जिस तरह देश की सबसे पुरानी पार्टी ने धीरे-धीरे दलितों और ओबीसी मतदाताओं के बीच अपना मजबूत प्रभाव खोया है, उसे देखते हुए एक दलित कांग्रेस कार्यकर्ता के पार्टी प्रमुख बनने को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
नई दिल्ली: कांग्रेस के नए अध्यक्ष के तौर पर मल्लिकार्जुन खड़गे की पदोन्नति को देश की सबसे पुरानी पार्टी द्वारा देशभर के दलित और हाशिये के अन्य समुदायों को एक महत्वपूर्ण संकेत दिए जाने के तौर पर देखा जा रहा है.
किसी जमाने में कांग्रेस की इन समुदायों पर मजबूत पकड़ हुआ करती थी, लेकिन पिछले कुछ दशकों के दौरान इन समुदायों पर कांग्रेस का असर धीरे-धीरे कमजोर होता गया. मुख्य तौर पर कांग्रेस विरोध के मुद्दे पर अस्तित्व में आईं और बहुजन हितों की नुमाइंदगी करने के लिए स्थापित की गईं विभिन्न क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियां इन समुदायों को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब रहीं.
उत्तर में बहुजन समाज पार्टी या राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड) और समाजवादी पार्टी जैसी समाजवादी पार्टियों का उभार कांग्रेस की कीमत पर हुआ, वहीं वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति, तेलुगु देशम पार्टी या बीजू जनता दल ने भी ऐतिहासिक तौर पर सत्ता की राजनीति में हाशिये पर रहे समुदायों के समर्थन से खुद को मजबूत करने का काम किया.
ज्यादा हाल की बात करें, तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा खुद को सवर्ण जातियों का नेतृत्व करने वाली पार्टी की जगह एक ओबीसी नेतृत्व वाली पार्टी के तौर पर पेश किया गया, जिससे यह न सिर्फ कांग्रेस के जनाधार में सेंध में लगाने में कामयाब रही, बल्कि उन पार्टियों के समर्थन आधार को भी निगलने में कामयाब रही, जिनका उभार ही बहुजन हितों के प्रतिनिधि के तौर पर हुआ था.
इन समुदायों के कांग्रेस से छिटकने के मुख्य तौर पर दो कारण बताए जाते हैं- एक, पिछले कुछ दशकों में विभिन्न दलित और ओबीसी समूहों द्वारा स्वतंत्र तरीके से अपनी गोलबंदी और दूसरा, खुद कांग्रेस का एक सामाजिक ताकत से एक टेक्नोक्रेटिक, सुधारोन्मुख प्रतिष्ठान के तौर पर रूपांतरण, जिसने एक तरह से इसके फैसले लेने की प्रक्रिया में हाशिये के समुदायों की किसी किस्म की भागीदारी का रास्ता बंद कर दिया.
ऐसे में कांग्रेस के शीर्ष नेता के तौर पर मल्लिकार्जुन खड़गे का निर्वाचन न सिर्फ उन समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण बदलाव है, जिन्हें पार्टी अपनी तरफ लुभाना चाहती है, बल्कि यह खुद पार्टी के हिसाब से भी एक बड़ा बदलाव है.
भिन्न-भिन्न मत
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या शीर्ष पद पर खड़गे की नियुक्ति से कांग्रेस को अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने में मदद मिलेगी? बहुजन राजनीति के जानकार इस पर भिन्न-भिन्न मत रखते हैं.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर हरीश वानखेड़े का मानना है कि खड़गे की नियक्ति कांग्रेस के राजनीतिक आचरण में एक बड़े प्रस्थान का प्रतिनिधित्व करती है.
‘1970 के दशक तक कांग्रेस को हाशिये के समुदायों की पार्टी के तौर पर देखा जाता था, लेकिन सामाजिक अभिजात्यों के नेतृत्व में- एक इंद्रधनुषी पार्टी जिसे मुस्लिमों, दलितों और कृषक समुदायों का समर्थन हासिल था- यह पिछले चार-पांच दशकों में अपना वह चरित्र गंवाती गई, जिसने इन समुदायों को इसके खिलाफ बगावत करने और अपने हितों की नुमाइंदगी खुद करने पर विवश कर दिया.’
उन्होंने आगे कहा, ‘खड़गे की नियुक्ति यह संकेत देती है कि पार्टी अपने बुनियादी नेहरूवादी समाजवादी राजनीति की तरफ लौट रही है- जिस ओर पार्टी के झुकने के संकेत पिछले कुछ सालों से दिखाई भी दे रहे हैं.’
वानखेड़े याद करते हैं कि कैसे एक दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब इकाई का नेतृत्व करने के लिए चुना गया. ‘वे असफल रहे, लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी इससे हताश नहीं हुई.’
उन्होंने आगे कहा, ‘यहां तक कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस सरकारों का नेतृत्व अभी ओबीसी नेताओं के हाथों में है. अन्य राज्य इकाइयों में भी इसने हाशिये के समुदायों से आने वाले नेताओं को धीरे-धीरे शीर्ष पदों पर नियुक्त किया है. इस तरह से देखें तो खड़गे की पदोन्नति इस राजनीतिक रणनीति की परिणति दिखाई देगी.’
साथ ही उन्होंने जोड़ा कि ‘ऐसा लगता है कि कांग्रेस लोगों को यह एहसास दिलाना चाहती है कि यह अपने संगठन का लोकतांत्रिकरण करने की इच्छा रखती है, न सिर्फ जमीनी स्तर पर बल्कि शीर्ष स्तर पर भी.’
लेकिन कर्नाटक के राजनीतिक विश्लेषक शिवसुंदर को ऐसा लगता है कि सिर्फ सांकेतिकता से पार्टी को शायद कोई लाभ न मिले.
वे कहते हैं, ‘खड़गे पार्टी को एकजुट रखने के हिसाब से सबसे अच्छा दांव थे, लेकिन एक दावा पेश करने वाली या व्यवहार्य राजनीतिक शक्ति के तौर पर इसकी वापसी, खासकर हाशिये वाले समुदायों के बीच, इसके पूर्ण कायांतरण की मांग करती है- राजनीतिक कायांतरण की भी और संगठनात्मक कायांतरण की भी.’
उनका कहना है कि कांग्रेस विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों और वर्चस्वशाली राजनीतिक समूहों की तरफ अपने झुकाव के चलते ऐसे बदलाव के लिए अंदरूनी तौर पर अक्षम है.
शिवसुंदर कहते हैं, ‘2000 में कोलार जिले में हुए कंबलापल्ली दलित नरसंहार के वक्त कर्नाटक के गृहमंत्री खड़गे थे. यह एक उदाहरण यह दिखाता है कि सिर्फ राजनीतिक प्रतीकात्मकता से ही किसी पार्टी के स्वरूप में बदलाव नहीं आता है.’
उत्तर प्रदेश के विश्लेषक और राजनीतिक विज्ञानी बद्री नारायण को भी यह नहीं लगता है कि खड़गे की पदोन्नति कांग्रेस के चुनावी प्रदर्शन को बेहतर करने में मदद कर सकती है.
उनका कहना है, ‘इससे शायद दक्षिण में कुछ फायदा हो सकता है, लेकिन उत्तर में इसका उतना फायदा नहीं होगा.’
वे कहते हैं, ‘दलित पहले ही तीन समूहों में बंटे हुए हैं. एक जो बहुजन समाज पार्टी की तरफ है और दूसरा वह जिसने भगवा पार्टी को गले लगा लिया है. एक तीसरा समूह है जो स्थानीय कारकों पर मतदान करता है. इस तीसरे समूह में कांग्रेस को कुछ फायदा मिल सकता है, लेकिन यह नाकाफी होगा.’
इसके अलावा उनका यह भी कहना है कि जमीनी राजनीतिक प्रयासों के बिना सिर्फ प्रतीकात्मकता कोई खास राजनीतिक लाभ नहीं पहुंचाती.
वे कहते हैं, ‘जगजीवन राम, जो 50 सालों में पार्टी के एकमात्र दलित अध्यक्ष थे, को प्रधानमंत्री के तौर पर न चुनने का खामियाजा कांग्रेस पार्टी आज तक भुगत रही है. दलितों के पास अब दूसरे विकल्प है. कांग्रेस के लिए राह अब कतई आसान नहीं है.’
नए अध्यक्ष के सामने चुनौतियां
यह सही है कि खड़गे की पदोन्नति को कांग्रेस की राजनीतिक रणनीति में बदलाव के बतौर देखा जा रहा है, लेकिन इस उम्र के नौवें दशक में चल रहे नेता के लिए आगे की राह किसी भी मायने में आसान नहीं होगी.
सबसे पहले तो, उन्हें कर्नाटक में दूसरे दलित नेताओं को विश्वास में लेना होगा. खड़गे का संबंध होलेया समुदाय से है, जिन्हें ‘राइट हैंड’ दलितों के भीतर रखा जाता है. इसका ‘लेफ्ट हैंड’ दलितों, जिनमें मडीगा शामिल हैं, से दुश्मनी भरा रिश्ता है.
2019 में खड़गे 1972 के बाद से अपना पहला चुनाव हार गए और इसका कारण मडीगा और लंबनी और भोवी जैसे दलित समूहों का खड़गे का दामन छोड़कर भाजपा के पक्ष में मतदान करना माना जाता है.
‘राइट हैंड’ और ‘लेफ्ट हैंड’ समूहों के बीच- एक समय ये दोनों की कांग्रेस के समर्थक थे- इस शत्रुतापूर्ण संबंध कांग्रेस की अपनी ही करनी का नतीजा है. कुछ दलित समूहों की इस मांग को स्वीकार करते हुए कि दलितों के भीतर के कुछ निश्चित उपजाति समूहों को अनुसूचित जाति के 15 फीसदी कोटे के भीतर से ही आंतरिक आरक्षण दिया जाए, क्योंकि उनकी स्थिति कुछ और दलितों से ज्यादा खराब है, 2005 की धरम सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस जनता दल (सेक्युलर) सरकार ने इस संभावना पर विचार करने के लिए एक एजे सदाशिव समिति का गठन कर दिया.
यह मामला लंबा चलता रहा है और अदालतों में चला गया, लेकिन बाद में आई कांग्रेस की सरकारें इस रिपोर्ट को लागू कराने की हिम्मत तो नहीं ही कर सकीं, यहां तक कि वे इस पर बात करने से भी कतराती रहीं. इस डर से कि ऐसा करना दलितों के भीतर के दूसरे उपजाति समूहों को नागवार गुजर सकता है.
सदाशिव आयोग की रिपोर्ट को लागू करने में सिद्दरमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार की नाकामी ने कई दलित समूहों को नाराज कर दिया और और उन्होंने अपनी वफादारी बदलकर भाजपा के पक्ष में कर ली. भाजपा सरकार ने भी इसे लागू करने से खुद को दूर रखा है. राज्य विधानसभाओं को इसे लागू कराने के लिए संविधान के अनुच्छेद 341 में संशोधन करने की आवश्यकता है. हालांकि केंद्र और राज्य की उसकी सरकारों ने अपने कार्यकाल के दौरान इन समूहों की बेहतर राजनीतिक नुमाइंदगी की मांग को पूरा करने की कोशिश की है.
खड़गे ‘राइट हैंड’ समूह से आते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे आरक्षण की व्यवस्था का दूसरों की तुलना में ज्यादा फायदा मिला है. अब उनके सामने सबसे पहली चुनौती अपने ही राज्य के दलित समुदायों को कांग्रेस की छतरी के भीतर एकजुट करने की है.
इसी तरह से उत्तर में पंजाब, उत्तर प्रदेश, पंजाब, यूपी और बिहार जैसे राज्यों में दूसरी पार्टियों ने किसी न किसी कारण से दलितों की कई उपजातियों को कांग्रेस से हटाकर अपनी ओर आकर्षित कर लिया है.
वर्तमान में इन ज्यादातर बगावती समूहों को सफलतापूर्वक आकर्षित करने का काम भाजपा ने किया है. इस प्रक्रिया में इसने सिर्फ कांग्रेस को ही नहीं, बल्कि बसपा को भी नुकसान पहुंचाया है. हिंदुत्व के बड़े मुद्दे के सहारे भाजपा इन दलित समूहों को सभी स्तर पर प्रतिनिधित्व देने में कामयाब रही है.
निश्चित तौर पर कांग्रेस के नए अध्यक्ष के सामने पहाड़ सी चुनौतियां हैं. खड़गे की पदोन्नति किसी भी रूप में राजनीतिक जटिलताओं को नहीं सुलझाती है. हालांकि, इस फैसले में कांग्रेस के भीतर एक मंथन को जन्म देने और कांग्रेस का ध्यान उन मसलों पर ले जाने की क्षमता है, जिसका सामना करने से कांग्रेस अब तक बचती रही है.
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