गोदी मीडिया भाजपा का महासचिव-सा बन गया है. पूरा गोदी मीडिया पार्टी में बदल चुका है. गोदी मीडिया के बाहर मीडिया बहुत कम बचा है. इसलिए कई लोग पत्रकारिता छोड़कर पार्टियों का काम कर रहे हैं. आईटी सेल और सर्वे में करिअर बना रहे हैं.
राजनीति और पत्रकारिता के बीच कोई सीमा रेखा नहीं बची है. गोदी मीडिया एक पार्टी का भोंपू बन गया है. इस पेशे में टिके रहने के लिए किसी पत्रकार को व्यक्तिगत स्तर पर आर्थिक, मानसिक, कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
सूचनाएं हैं नहीं. इन्हें हासिल करना असंभव बना दिया गया है, सूचनाएं होती हैं तब भी नहीं छपती हैं. ऊपर से कभी जेल तो कभी ट्रोल तो कभी छापा.
द वायर के साथ क्या हुआ आपने देखकर भी अनदेखा कर दिया. वायर ने अपनी रिपोर्ट वापस ले ली, गलती भी मानी, लेकिन यहां दो हजार रुपये के नोट में चिप बताने वालों ने आज तक नहीं बताया कि वह सूचना कहां से मिली थी? किसने दी थी?
वायर के दफ्तर और संपादकों के घर में छापा पड़ता है और लोग डर से उस खबर को साझा तक नहीं करते. संदेश जाता है कि जनता को पत्रकारिता से मतलब नहीं है. सूचनाओं की पत्रकारिता प्राय: समाप्त हो चुकी है. बयानों को लेकर विश्लेषण का ही मैदान सबके लिए बचा है.
इसुदान गढ़वी ने पत्रकारिता छोड़ राजनीति का रास्ता क्यों लिया यह तो पता नहीं मगर ले लिया. पहले भी लोग पत्रकारिता छोड़ राजनीति में गए और वहां से लौटकर पत्रकारिता करते रहे हैं.
गोदी मीडिया भाजपा का महासचिव सा बन गया है. पूरा गोदी मीडिया पार्टी में बदल चुका है. गोदी मीडिया के बाहर मीडिया बहुत कम बचा है. इसलिए कई लोग पत्रकारिता छोड़कर पार्टियों का काम कर रहे हैं. आईटी सेल और सर्वे में करिअर बना रहे हैं.
यह दौर पत्रकारिता के राजनीतिकरण और राजनीति के पत्रकारिताकरण का है.
राजनीतिक दलों के भी अपने चैनल हो चुके हैं. उनके वीडियो भी बदलने लगे हैं. कोई तरह के कैमरे से शूट होता है, शानदार एडिटिंग होती है और अब रिसर्च सामग्री भी होती है. कई प्रवक्ता एंकर की तरह वीडियो बनाने लगे हैं.
हमने पत्रकारिता छोड़कर कांग्रेस की प्रवक्ता बनीं सुप्रिया श्रीनेत का उदाहरण दिया था. दलों के भीतर प्रोपेगैंडा पत्रकारिता पहले से ज्यादा विकसित हुई है. अब ये दल मीडिया को भी तथ्यों और उसकी चुप्पी पर चुनौती देते हैं.
राजनीतिक दलों के मुखपत्रों में उनके ही नेता होते थे, लेकिन अब उनके साथ-साथ पेशेवर अनुभव और कौशल वाले लोग भी नौकरी कर रहे हैं.
इसुदान गढ़वी को लेकर कोई बहस नहीं है. कौन करेगा? गोदी मीडिया यह सवाल उठाएगा तो अपने ही स्टुडियो में जलील होने लग जाएगा.
हाल ही में अरविंद केजरीवाल ने आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय से गोदी मीडिया को निर्देश आते हैं कि किसे दिखाना है और किसे नहीं.
इसके बाद न्यूज़लॉन्ड्री ने हीरेन जोशी पर एक रिपोर्ट की मगर मुख्यधारा के साधन संपन्न मीडिया ने ढंग की प्रोफाइल तक नहीं की. की होगी तो आप खोज कर जरूर पढ़ें. इस सवाल पर गोदी मीडिया इसुदान से बहस ही नहीं कर पाएगा.
2017 में जब योगी आदित्यनाथ पहली बार मुख्यमंत्री बने तब शलभ मणि त्रिपाठी उनके मीडिया सलाहकार बने. 2022 को चुनाव में शलभ चुनाव भी लड़े और जीते भी. सलाहकार बनने और चुनाव लड़ने की परंपरा पहले से चली आ रही परंपरा है. शलभ ने शुरू नहीं की.
एमजे अकबर ने कांग्रेस से चुनाव लड़ा. फिर राजनीति छोड़ पत्रकार बने और अब तो भाजपा में जाकर मंत्री भी बन गए. पत्रकार भी राजनीति में आकर दल-बदल करते हैं.
अब तो पत्रकार सूचना आयुक्त भी बनाए जाने लगे हैं. कैसे पत्रकार बनाए जाते हैं, यह अलग बात है लेकिन इस पद पर नियुक्ति भी राजनीतिक हो चुकी है.
इसुदान गढ़वी शायद पहले पत्रकार होंगे, जो अपने पेशे से निकलकर मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए गए हैं. यह बड़ा जोखिम है. आम तौर पर पत्रकार राज्यसभा का रास्ता चुनते हैं.
अब इसका मतलब यह नहीं कि आप मुझे भी राय देने लग जाएं. कई लोग मजाक करते करते गंभीर हो जाते कि राजनीति में आ जाइए और चुनाव लड़ लीजिए. मैं सुनकर चुप हो जाता हूं! अदाणी जी अपना जहाज तो देंगे नहीं, जिसमें बैठकर मोदी जी की तरह चुनाव प्रचार से लौटते वक्त फोटो खींचा सकें. जब यही नहीं किया तब फिर क्या फायदा चुनाव लड़ने का! एक फोटो घूमता है न ऐसा, आपने नहीं देखा?
(मूल रूप से रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित)