लगता है कि घोषणा रस में विह्वल प्रधानमंत्री जी भूल गए कि वे दिल्ली में एक संवैधानिक सरकार चलाते हैं कोई दरबार-ए-ख़ास नहीं कि जिसे जी चाहा अशर्फ़ियों से लाद दिया और जिसे जी चाहा कालकोठरी में डाल दिया.
इसमें सारा कसूर प्रधानमंत्री जी का नहीं है. चुनावी जोश का वीर रस साधते-साधते इंसान आपा खो सकता है. फिर ये कोई साधारण चुनाव नहीं है. गुजरात है. मोदी जी का अपना गुजरात.
यह उनकी ‘इज़्ज़त’ का सवाल है. लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं बल्कि उनके राजनीतिक भविष्य का भी सवाल है. राजनीति के आसमान में कब और कौन सा नया सितारा आपकी जगह ले लेगा, कहना मुश्किल होता है.
मोदी जी से बेहतर भला कौन जानेगा. भाजपा के आकाश में भी नए सितारे लॉन्च हो रहे हैं. योगीराज भी स्टार-प्रचारकों की लिस्ट में अपना नाम गाढ़ा करते जा रहे हैं.
उधर, विपक्ष भी कम नहीं पड़ रहा है. बौखलाए हुए सूरमा पत्ते की सरसराहट से भी आक्रमक हो उठते हैं. राहुल गांधी तो अच्छी-खासी चहल-पहल मचाए हुए हैं.
ऐसे में गलती हो सकती है, किसी से भी. और मोदी जी को तो चुनावी मोड में रहना ज़्यादा पसंद है. उसमें वे अपना ‘नेचुरल गेम’ खेलते हैं. उनके लिए प्रधानमंत्री होना तो चुनावी दौरों के बीच का ‘इंटरवल’ है.
वड़ोदरा में 3,650 करोड़ रुपये के प्रोजेक्टों की घोषणा करते हुए मोदी जी ने सिंहनाद किया कि ‘विकास विरोधी’ राज्य सरकारों को केंद्र की तरफ से एक पैसा नहीं मिलेगा.
यह प्रधानमंत्री का वक्तव्य नहीं लगता. लेकिन अफसोस यह है कि मोदी जी प्रधानमंत्री पद से छुट्टी लेकर प्रचार करने नहीं आए हैं और न ही वे अपनी जेब से पैसा देने या न देने की बात कर रहे हैं.
वे बात कर रहे हैं केंद्र सरकार के खज़ाने से राज्यों को पैसा देने की. इसलिए उनके इस कथन से कई सवाल खड़े हो जाते हैं. पहला तो यह कि केंद्र के पास पैसा आता है देश के नागरिकों से जो हर राज्य में हैं.
अगर आप किसी राज्य को पैसा नहीं दे रहे हैं तो असल में आप उस राज्य के नागरिकों पर हमला कर रहे हैं न कि उस राज्य की सरकार पर. और अगर प्रधानमंत्री का इशारा यह था कि गैर-भाजपा राज्य सरकारों को पैसा नहीं देंगे तो फिर ये तो हर उस नागरिक के ख़िलाफ़ घोषणा है जो भाजपा को वोट नहीं देगा या देगी.
अफसोस की बात यह है कि जैसी भाषा पार्षदी का चुनाव लड़ रहे किसी नौसीखिए के लिए भी अनुचित होगी वह देश का प्रधानमंत्री बोल रहा है!
लगता है कि घोषणा रस में विह्वल प्रधानमंत्री जी भूल गए कि वे दिल्ली में एक संवैधानिक सरकार चलाते हैं कोई दरबार-ए-ख़ास नहीं कि जिसे जी चाहा अशर्फ़ियों से लाद दिया और जिसे जी चाहा कालकोठरी में डाल दिया.
यह दीगर बात है कि वडोदरा में उनकी शैली दरबार वाली ही थी. उन्होंने लोगों को बता दिया कि वहां एक दिन में उन्होंने 3,650 करोड़ रुपये के ‘डेवेलपमेंट प्रोजेक्टों’ का उद्घाटन किया है.
वे चाहते तो ऐसा नहीं भी कर सकते थे. लोगों को उनका एहसान मानना चाहिए और उन्हें ही वोट देना चाहिए. उन्होंने लोगों को उदाहरण देकर समझाया भी कि दूसरी पार्टियों को वोट देंगे तो दिल्ली के शहंशाह इन प्रोजेक्टों को रुकवा भी सकते हैं.
भाषा-शैली और सोच को अगर थोड़ी देर के लिए एक तरफ रख दें तो प्रधानमंत्री का वक्तव्य दूसरे कारणों से भी आपत्तिजनक है. केंद्र और राज्यों के बीच धन का बंटवारा संविधान और नियम-कानूनों के तहत होता है, न कि प्रधानमंत्री या केंद्र की मनमर्ज़ी से.
इस बंटवारे में बदलाव के लिए संविधान और कानूनी प्रक्रियाओं में भारी बदलाव करना पड़ेगा. ऐसे में इस तरह की धमकी देने का क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए?
क्या केंद्र सरकार देश के संघीय ढांचे को बदल देगी ताकि उसकी मनमर्ज़ी से राज्यों को पैसा दिया जाए या रोक लिया जाए. यह आसान नहीं होगा, लेकिन संवैधानिक ढांचे के प्रति सरकार का जो आम रवैया है उसे देखते हुए इसकी मंशा को दरकिनार नहीं किया जा सकता.
रही बात किसी सरकार के ‘विकास-विरोधी’ होने या न होने की, तो यह फैसला कौन करेगा और किन आधारों पर? ‘विकास’ के अलग-अलग मायने और रास्ते हो सकते हैं और संघीय लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार विकास के किसी अलग मॉडल को अपनाए, इसकी गुंजाइश होनी चाहिए. लेकिन प्रधानमंत्री का वक्तव्य इस गुंजाइश को ख़ारिज करता है.
प्रधानमंत्री जी की बात से यह भी पता चलता है कि विकास की वैकल्पिक परिभाषाओं के लिए या विकास की अवधारणा पर ही सवाल उठाने वाली अवधारणाओं के लिए उनके ज़ेहन में कोई जगह नहीं है और यह भी कि प्रधानमंत्री व केंद्र सरकार लोकतांत्रिक विमर्श का कितना सम्मान करते हैं.
यहां यह जोड़ना भी प्रासंगिक होगा कि पूंजीवादी विकास पर आधारित संघीय ढांचे में इस तरह की गुंजाइश वैसे भी सीमित ही होती है. मोदी जी के वक्तव्य के बारे में सिर्फ यह नहीं कहा जा सकता कि चुनावी गहमा-गहमी में मुंह से निकल गया.
अगर ऐसा भी तो इसे ‘फ्रायडियन स्लिप’ की तरह देखा जाना चाहिए. यानी जोश-जोश में ऐसी बात कह दी जो असली चेहरे को उघाड़ देती है. मोदी जी ने जो कहा, वो असल में उस कॉरपोरेट जगत की ज़बान है जो विकास का सिर्फ एक मॉडल पूरे देश में चाहता है- संसाधनों और श्रम की अधिकाधिक लूट का मॉडल. जो भी इससे इतर जाएगा, वो सरकार की नज़र में ‘विकास-विरोधी’ होगा.
अंत में, यह शायद देश की पहली सरकार होगी, जिसके विरोधियों की लिस्ट इतनी लंबी है– हिंदू-विरोधी, गौमाता-विरोधी, राष्ट्र-विरोधी और अब विकास-विरोधी. गुजराती चुन लें कि वे अपना नाम कहां दर्ज कराना चाहते हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं और भोपाल में रहते हैं)