सवाल कविता कृष्णन पर नहीं, सीपीआई माले पर है

कविता कृष्णन के सवालों पर चुप्पी साधते हुए सीपीआई माले के उन्हें विदा करने के बाद बहुत सारे पुराने, निष्क्रिय ‘मार्क्सवादियों’ ने इस बात के लिए दोनों की तारीफ़ की कि उन्होंने अलग होने में ‘शालीनता दिखाई.’ ज़रूरी सवालों पर चुप रह जाना शालीनता नहीं होती, बल्कि उठाए गए सवालों पर सहमति होती है.

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(फोटो साभार: फेसबुक/@KavitaKrishnanML)

कविता कृष्णन के सवालों पर चुप्पी साधते हुए सीपीआई माले के उन्हें विदा करने के बाद बहुत सारे पुराने, निष्क्रिय ‘मार्क्सवादियों’ ने इस बात के लिए दोनों की तारीफ़ की कि उन्होंने अलग होने में ‘शालीनता दिखाई.’ ज़रूरी सवालों पर चुप रह जाना शालीनता नहीं होती, बल्कि उठाए गए सवालों पर सहमति होती है.

(फोटो साभार: फेसबुक/@KavitaKrishnanML)

फासीवाद, जो मुनाफाखोर व्यवस्था को बचाए रखने की एक बदहवास व्यवस्था है, को सिर्फ मार्क्सवाद ही शिकस्त दे सकता है. वैचारिक और भौतिक दोनों ही तरीकों से. इसी कारण फासीवाद सबसे ज्यादा हमले इसी पर करता है. इस हमले के दबाव से कई बार खुद को मार्क्सवादी मानने वाले लोगों में भी अफरा-तफरी मच जाती है, और अंदर माने जाने वाले लोगों की ओेर से भी मार्क्सवाद पर हमले होने लगते हैं.

सीपीआई (माले) (लिबरेशन) की पोलित ब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन स्टालिन और समाजवादी शासन व्यवस्था पर हमले करते हुए पिछले महीने पार्टी से अलग हो गईं. एक वामपंथी पार्टी की पोलित ब्यूरो सदस्य का अपनी पार्टी से अलग होना उतना आश्चर्यजनक नहीं था, जितना एक वामपंथी पार्टी की पोलित ब्यूरो सदस्य का कन्हैया कुमार की परिपाटी पर चलते हुए समाजवाद और मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर हमला करते हुए बाहर निकल जाना.

लेकिन इन सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक यह था कि सीपीआई माले ने कविता कृष्णन के भ्रामक हमलावर सवालों पर चुप्पी साधते हुए उनके इस्तीफे पर उन्हें विदा किया. माले ने अपने बयान में कहा ‘क्योंकि कविता कृष्णन को कुछ ज़रूरी विषयों पर चिंतन करना है, जो पार्टी में रहते हुए संभव नहीं हैं, इसलिए उनका इस्तीफा स्वीकार किया जाता है.’

इतना ही नहीं, माले ने कविता कृष्णन के सवालों का जवाब देने वालों और ट्रोल करने वालों- दोनों को एक ही श्रेणी में रखकर एक साथ फटकार लगाने का काम भी किया. और सबसे आखिर में- यह बिल्कुल आश्चर्य की बात नहीं कि बहुत सारे पुराने, निष्क्रिय ‘मार्क्सवादियों’ ने इस बात के लिए कविता कृष्णन और माले की तारीफ की कि उन्होंने अलग होने में ‘शालीनता दिखाई है.’

ज़रूरी सवालों पर चुप रह जाना शालीनता नहीं होती, बल्कि उठाए गए सवालों पर सहमति होती है. व्यक्ति को टारगेट न करके उसके सवालों का जवाब देने से शालीनता भंग नहीं होती, मार्क्सवाद के बचाव के लिए मुंह खोलने से शालीनता भंग नहीं होती, बल्कि उस वैज्ञानिक दर्शन का बचाव होता, जिसने पूरी दुनिया के शासकों कों विचलित कर रखा है.

इस अद्भुत ‘शालीनता’ के कारण, सवाल विचारधारा छोड़ने वाली कविता कृष्णन पर नहीं, बल्कि माले पर उठना चाहिए. इसलिए भी कि कविता कृष्णन ने जो सवाल उठाए हैं, वे माले द्वारा दी गई उनकी राजनीतिक और वैचारिक समझदारी से जुड़ी है. इस भ्रामक समझदारी के कारण जो सवाल नहीं है, उसे भी सवाल बनाकर खड़ा कर दिया गया. इन भ्रामक सवालों पर बात करना ज़रूरी है.

अपने इस्तीफे के बाद दिए जा रहे साक्षात्कारों में कविता कृष्णन रूस और चीन के मौजूदा पूंजीवादी राज को समाजवाद बताकर ‘समाजवादी व्यवस्था’ पर सवाल उठा रही हैं. जो पार्टियां और लोग माओ त्से-तुंग की ‘महान बहस’ के बाद भी सोवियत संघ को समाजवादी देश मानते रहे, उनका भ्रम भी 90 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद टूट गया, लेकिन पता नहीं किस कारण से कविता कृष्णन और माले रूस को आज भी समाजवादी देश मानते आ रहे हैं. (ऐसा उन्होंने अपने सभी साक्षात्कारों में कहा)

मौजूदा चीन को भी उन्होंने ‘समाजवादी चीन’ मानकर समाजवाद की आलोचना कर डाली. अशोक कुमार पाडेय द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार में तो जब उनसे पूछा गया कि ‘वे माओ के पहले के चीन की बात कर रही हैं या माओ के बाद की?’ तो उन्होंने कहा कि ‘इसके लिए तो चीन का इतिहास पढ़ना होगा मुझे… लेकिन कुछ किसान लोकल समस्याओं के बारे में अपने स्थानीय कार्यकर्ताओं को नहीं, सीधे माओ को लिख रहे थे…’

जिसके बारे में ठीक से कुछ पढ़ा और जाना भी नहीं, उसे इतने अधिकार के साथ खारिज करना- यह समाजवाद की खामियों पर बोलना नहीं, बल्कि समाजवाद के खिलाफ मुहिम है. लेकिन उल्लेखनीय है कि यह केवल उनके व्यक्तिगत विचार का प्रदर्शन नहीं उनकी पार्टी सीपीआई माले के विचार का भी प्रदर्शन है, जिसने उन्हें यह बताया था कि आज भी रूस और चीन समाजवादी राज्य है.

आज के रूस-चीन को समाजवाद कहना भर ही समाजवाद के खिलाफ खड़े होना है. दोनों जगह की अर्थव्यवस्था और राजनीति पूंजीवादी-साम्राज्यवादी हो चुकी है, और ये आज नहीं, दशकों पहले हो चुका है, जिस पर न जाने कितने अर्थशास्त्रियों के लेख मौजूद हैं.

दरअसल लिबरेशन ही नहीं सीपीएम, सीपीआई भी, जो क्रांति का रास्ता छोड़ चुकी हैं, इन्हीं देशों को समाजवादी बताकर चुनावी मार्ग से मात्र सरकार परिवर्तन की राह पर चल रही हैं. ये पार्टियां जिस रास्ते पर पिछले कई दशकों से चल रही हैं, उन्हें ये सूट करता है कि वे रूस, चीन, क्यूबा, वेनेजुएला सभी पूंजीवादी जनवादी सरकारों को समाजवाद बताएं.

कविता कृष्णन भी इसी राजनीतिक शिक्षा के कारण समाजवाद की बजाय पूंजीवादी जनवाद की वकालत कर रही हैं. बल्कि इस मामले में कविता कृष्णन तो अपनी पार्टी से थोड़ा आगे हैं कि उन्हें अब ये समझ में आ गया कि इन देशों का ‘समाजवाद’ ठीक नहीं है. लेकिन वे अपनी पुरानी सोच को बनाए रखते हुए इनका हवाला देकर ‘समाजवाद’ को ही खारिज कर रही हैं.

समाजवाद को खारिज करने के इस क्रम में वे कन्हैया कुमार और उन सभी पूंजीवादी उदारवादियों तक पहुंच गईं, जहां से वे समाजवाद का विरोध करना शुरू करते हैं. उन्होंने हिटलर की तुलना स्टालिन से करते हुए उन्हें क्रूर तानाशाह कहा है. यह सिर्फ सोवियत समाजवाद पर ही नहीं, बल्कि मार्क्सवाद पर एक बड़ा हमला है.

हिटलर के बराबर स्टालिन को रखना, दरअसल मुनाफाखोर पूंजीवादी शासकों की जातीय-नस्लीय-धार्मिक तानाशाही को शोषितों की वर्गीय तानाशाही के बराबर बताना है. शोषित वर्ग के रूप में ‘सर्वहारा की तानाशाही’, जो समाजवादी समाज व्यवस्था के निर्माण के लिए आवश्यक है, की तुलना मुनाफाखोर शासक की तानाशाही से करना मार्क्सवाद का विज्ञान न समझने से उपजा विचार है.

सर्वहारा की तानाशाही वह नहीं होती, जो पूंजीवादी शोसकों की तानाशाही होती है, जिसमें किसानों से जमीनें, मजदूरों से मशीनें, आदिवासियों से उनके जंगल और औरतों से उनके बराबरी के अधिकार, नागरिकों से वैज्ञानिक चेतना छीन लेती है.

सर्वहारा की तानाशाही का अर्थ है, अडानियों अंबानियों से पूंजी छीनना, जिसे उन्होंने निजी बना लिया है, जमींदारों से अतिरिक्त जमीनें छीनना, साम्राज्यवाद के दलालों को जंगल से बाहर खदेड़ना और अतार्किकता, अवैज्ञानिकता फैलाने वाले बाबाओं, मौलवियों, पादरियों पाखंडियों को उसके इज्जतदार आसन से उतारकर मेहनत करवाना, औरतों बच्चों को अपनी संपत्ति मानने वाले मनुवादियों को औरतों के मातहत श्रम करवाना- क्या यह ‘तानाशाही’ किसी भी मेहनतकश या मेहनत को सम्मान देने वाले नागरिक, विचार या संस्था को बुरी लग सकती है?

यदि हां, तो उसे कम से कम अपने को मार्क्सवादी नहीं कहना चाहिए. यह बराबरी का दर्शन है और समाज में बराबरी लाने के लिए ऐसी ‘तानाशाही’ आवश्यक होगी. कोई अपने को मार्क्सवादी भी कहे और इससे इनकार भी करे यह दोनों एक साथ संभव नहीं है.

शासक वर्ग इतनी आसानी से निजी संपत्ति का मोह नहीं छोड़ने वाला, इतनी आसानी से शोषक वर्ग का दर्शन नहीं खत्म होने वाला. इसे खत्म करने के क्रम में सर्वहारा यानी शोषितों की तानाशाही मुट्ठी भर मुनाफाखोरों और शासकों पर आवश्यक होती है, ताकि उन्हें सत्ता से बेदखल किया जा सके. क्रांति इसे ही कहते हैं, जो कि कभी शांतिपूर्ण नहीं होती. यह समाज विज्ञान का नियम है.

लेनिन की मौत के बाद सर्वहारा वर्ग से आए स्टालिन ने शोषक वर्गों की राजनीति और अर्थव्यवस्था को खत्म करने के लिए शोषित वर्गों की अर्थव्यवस्था समाज व्यवस्था लागू करवाया. इसीलिए पूंजीवादी देशों, शोषक वर्गों और ढुलमुल बुद्धिजीवियों ने उन्हें बदनाम किया. और अब माले की पूर्व पोलित ब्यूरो सदस्य भी इस अभियान का हिस्सा बन गई हैं, जबकि माले इसपर ‘शालीन’ चुप्पी ओढ़े हुए है.

इन दोनों (मेहनतकश की तानाशाही और मुनाफाखोरों की तानाशाही) तानाशाहियों को समान मानना क्रांतिकारी स्टालिन को नीचा दिखाने से ज्यादा हिटलर को ऊंचा बताए जाने की कार्रवाई है. फासीवाद का विरोध करते हुए दरअसल वे फासीवादियों के गोद में बैठ गई हैं.

एक साक्षात्कार में यह कहकर वे अपने को और भी खोल देती हैं कि ‘यह दिक्कत व्यक्ति की नहीं सिद्धांत की है.’ इससे ये भी पता चल रहा है कि वे खुद कितना अधिक कन्फ्यूज हैं. वे अपने को अभी भी मार्क्सवादी और कम्युनिस्ट बता रही हैं, जबकि सर्वहारा की तानाशाही जो कि मार्क्सवाद का हिस्सा है, उसे खारिज कर रही हैं.

इस सिद्धांत को लागू करने के लिए वे स्टालिन यानी व्यक्ति पर हमलावर हो रही हैं, फिर तुरंत ही इसे व्यक्ति की दिक्कत नहीं, सिद्धांत की दिक्कत बता रही हैं. इसी साक्षात्कार में अशोक कुमार पांडेय ने जब कृष्णन से यह पूछ लिया कि ‘सर्वहारा की तानाशाही की बात तो खुद मार्क्स ने कही थी’, उन्होंने बात को दायें-बायें करते हुए कहा, ‘मैं तो साहित्य की छात्रा हूं… दरअसल ये तो एक रिटोरिक पांइट है…’ यानी मार्क्स ने यह बात ध्यानाकर्षण के लिए कही थी, न कि यह इनकी ठोस राय थी.

यह जवाब साफ तौर पर यह बताता है कि कविता कृष्णन मार्क्सवाद से भागते हुए उसे अपने भ्रमित विचारों के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रही हैं और इस प्रक्रिया में वे और कन्फ्यूज होती जा रही हैं. वे जल्द ही मार्क्सवाद से पल्ला झाड़ लेंगी, संभवतः अभी उन्हें ऐसा करने में शर्म आ रही होगी.

इसके पहले कन्हैया कुमार ‘स्टालिन मुर्दाबाद’ का नारा लगाते हुए कांग्रेस के खेमे में जा पहुंचे हैं, हो सकता है वे भी किसी ऐसी ही पार्टी का रुख करें या मार्क्सवाद छोड़ रहे लोगों की नई पार्टी बना लें. कविता कृष्णन द्वारा स्टालिन को हिटलर के साथ बिठाए जाने से जेल में बंद ‘वामपंथी’ उमर खालिद भी काफी उत्साहित हैं. इसकी जानकारी खुद कृष्णन ने अपनी फेसबुक वॉल पर उत्साहित होकर दी है.

समाजवाद और सर्वहारा की तानाशाही के मार्क्सवादी सिद्धांत को खारिज करते हुए वे इसकी तुलना फासीवाद से करती है, जहां ‘एक धर्म, एक विचार, एक पार्टी, और एक व्यक्ति का वर्चस्व होता है.

कविता कृष्णन की तरह ही नेपाल में ‘प्रचंड पथ’ बनाने वाले पुष्प कमल दहालने भी राजशाही के खात्मे के लिए ‘मल्टी पार्टी डेमोक्रेसी’ का विचार दिया. यानी नेपाल के माओवादियों ने इतनी सालों की मेहनत के बाद, 10 साल तक छापामार युद्ध के बाद सत्ता हासिल की और सत्ता में आते ही सर्वहारा वर्ग के साथ शोषक वर्गों की पार्टी को भी सत्ता में भागीदारी के लिए आमंत्रित कर लिया.

भारत की माओवादी पार्टी ने इस ‘प्रचंड पथ’ को वर्ग संश्रय, संशोधनवाद और क्रांति के साथ गद्दारी कहते हुए खारिज कर दिया, जबकि भारत के माले ने इस लाइन को सही बताते हुए वहां के माओवादियों के साथ सत्ता में भागीदारी की. नतीजा सामने है कि इतनी शानदार, सफल क्रांति सत्ता हासिल करते ही औंधे मुंह गिर गई.

सर्वहारा की तानाशाही के कारण ही रूस चीन की सर्वहारा और नवजनवादी क्रांतियां कुछ साल रह सकी और दुनिया को इसकी शानदार झलक दे सकीं, जैसे ही दोनों जगहों पर वर्ग संश्रय की लाइन अपनाई गई वैसे ही समाजवादी व्यवस्था उल्टी दिशा में लौट गई. सालों से सत्ता में जमे रूस के राष्ट्रपति पुतिन किसी तानाशाह से कम नहीं. लेकिन वे इस जगह पर समाजवाद के कारण नहीं, बल्कि पूंजीवादी पुनर्स्थापना के कारण पहुंचे हैं.

यह भी स्पष्ट करना ज़रूरी है कि समाजवाद का बचाव करने का यह बिल्कुल आशय नहीं है कि वो अब तक जहां भी लागू हुआ, उसमें कोई कमियां नहीं रहीं. समाजवाद के अंदर से भी इसकी कमियों परआवाज उठती रही है. स्टालिन का मूल्यांकन खुद माओ महान बहस के दौरान करते हैं और कहते हैं, ‘स्टालिन 70 प्रतिशत सही थे, 30 प्रतिशत गलत.’

एक और चर्चित नाम लूं, तो वो अलेक्सांद्रा कोलोन्तई हैं, जिनके लेनिन स्टालिन से हमेशा मतभेद रहे. खासतौर पर पार्टी और नेतृत्व में महिलाओं को आगे बढ़ाने, महिला कमेटियों और आंदोलनों पर अलग से जोर देने, यहां तक कि स्त्री-पुरुष संबंधों में समाजवादी मूल्यों को लेकर भी उनके लेनिन स्टालिन से मतभेद रहे. लेकिन उनका मतभेद कभी भी समाजवाद के खिलाफ या मार्क्सवाद के खिलाफ नहीं था.

उस वक्त एकमात्र समाजवादी समाज, जिस पर सारी दुनिया की नज़र है, जिसे पूंजीवादी और हिटलर का फासीवाद ध्वस्त करने की योजनाएं बना रहा हो, को बचाने के लिए हमेशा सचेत रहीं. आगे जिस भी देश में समाजवादी को जमीन पर उतारा जाएगा, महिलाओं की मुक्ति के लिए उसे कोलोन्तई के विचारों से होकर गुजरना ही पड़ेगा क्योंकि उनके अधिकांश विचार समाजवाद को समृद्ध करते हैं.

कोलोन्तई से कविता कृष्णन की तुलना नहीं की जानी चाहिए यह सिर्फ समाजवाद को समृद्ध करने वाले विचार और समाजवाद को ध्वस्त करने वाले विचार में अंतर दिखाने के लिए है. कविता कृष्णन का भ्रमित विरोध समाजवाद से ही है, वे जिन प्रस्थापनाओं पर भ्रमित सवाल उठा रही हैं उनका विरोध मार्क्सवाद से है. इसलिए उनके इस भ्रमित विरोध को अंदरूनी वाद-विवाद-संवाद न मानकर बाहरी हमला ही माना जाना चाहिए.

आज के फासीवाद दौर में जबकि फासीवाद एक पार्टी नहीं, बल्कि सभी चुनावी पार्टियों की विचारधारा बन गई है, जब यह चुनाव से जाती नहीं दिख रही है और यह अपनी सबसे हिंसक कार्रवाईयों के साथ हमारे सामने है, मार्क्सवादी इंकलाब ही इसका जवाब है. ऐसे समय में समाजवाद को ही फासीवादी, सर्वसत्तावादी, तानाशाही शासन व्यवस्था बताना किस बात का संकेत है, यह समझा जा सकता है.

लेकिन यह अकेले कविता कृष्णन या कन्हैया कुमार की बात नहीं है, उनकी पार्टियों की भी है, जिन्होंने ऐसे मौकों पर अपनी विचारधारा का बचाव तक नहीं किया.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)