक क्षेत्र में बाढ़ क्यों आ रही है?
केवल उत्तर बिहार की बात करें तो यहां निरंतर तटबंध बनते रहे हैं, तब भी 1947-2012 के दौरान यहां बाढ़ प्रभावित होने वाला क्षेत्र 200 प्रतिशत बढ़ गया- जी हां, 200 प्रतिशत.
दूसरे शब्दों में, देश के जिस क्षेत्र (उत्तर बिहार) में जहां संभवतः तटबंध निर्माण पर सबसे अधिक निवेश किया गया, वहीं पर बांध प्रभावित क्षेत्र सबसे तेजी से यानी कि 200 प्रतिशत बढ़ गया.
अतः बाढ़ नियंत्रण में सफलता प्राप्त करनी है तो हमें पहले इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना है कि अभी तक बाढ़ नियंत्रण पर जो निवेश हुआ, उसका वांछित परिणाम क्यों नहीं मिला. इस प्रश्न को सुलझाए बिना पहले जैसे बाढ़-नियंत्रण पर और खर्च करते जाना तर्कसंगत नहीं लगता है.
आइए पहले इस विषय पर विचार करें कि बाढ़ नियंत्रण के लिए कौन से उपाय हैं:
पहली ज़रूरत यह है कि पर्वतीय जल-ग्रहण क्षेत्रों में वन-विनाश पर रोक लगे, मिट्टी का कटाव रुके तथा पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर हिमालय क्षेत्र में सभी तरह के पर्यावरण विनाश को रोका जाए. विभिन्न तरह के अंधाधुंध खनन, नदियों के अत्यधिक बालू खनन को रोका जाए.
दूसरी बड़ी ज़रूरत यह है कि बाढ़ का पानी जिन भी गांवों या बस्तियों में आता है, वह वहां देर तक न रुके बल्कि शीघ्र ही अपने निकासी मार्ग पर प्रवाहित हो जाए. इसके लिए ज़रूरी है कि प्राकृतिक निकासी मार्गों को अवरोध-मुक्त रखा जाए.
तीसरी बड़ी ज़रूरत है बाढ़ प्रभावित समुदायों से निरंतर विमर्श किया जाए, उनकी शिकायतों को सुना जाए, उनके अनुभवों से सीखा जाए, जन-सुनवाईयों का आयोजन बाढ़ से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में ही किया जाए, जहां लोग खुलकर अपनी बात कह सकें.
सफल बाढ़ नियंत्रण के लिए ज़रूरी यह तीनों ही कार्य बुरी तरह उपेक्षित हैं. कई चेतावनियों के बावजूद हिमालय, पश्चिम घाट आदि में पर्यावरण की बहुत तबाही हो रही है. हरे पेड़ों के कटान पर कुछ रोक तो लगी लेकिन विभिन्न प्रोजेक्टों के नाम पर इससे भी अधिक पेड़ काटे जाने लगे. अंधाधुंध खनन जगह-जगह जारी है.
संवेदनशील पहाड़ों में खनन व अन्य प्रोजेक्टों के लिए जगह-जगह विस्फोटक दागे जा रहे हैं. इन विभिन्न कार्यों से बड़े निहित स्वार्थ व भ्रष्टाचार जुड़े हैं जिसके कारण पर्यावरण की रक्षा के कार्य आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं.
इसी तरह जल निकासी के मार्ग को अवरोध मुक्त करना है तो विभिन्न बिल्डरों या अन्य शक्तिशाली तत्त्वों के विरुद्ध कार्रवाई करनी होगी जो जल-निकासी के मार्ग में ही कॉलोनी खड़ी कर देते हैं या उन बड़े ठेकेदारों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं होने देते हैं जिन्होंने अपने निर्माण कार्यों में निकासी की उचित व्यवस्था किए बिना ही भुगतान प्राप्त कर लिए.
बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लोगों से व्यापक विमर्श इसलिए नहीं किया जाता है क्योंकि वे बाढ़ नियंत्रण से जुड़े भ्रष्टाचार की शिकायतें भी करेंगे, अपनी उपेक्षा और गहरे दुख-दर्द के बारे में विस्तार से बताएंगे, लेकिन सरकारें यह सब विस्तार से जानना ही नहीं चाहती हैं.
दूसरी ओर जिन कार्यों में प्रायः कमीशन बंधे होते हैं, जिनमें भ्रष्टाचार की अधिक संभावनाएं होती हैं, उन्हें निरंतरता से बाढ़ नियंत्रण के नाम पर बढ़ाया जाता है. तटबंधों की उपयोगिता का निष्पक्ष अध्ययन किए बिना उन्हें निरंतर बढ़ाते रहने, ऊंचा करते रहने की एक वजह यह भी है कि वर्ष-दर-वर्ष इसके साथ बहुत-सा पैसा भ्रष्टाचार की नदी में भी बहता है.
इस कारण जो विशेषज्ञ या जन-संगठन तटबंधों पर अधिक निर्भरता के बारे में सवाल उठाते हैं, उन पर सरकारें ध्यान नहीं देती हैं. जहां तक मल्टी-परपज़ या बहुउद्देश्यीय बांधों का सवाल है, तो कहने को उनके बनाने का एक बड़ा औचित्य प्रायः बाढ़-नियंत्रण होता है, पर प्रायः उनसे छोड़े गए अत्यधिक पानी से बाढ़ की समस्या अधिक उग्र होती देखी गई है. पर बड़े व मध्यम बांधों से जुड़ी लाॅबी भी इतनी शक्तिशाली है कि प्रायः इस तरह के सवालों को नजरअंदाज कर दिया जाता है.
दूसरे शब्दों में बाढ़ नियंत्रण के लिए ज़रूरी सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों को प्रायः उपेक्षित किया जाता है. (ताकि शक्तिशाली स्वार्थों के विरुद्ध कोई कार्रवाई न हो) जबकि संदिग्ध उपयोगिता के कार्यों पर भारी निवेश किया जाता है क्योंकि उनके साथ शक्तिशाली स्वार्थ जुड़े होते हैं.
इस तरह बाढ़-नियंत्रण की प्राथमिकताएं उल्टी-पुल्टी हो गई हैं. इसी कारण भारी निवेश के बावजूद वांछित परिणाम नहीं मिल रहे हैं. बाढ़-नियंत्रण की प्राथमिकताओं व नीतियों को निष्पक्ष समीक्षा कर बहुत सुधारना होगा, तभी बाढ़-नियंत्रण का कार्य सफलता की ओर बढ़ सकेगा.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और अनेक सामाजिक आंदोलनों व अभियानों से जुड़े रहे हैं)