न खाता न बही, जो चचा केसरी कहें वही सही

पुण्यतिथि विशेष: 13 वर्ष की उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने वाले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी के पास लगभग 35 वर्षों तक सांसद और तीन सरकारों में मंत्री रहने के बावजूद दिल्ली में अपना घर नहीं था.

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पुण्यतिथि विशेष: 13 वर्ष की उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने वाले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी के पास लगभग 35 वर्षों तक सांसद और तीन सरकारों में मंत्री रहने के बावजूद दिल्ली में अपना घर नहीं था.

Sitaram Kesari YouTube

24 अक्टूबर को कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीताराम केसरी की पुण्यतिथि है. चूंकि कांग्रेस पार्टी में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के नेताओं को याद करने की, उनकी पुण्यतिथि मनाने की परंपरा का अभाव रहा है इसलिए मृत्यु के 17 वर्षों के बाद भी इतने बड़े नेता को कभी भी याद नहीं किया गया.

बहुत दिनों के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कानपुर के परिवर्तन रैली में उनका नाम लिया. प्रधानमंत्री ने कहा- न खाता न बही, जो सीताराम केसरी कहें वही सही.

हालांकि मोदी ने उनका नाम कांग्रेस की आलोचना करने के लिए लिया था लेकिन लगभग 17 वर्षों के बाद किसी बड़े नेता द्वारा सार्वजनिक मंच से उनका जिक्र किया गया.

कांग्रेस के एक और बड़े नेता स्व. पीवी नरसिम्हा राव जो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे, पांच वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, को भी कभी भी कांग्रेस के किसी मंच से याद नहीं किया गया.

यहां तक कि जब राव की 23 दिसम्बर 2004 को दिल्ली में मृत्यु हुई तो उनके शव को हैदराबाद भेज दिया गया ताकि दिल्ली में उनका स्मारक न बनाना पड़े. यही बात स्व. सीताराम केसरी पर भी लागू होती है.

सीताराम केसरी का जन्म बिहार के पटना ज़िला के दानापुर में 1916 ई. में हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा दानापुर के ही सरकारी स्कूल में हुई. सीताराम केसरी केवल 13 वर्ष की उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे. वे ढोलक बजाते हुए दानापुर और पटना के आस-पास के इलाकों में घूमते थे.

वे लोगों को आजादी का महत्व बताते और उनके मन में आजादी का अलख जगाते थे. 1930 से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक वे कई बार जेल गए और लगभग साढ़े सात वर्षों तक ब्रिटिश भारत की जेलों में कैद रहे. केसरी पर महात्मा गांधी का गहरा प्रभाव था इसलिए आजादी के पहले से ही कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए थे.

उनके साथ ही बिन्देश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, चंद्रशेखर सिंह, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, केदार पांडेय, अब्दुल गफूर आदि नेताओं ने भी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में हिस्सा लिया था. बाद में चलकर ये सभी नेता बिहार के मुख्यमंत्री बने परन्तु सीताराम केसरी ने केंद्रीय राजनीति में अपनी रुचि दिखाई.

सीताराम केसरी 1967 में पहली बार जनता पार्टी की टिकट पर बिहार के कटिहार संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. इसके बाद उन्होंने फिर से कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली और फिर जीवन भर कांग्रेसी ही बने रहे.

उन्हें 1973 ई. में बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. उनके कार्यों से प्रभावित होकर उन्हें पदोन्नति देते हुए 1980 ई. में कांग्रेस का राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष नियुक्त किया गया. इस पद पर उन्होंने लगातार 16 वर्षों तक कार्य किया.

उनके कोषाध्यक्ष कार्यकाल के दौरान यह उक्ति काफी प्रचलित हुई थी- न खाता न बही, जो चचा केसरी कहें वही सही. इस अवधि के दौरान अधिकांश समय कांग्रेस केंद्र की सत्ता में रही और केसरी ने पार्टी कोष का अच्छी तरह हिसाब रखा. केसरी जुलाई 1971 से अप्रैल 2000 तक लगातार पांच बार बिहार से राज्यसभा के सदस्य रहे.

उन्होंने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरसिम्हा राव की सरकार में केन्द्रीय मंत्री का दायित्व निभाया. वे युवाओं को राजनीति में आने के लिए हमेशा प्रेरित करते थे. दूसरी पार्टियों के नेता जैसे रामविलास पासवान, नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे नेता संघर्ष के दिनों में जब भी दिल्ली आते पुराना किला रोड स्थित उनके आवास पर ही ठहरते थे.

राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री धर्म सिंह, तारिक अनवर, अहमद पटेल आदि को राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया और उनकी मदद भी की.

उल्लेखनीय है कि उन्हीं के कार्यकाल ( सामाजिक न्याय एवं कल्याण मंत्रालय) में डॉ. आंबेडकर के समग्र लेखन व भाषणों को अंग्रेजी और हिन्दी में 20 से अधिक खंडों में ‘डॉ. आंबेडकर: सम्पूर्ण वाङ्गमय’ के नाम से प्रकाशित किया गया था.

‘सम्पूर्ण वाङ्गमय’ के प्रकाशन के लिए उन्होंने खुद भी मेहनत की थी. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद जिस पहले ओबीसी युवक को सरकारी नौकरी मिली थी, उसे नियुक्ति पत्र प्रदान करने वाले कोई और नहीं बल्कि सीताराम केसरी ही थे. उस समय वे सामाजिक न्याय व कल्याण मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे थे.

नरसिम्हा राव के इस्तीफा देने के बाद सीताराम केसरी को सितंबर 1996 में कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. बाद में वे 3 जनवरी 1997 को विधिवत कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए.

इस तरह वे जगजीवन राम के बाद कांग्रेस के दूसरे गैर-सवर्ण राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. सीताराम केसरी एक कुशल राजनीतिज्ञ थे और राजनीति के दांव-पेंच को बखूबी जानते थे. जिस समय वे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने उस समय पार्टी की स्थिति बहुत खराब थी. अप्रैल 1997 में एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चे की सरकार को गिराने का उनका फैसला सबसे विवादास्पद माना जाता है.

एचडी देवेगौड़ा की सरकार को कांग्रेस बाहर से समर्थन दे रही थी लेकिन बिना किसी खास वजह के केसरी ने समर्थन वापस ले लिया था. इसके बाद फिर कांग्रेस के ही समर्थन से इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने. एक बार फिर गुजराल की सरकार से उन्होंने समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गयी.

वैकल्पिक सरकार बनाने की कोशिशें नाकाम हो गईं और देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा. हुआ यूं कि नवम्बर 1997 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की जांच कर रहे जैन आयोग की रिपोर्ट का कुछ अंश मीडिया में प्रकाशित हो गया.

रिपोर्ट के उस अंश के मुताबिक राजीव गांधी की हत्या में शामिल आतंकवादी संगठन एलटीटीई के द्रविड़ मुनेत्र कड़गम( डीएमके) से संबंध थे. डीएमके गुजराल सरकार में महत्वपूर्ण साझेदार दल था और उसके तीन मंत्री थे.

सीताराम केसरी ने डीएमके के मंत्रियों को सरकार से हटाने की मांग की लेकिन प्रधानमंत्री गुजराल ने साफ इनकार कर दिया. सीताराम केसरी ने तुरंत समर्थन वापसी की घोषणा कर दी और गुजराल को इस्तीफा देना पड़ा.

कांग्रेस भी मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार नहीं थी. पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने खुले मंच से सीताराम केसरी के इस फैसले की आलोचना की और पार्टी भी छोड़ दी.

1998 के मध्यावधि चुनाव में सीताराम केसरी के साथ-साथ सोनिया गांधी ने भी प्रचार में हिस्सा लिया लेकिन कांग्रेस 140 सीटें ही जीत पाई. उसी समय भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी की कोयम्बटूर की एक चुनावी सभा में भयंकर बम विस्फोट हुआ जिसमें 50 से अधिक लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए.

इस घटना के लिए केसरी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ही जिम्मेदार ठहरा दिया. संघ ने केसरी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया लेकिन 1998 में ही कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी.

चुनाव में कांग्रेस की हार की पूरी जिम्मेदारी सीताराम केसरी पर थोप दी गयी और उन्हें मार्च 1998 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और उनकी जगह सोनिया गांधी को लाया गया. केसरी को कांग्रेस पार्टी के संवैधानिक प्रावधानों को ताक पर रखकर हटाया गया था.

इस घटना का जिक्र पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी हालिया प्रकाशित किताब ‘द कोयलिशन इयर्स 1996-2012’ में किया है. मुखर्जी ने लिखा है कि 5 मार्च 1998 को सीताराम केसरी ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाई थी. इस बैठक में जितेंद्र प्रसाद, शरद पवार और गुलाम नबी आज़ाद ने सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की पहल का आग्रह किया.

केसरी ने यह सुझाव ठुकरा दिया और मुखर्जी समेत अन्य नेताओं पर उनके खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप लगाए. वह बाद में बैठक छोड़कर चले गए. मुखर्जी का कहना है कि केसरी खुद ही बैठक छोड़कर चले गए लेकिन उस समय इस घटना की खबरें मीडिया में खूब छपी थीं.

24 अकबर रोड, कांग्रेस मुख्यालय से वे रोते हुए बाहर निकले थे जिसे तस्वीर सहित कई अखबारों ने छापा था. केसरी के साथ कांग्रेस मुख्यालय में काफी बदसलूकी की गई थी और उन्हें जबर्दस्ती बाहर निकाला गया था.

उस समय के बड़े पत्रकार राशिद किदवई ने अपनी किताब ‘ए शार्ट स्टोरी ऑफ द पीपल बिहाइंड द फॉल एंड राइज ऑफ द कांग्रेस’ में लिखते हैं कि दिल्ली के 24, अकबर रोड स्थित मुख्यालय से सीताराम केसरी को बेइज्जत कर निकाला गया था. उन्हें कांग्रेस से निकालने की मुहिम में सोनिया गांधी को प्रणव मुखर्जी, ए के एंटनी, शरद पवार और जितेंद्र प्रसाद का पूरा सहयोग मिला.

कांग्रेस मुख्यालय से निकलने के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और अप्रैल 2000 में जब राज्यसभा का उनका कार्यकाल समाप्त हो रहा था तो एक बार फिर से राज्यसभा की सदस्यता लेने से इनकार कर दिया.

राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त होने के साथ ही उन्होंने सरकारी बंगला छोड़ दिया. लगभग 35 वर्षों तक सांसद और तीन सरकारों में मंत्री रहने के बावजूद उनका दिल्ली में अपना घर नहीं था.

जून 2000 ई. में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा और दिल्ली में घर देने की घोषणा की तो उन्होंने सीधा सा जवाब दिया कि मेरी उम्र 84 वर्ष हो गयी है और मैं अपने घर दानापुर रहने जा रहा हूं.

इसके कुछ ही दिनों के बाद उनकी तबियत खराब हो गयी और 24 अक्टूबर 2000 ई. को एम्स में इलाज के दौरान मृत्यु हो गई. लगभग 60 वर्षों तक कांग्रेस की सेवा करने वाला सिपाही दुनिया से चला गया लेकिन कांग्रेसजनों ने अब तक उसे याद करना भी मुनासिब नहीं समझा.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)