कांग्रेस के एक सदस्य के लिए राजनीतिक विकल्प बनने के क्या अर्थ हैं

देश को एक राजनीतिक विकल्प देने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपनी असली पहचान को फिर से खोजने की ज़रूरत होगी.

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भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत के समय एमके स्टालिन समेत विपक्ष और कांग्रेस के नेताओं के साथ राहुल गांधी. (फोटो साभार: ट्विटर/कांग्रेस)

देश को एक राजनीतिक विकल्प देने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपनी असली पहचान को फिर से खोजने की ज़रूरत होगी.

भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत के समय एमके स्टालिन समेत विपक्ष और कांग्रेस के नेताओं के साथ राहुल गांधी. (फोटो साभार: ट्विटर/कांग्रेस)

‘विकल्प’ और खासतौर से ‘राष्ट्रीय विकल्प’ एक ऐसा विचार है जो इन दिनों अक्सर कई राजनीतिक चर्चाओं में सुनाई देता है. कुछ लोग राष्ट्रीय विकल्प के न होने पर दुख व्यक्त करते हैं; कुछ इसके लिए एक साथ आने का दावा करते हैं. कुछ के ‘राष्ट्रीय विकल्प’ के तौर पर उभरने की घोषणा की जाती है और फिर कुछ अन्य अपने ऐसा होने का दावा करते हैं.

वर्तमान व्यवस्था के विकल्प का विचार महत्वपूर्ण है. भारतीय लोकतंत्र एक नहीं, बल्कि कई विकल्पों का हकदार है. लेकिन वास्तव में ऐसा क्या है जिसके लिए हमें विकल्पों की जरूरत है? अधिकांश लोगों के लिए इस सवाल का जवाब चुनाव के रोज़ किसी भी तरह भाजपा का विकल्प बनने; या देश के मसीहा रूप में नरेंद्र मोदी की छवि का विकल्प बनने तक सीमित है.

लेकिन इनमें से कुछ भी देश के लिए किसी पार्टी, गठबंधन या नेता को राजनीतिक विकल्प नहीं बना देता. एक राजनीतिक विकल्प को न केवल सरकार में बैठे लोगों और प्रतीकों का विकल्प होना चाहिए, बल्कि देश को चलाने वाली सत्ता की संरचना का भी विकल्प बनना चाहिए.

तीन एकाधिकार 

आज हमारे देश को चलाने वाली सत्ता की संरचना तीन इजारेदारों का गठबंधन है:

पहला है आर्थिक शक्ति पर एकाधिकार. यह एकाधिकार आर्थिक निर्णय को नियंत्रित करता है ताकि आर्थिक अवसर और राष्ट्रीय धन उनके कुछ चुनिंदा लोगों तक ही सीमित रहे. इसके बाद सामाजिक शक्ति का एकाधिकार है. यह एकाधिकार परिभाषित करता है कि समाज में क्या स्वीकार्य और नैतिक है और कुछ चुने हुए सामाजिक समूहों के लिए वैधता, प्रतिष्ठा और भागीदारी सीमित करता है. तीसरा राजनीतिक सत्ता का एकाधिकार है. यह एकाधिकार राज्य के विपक्ष को डराने, खरीदने और कुचलने के अधिकार को नियंत्रित करता है ताकि राजनीतिक आवाजों को उनके चुने हुए लोगों तक सीमित रखा जा सके.

ये एकाधिकार एक दूसरे से अलग नहीं हैं. वे एक दूसरे के एजेंडा के लिए साझा दृष्टिकोण और सक्रिय समर्थन के जरिये जुड़े हुए हैं.

इजारेदारों के इस गठबंधन ने भारत की आबादी के बड़े हिस्से को अवैध, गरीब बनाकर, उन्हें बहिष्कृत करके हाशिए पर डाल दिया है. इन तीनों ने हर किस्म की संवैधानिक संस्था को ‘क्षतिग्रस्त’ कर दिया है. यह सिर्फ नौकरशाही, न्यायपालिका, कानून प्रवर्तक एजेंसियों, मीडिया, बाजार और शिक्षाविदों पर हमला नहीं है. राजनीतिक दलों को भी बख्शा नहीं गया है. विपक्षी दलों की क्या बात करें, अब इन तीनों के राजनीतिक संचालन के सामने भाजपा खुद एक खोखले मोर्चे सेअधिक नहीं है. लेकिन इस हमले का सबसे दुखद शिकार भारत के बारे में हमारी सामूहिक समझ हो सकती है.

भारत को अपना घर मानने वालों और देशभक्ति को हर भारतीय की प्रतिबद्धता मानने वाले कई लोगों के मन में भारत अब उस गुस्सैल देवता का रूप ले चुका है, जिसे खुश रखने के लिए किसी प्रिय की बलि देनी पड़ती है, देशभक्ति उसके लिए अगली कुर्बानी की तलाश बनकर रह गई है.

वर्तमान राजनीति में इन एकाधिकारों को पाने के लिए मानो एक बिना रोक-टोक वाली प्रतियोगिता चल रही है. इसके लिए जिन रणनीतियों का इस्तेमाल हो रहा है, वो हैं:

1. शोषण- और जब जरूरत हो, तब धर्म, जाति, क्षेत्रीय और भाषाई पहचान के आधार पर मतभेद पैदा करना;
2. सरकार चलाने की बड़ी जिम्मेदारी को दो-एक सेवाएं देकर एक ‘मॉडल’ बताकर दिखाना और हर जगह उन्हें ही दोहराना;
3. एक नेता की ‘मसीहा’ के बतौर छवि गढ़ना, जो अपनी जादू की छड़ी से देश में सब ठीक कर देगा.
4. चुनाव अभियान को वैचारिक रूप से तटस्थ धन-लोलुपों के हवाले कर देना जो सर्वाधिक बोली लगाने वाले को ही सेवा देंगे.
5. किसी भी असहमति को कुचलने और किसी अलग नैरेटिव को दबाने के लिए राज्य की हर संस्था पर कब्जा और उसका केंद्रीकरण.

इन सभी रणनीतियों का पालन इस तरह हो रहा है कि एकाधिकारों की इस तिकड़ी के रास्ते में कम से कम बाधा आए. इन दावेदारों का राजनीतिक लक्ष्य ‘विकल्प’ बनना है, लेकिन शासन को बदलने के लिए नहीं, बल्कि उसमें हिस्सेदारी पाने के लिए.

हम जितने लंबे समय तक छद्म विकल्प की इस राजनीति के बीच काम करते हैं, उतनी ही अधिक सत्ता इजारेदारों के हाथों में केंद्रित होती जाएगी है और राजनीतिक प्रक्रिया के लिए जनता उतनी ही कम प्रासंगिक हो चलेगी. लोग देश के एजेंडा को निर्धारित करने के लिए सशक्त नागरिक होने की बजाय दूसरों द्वारा निर्धारित एजेंडा में कोई एक पक्ष चुनने वाले सीमित मतदाता बनकर रह जाएंगे. अंत में शायद वो लोग, जिनके वोट के साथ सत्ता में बैठे लोगों द्वारा तैयार गई किसी भी स्थिति के समर्थन में हेरफेर की जा सकती है. संक्षेप में समझें, तो हम उपनिवेशवाद की ओर वापस लौटने के रास्ते पर चले जाएंगे.

वर्तमान संदर्भ में एक ‘राजनीतिक विकल्प’ बनने के लिए वोट देने के लिए महज एक नया चेहरा बनने से कहीं ज्यादा की जरूरत है. इसके लिए राजनीति की प्रचलित व्यवस्था का एक वास्तविक विकल्प पेश करना होगा. इसके लिए एक ऐसे वैकल्पिक तरीके की जरूरत है जो भारत को तोड़ने के बजाय जोड़ने की दिशा में काम करे. इसके लिए सत्ता के ऐसे वैकल्पिक ढांचे की जरूरत है जो सत्ता का विकेंद्रीकरण करे और उन एकाधिकारों को चुनौती दे, जो हम पर पकड़ बनाए हुए हैं.

एक राजनीतिक विकल्प के लिए राजनीति की एक वैकल्पिक अवधारणा की जरूरत होती है जो लोगों को नागरिकों के रूप में उनकी सही भूमिका दे, न कि उन्हें केवल ऐसे वोट बनाकर छोड़ दे, जिसे मनमुताबिक दिशा में मोड़ा जा सकता है. इसके लिए राजनीतिक संगठनों की एक वैकल्पिक अवधारणा की आवश्यकता है जो जनता से निकलती है और उनकी आकांक्षाओं को राजनीतिक ताकत में बदल देती है. इसके लिए राजनीतिक कार्रवाई और फंड की एक ऐसी वैकल्पिक अवधारणा की जरूरत है जो सत्ता में एकाधिकार बनाए रखने के बजाय उसे चुनौती दे.

हमारे सामने बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. यह सामूहिक रूप से भारत की दोबारा खोज और हमारी राजनीति के पुनर्निर्माण की तरह है. इस पैमाने और दायरे वाले किसी राष्ट्रीय उपक्रम के बारे में ज्यादा भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. हालांकि, कुछ बातें निश्चित हैं.

समाज और राजनीति के लिए जरूरी बदलाव वृद्धिशील नहीं होंगे. हमारी चुनौतियां चुनाव प्रचार में सुधार करने, समान राजनीतिक गतिविधियों को अधिक दक्षता के साथ करने या समान राजनीतिक संगठनों में बेहतर लोगों को साथ लाने तक सीमित नहीं हैं. वर्तमान व्यवस्था को प्रभावी रूप से चुनौती देने के लिए हमें अपने राजनीतिक विचारों, संचार, संगठनों और संसाधनों को फिर से तलाशना होगा.

राजनीति की इस तरह की पुनर्कल्पना उन नेताओं और पार्टियों के लिए एक महत्वपूर्ण काम है, जिन्हें समाज ने अपनी राजनीति सौंपी है. यह अनिवार्य रूप से एक ऐसा जन आंदोलन होना चाहिए जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिविधि के हर क्षेत्र में फैले भारतीयों की एक पूरी पीढ़ी की कल्पना, ऊर्जा और निष्ठा को आकर्षित करे. ऐसा कोई नहीं है जिसे यह समस्या जुड़ी न हो.

यू2 के ‘वॉक ऑन‘ से एक पंक्ति उधार लेकर कहूं, तो जो लोग राजनीति को फिर से शुरू करने के लिए इस जन आंदोलन में भाग ले रहे हैं, वो ‘एक ऐसी जगह जाने की तैयारी कर रहे हैं जहां हममें से कोई पहले कभी नहीं गया है; एक ऐसी जगह जिसे लेकर विश्वास है कि वो है.’

यह बिना किसी गारंटी वाली एक अच्छी यात्रा होगी और लगातार सामने आने वाले ‘मेरा क्या होगा’ के राजनीतिक सवाल का जवाब तो बिल्कुल नहीं होगी. यह बदलाव का समय होगा और वक्त की मांग है कि हम किसी ऐसी चीज के लिए जिएं और काम करें, जो हमसे कहीं ज्यादा मायने रखती है.

आखिर में, देश को एक राजनीतिक विकल्प देने के लिए मेरी अपनी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपनी असली पहचान को फिर से खोजने की जरूरत होगी. महान कांग्रेसी नेता जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में कहूं तो ‘कांग्रेस क्या है? यह कुछ चुनिंदा लोगों का समूह नहीं है बल्कि जनता की संगठित ताकत है. यह भारत के जनता से अलग कुछ नहीं है. यह आप सभी की है…’

कांग्रेस को एक बार फिर ऐसा मंच बनना होगा जो भारतीयों को उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं के लिए आवाज उठाने में सक्षम बनाए.

यही वो भावना है जो मैं राहुल गांधी में देखता हूं और मेरे उन सैकड़ों साथी कांग्रेसी नेताओं में, जो ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में शामिल हैं. जैसा कि एक सहयात्री ने कल ही कहा था, ‘यह उन हजारों यात्राओं में से एक हो, जैसी भारतीय करते हैं.’

जय हिंद, जय जगत.

(लेखक कांग्रेस में प्रशिक्षक हैं और वर्तमान में चल रही पार्टी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का हिस्सा हैं.)

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