22 दिसंबर 2000 की रात को कुछ घुसपैठिए लाल क़िले में घुस गए थे, जहां भारतीय सेना की 7 राजपूताना राइफल्स की यूनिट तैनात थी. घुसपैठियों की गोलीबारी में सेना के तीन जवानों की जान चली गई थी.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी मोहम्मद आरिफ उर्फ अशफाक की उस याचिका को बृहस्पतिवार को खारिज कर दिया, जिसमें उसने साल 2000 के लाल किला हमले के मामले में मौत की सजा के फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया था.
हमले में सेना के तीन जवान मारे गए थे. शीर्ष अदालत ने कहा कि रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो आरिफ के पक्ष में परिस्थितियों को दिखाए और यह तथ्य कि भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता पर ‘सीधा हमला’ हुआ था, तमाम परिस्थितियों पर भारी पड़ता है.
प्रधान न्यायाधीश यूयू ललित, जस्टिस एसआर भट और जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की पीठ ने याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए मुद्दों पर विचार किया, जिसमें उसने कहा कि अदालतों ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी के तहत उपयुक्त प्रमाण-पत्र के अभाव में कॉल रिकॉर्ड को साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर त्रुटि की.
पीठ ने कहा कि रिकॉर्ड पर रखे गए अन्य साक्ष्य बिना शक अपराध में उसकी भागीदारी को साबित करते हैं.
पीठ ने कहा कि यह अच्छी तरह से स्वीकार किया जाता है कि मौत की सजा देने से पहले अपराध के सभी कारकों और सजा कम करने वाली परिस्थितियों के कुल प्रभाव को ध्यान में रखा जाना चाहिए.
पीठ ने कहा, ‘मौजूदा मामले में रिकॉर्ड पर ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे पुनर्विचार के लिए याचिकाकर्ता के पक्ष में सजा कम करने वाली परिस्थिति के रूप में लिया जा सकता है.’
पीठ ने अपने 40 पन्नों के फैसले में कहा कि दूसरी ओर रिकॉर्ड से स्पष्ट होने वाली गंभीर परिस्थितियां और विशेष रूप से यह तथ्य कि भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता पर सीधा हमला हुआ था, यह सभी कारकों पर भारी पड़ता है.
अभियोजन पक्ष के मुताबिक, 22 दिसंबर 2000 की रात को कुछ घुसपैठिए उस इलाके में घुसे थे, जहां भारतीय सेना की 7 राजपूताना राइफल्स की यूनिट लाल किले के अंदर तैनात थी.
पुलिस ने कहा था कि घुसपैठियों की गोलीबारी में सेना के तीन जवानों की जान चली गई थी. बाद में ये घुसपैठिए लाल किले की पिछली दीवार की चारदीवारी को फांद कर भाग गए थे.
31 अक्टूबर 2005 को एक निचली अदालत ने आरिफ को मौत की सजा सुनाई थी और दिल्ली हाईकोर्ट ने सितंबर 2007 में निचली अदालत के फैसले की पुष्टि की थी.
इसके बाद उसने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया था. शीर्ष अदालत ने अगस्त 2011 में आरिफ को दी गई मौत की सजा को बरकरार रखा.
बाद में उसकी पुनर्विचार याचिका पर शीर्ष अदालत की दो न्यायाधीशों की पीठ ने विचार किया, जिसने अगस्त 2012 में इसे खारिज कर दिया. जनवरी 2014 में उसकी ‘क्यूरेटिव’ (उपचारात्मक) याचिका को भी खारिज कर दिया गया था.
शीर्ष अदालत की संविधान पीठ ने सितंबर 2014 के अपने फैसले में यह निष्कर्ष निकाला था कि उन सभी मामलों में जिनमें हाईकोर्ट ने मौत की सजा दी थी, ऐसे मामलों को तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाना चाहिए.
जनवरी 2016 में एक संविधान पीठ ने निर्देश दिया था कि आरिफ एक महीने के भीतर एक खुली अदालत में सुनवाई के लिए खारिज पुनर्विचार याचिकाओं को फिर से खोले जाने का हकदार होगा.
शीर्ष अदालत ने बृहस्पतिवार को दिए गए अपने फैसले में कहा कि चुनौती मुख्य रूप से चार आधारों पर उठाई गई कि अदालतों में इन पर विचार नहीं किया गया था. पीठ ने कहा, ‘हमें इस मौजूदा पुनर्विचार याचिका में कोई तथ्य नहीं मिला है, इसलिए इसे खारिज किया जाता है.’