राम मंदिर प्रोजेक्ट में वैज्ञानिकों के जुड़ने का संबंध विज्ञान से नहीं सत्ता से है

सरकार द्वारा अयोध्या के राम मंदिर के लिए एक जटिल संरचना बनाने को लेकर वैज्ञानिकों को जोड़ने के बारे में नाराज़ होने की वजहें हैं, लेकिन काम करने की स्वतंत्रता और फंडिंग से जुड़े सवाल इससे बड़े हैं.

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राम मंदिर का प्रस्तावित डिज़ाइन.

सरकार द्वारा अयोध्या के राम मंदिर के लिए एक जटिल संरचना बनाने को लेकर वैज्ञानिकों को जोड़ने के बारे में नाराज़ होने की वजहें हैं, लेकिन काम करने की स्वतंत्रता और फंडिंग से जुड़े सवाल इससे बड़े हैं.

राम मंदिर का प्रस्तावित डिज़ाइन.

20 नवंबर को काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से एक प्रोजेक्ट के बारे में ट्वीट किया जिसका जिम्मा इसके अधीन 38 प्रयोगशालाओं में से एक के शोधार्थियों को सौंपा गया है: इन वैज्ञानिकों को आईनों और लेंसों की मदद से यह सुनिश्चित करना है कि हर साल रामनवमी के दिन सूर्य की किरणें अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर में बनाई जा रही राम की मूर्ति के माथे पर सीधी पड़े.

इस घोषणा ने विवादों को जन्म दे दिया. तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने 21 नवंबर को ट्वीट किया कि एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने उन्हें बताया कि वे अपनी पहचान एक वैज्ञानिक के तौर पर बताने पर शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं. 22 नवंबर को वैज्ञानिकों के एक छोटे से समूह ने इस परियोजना में वैज्ञानिकों को लगाने का विरोध करते हुए एक खुला खत लिखा और उन्हें इसमें अपनी भूमिका का स्पष्टीकरण देने के लिए कहा. 23 की सुबह तक इस खत पर दस्तखत करने वालों की संख्या 200 से पार हो चुकी थी.

2024 की रामनवमी को राम मंदिर में स्थापित रामलला के माथे पर पड़े, सरकार ने यह सुनिश्चित करने का जिम्मा सीएसआईआर के अधीन रुड़की के सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट को सौंपने की जानकारी दी थी. इस चुनौती के हल के तौर पर सीबीआरआई ने आईनों, लेंसों और मोटरों की मदद से एक प्रणाली के निर्माण की बात की है, जो आसमान में सूरज के गमन-पथ को ट्रैक करने और उसकी रोशनी को परावर्तित करके मूर्ति पर डालने का काम करेगी. इस काम में मुख्य चुनौती रामनवमी के दिन आसमान में सूरज की स्थिति का अनुमान लगाने की है.

अगर इंजीनियरों को सिर्फ सौर कैलेंडर के हिसाब से यह काम करना होता तो यह उनके लिए ज्यादा आसान होता. लेकिन चूंकि रामनवमी की तारीख का निर्धारण चंद्र और सौर, दोनों पंचांगों के आधार पर किया जाता है, इसलिए उनकी गणना काफी पेचीदा होगी.

टेलीग्राफ ने इस परियोजना में शामिल एक अप्रकट नाम वाले व्यक्ति के हवाले से यह बताया कि सीबीआरआई ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स (आईआईए), बेंगलुरू और इंटरयूनिवर्सिटी सेंटर फार एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (आईयूसीएए), पुणे के रिसर्चरों की मदद भी इस परियोजना के लिए मांगी है.

क्या वैज्ञानिकों को इसमें शामिल होना चाहिए?

जब ऐसे व्यक्ति जो वैज्ञानिक नहीं हैं, यह सवाल पूछते हैं कि क्या कोई काम वैज्ञानिकों के समय या टैक्स के पैसों का सर्वोत्तम उपयोग है, तब एक पूर्वधारणा यह होती है कि यह पैसा और समय किसी दूसरे काम में लगाया जाता, तो बेहतर होता. इससे दो सवाल और निकलते हैं: क्या आम लोग यह फैसला लेते हैं (ले सकते हैं) कि वैज्ञानिकों को किस चीज पर काम करना चाहिए? इसका जवाब हां में देना, आपदा को न्योता देने के समान होगा.

निश्चित तौर पर इसका फैसला सिर्फ वैज्ञानिक ही अपने सहयोगियों/ मित्रों, नीति-निर्माताओं/फंडिंग करने वालों और अगर वे सरकारी वैज्ञानिक हैं, तो कानून निर्माताओं से भी सलाह-मशविरा करके ले सकते हैं.

(इस सिलसिले में यह कहा जाना चाहिए कि करदाता के पैसे को लेकर बहुत ज्यादा हाय-तौबा मचाने के अपने जोखिम हैं. सरकार टैक्स के पैसे को कैसे खर्च करती है, इसे तय करने में दखल की चाहत ठीक है- लेकिन यह काम राजनीतिक भागीदारी से ही हो सकता है, न कि पैसे को किसी और चीज पर खर्च करने की अलग-अलग मांगों से.)

इसके अलावा क्या हमें यह मालूम है कि हमारे वैज्ञानिक अगर हर समय नहीं, तो ज्यादातर समय काम में लगे रहते हैं. जबकि हममें से ज्यादातर लोग ऐसा नहीं करते हैं. इस सलाह का मकसद परफेक्ट की अच्छे से तुलना नहीं है, बल्कि इस धारणा पर पुनर्विचार करना है कि एक कथित तौर पर ‘गैरवाजिब’ काम के लिए सीएसआईआर के एक संस्थान को लगाना ‘वाजिब’ कामों के समंदर में एक अपवाद सरीखा है. हम अगर यह जानने में ज्यादा रुचि लें कि हमारे सार्वजनिक पैसों से चलने वाले शोध केंद्रों में वैज्ञानिक किस काम पर ज्यादा समय खर्च करते हैं, तो हमें ज्यादा फायदा होगा.

वैज्ञानिकों के समूह ने भी अपने बयान में लिखा, ‘सीबीआरआई ने जो रास्ता लिया है, वह हमारी वैज्ञानिक या तकनीकी समझ में किसी भी तरह से इजाफा नहीं करने वाला है. ऐसे किसी यंत्र का निर्माण किसी स्नातक के विद्यार्थी के लिए सीखने का एक अच्छा अभ्यास हो सकता है, लेकिन शोधकर्ताओं से ऐसे लक्ष्यों पर अपना ध्यान करने की उम्मीद की जाती है, जो मानवीय ज्ञान को आगे बढ़ाने वाले हों.’

यह दो कारणों से थोड़ा अजीब है. पहली बात, सीएसआईआर की स्थापना का बुनियाद लक्ष्य मानवीय ज्ञान का विकास करना न होकर वैज्ञानिक ज्ञान का प्रयोग उद्योगों को आगे बढ़ाने के लिए करना था. मिसाल के लिए सीबीआरआई स्पॉन्सर करने वाली बाहरी एजेंसियों के भी काम लेती है. 2021 में इसे आर्किटेक्ट सीबी सोमपुरा और लार्सन एंड टुब्रो द्वारा मंदिर निर्माण की संरचनागत विशेषताओं और मजबूती का जायजा लेने के लिए अलग-अलग अनुबंधित किया गया था. भविष्य में हजारों श्रद्धालुओं के इस इस मंदिर को देखने आने की उम्मीद है. और भले ही संस्थान मानवीय ज्ञान को आगे न बढ़ा रहा हो, लेकिन श्रद्धालुओं की सुरक्षा संबंधी आकलन में इसकी भूमिका निश्चित तौर पर एक अच्छी चीज है.

ज्यादा व्यापक तरीके से समझें, और यह दूसरा मुद्दा है, वैज्ञानिकों के साथ-साथ ही गैर वैज्ञानिकों द्वारा भी गैर वैज्ञानिक कारणों से किसी काम को किसी दूसरे काम से ज्यादा सही मानना आलोचनात्मक सोच के इस्तेमाल को लेकर एक एलिटिस्ट रवैया है, जिसके बिना भी हमारा काम चल सकता है. यह उस चीज पर लागू किया जा सकता है, जिसे प्रत्येक वैज्ञानिक और इंजीनियर सही समझे और उनके पास उनके अपने हितों और सार्वजनिक हितों को देखते हुए इन फैसलों को लेने या न लेने की आजादी होनी चाहिए. निश्चित तौर पर अगर सीबीआरआई और आईआईए और आईयूसीएए के वैज्ञानिकों को राम मंदिर परियोजना में जबरदस्ती शामिल किया गया है, तो यह बिल्कुल अलग मामला है.

फंड की कमी का असर

वैज्ञानिकों के समूह ने एक ऐसे समय में जब ‘विज्ञान के युवा शोधार्थी उन्हें आवंटित रिसर्च ग्रांट और फेलोशिप के मिलने में भयावह और हतोत्साहित करने वाली देरी का सामना कर रहे हैं, सार्वजनिक धन के इस आपराधिक फिजूलखर्ची की निंदा की.’ प्राथमिकताओं को लेकर आलोचना और सरकार को मंदिर के मामले ही तरह निर्णायक ढंग से काम करने की याद दिलाने के हिसाब से देखें तो समूह का बयान एकदम सही जगह पर चोट करता है. लेकिन यहां एक पूर्वधारणा भी है कि कि एक गतिविधि पर खर्च नहीं किया गया पैसा खुद ब खुद दूसरी गतिविधि के लिए उपलब्ध हो जाएगा.

युवा शोधार्थियों को पैसा नहीं मिलने का कारण पैसे की कमी नहीं है, बल्कि यह है कि यह सरकार की प्राथमिकता में नहीं है. पिछले कई सालों से सरकार शोध एवं विकास (रिसर्च एंड डेवेलपमेंट) पर जीडीपी का जो 0.69 प्रतिशत खर्च कर रही है, उसके असंतुलित बंटवारे पर यहां विचार किया जा सकता है.

एक विश्लेषण के अनुसार 2014 में सरकार द्वारा रिसर्च एंड डेवेलपमेंट पर किए गए कुल खर्च का दो तिहाई हिस्सा सिर्फ तीन विभागों को गया था : रक्षा रिसर्च एंड डेवेलपमेंट, अंतरिक्ष और नाभिकीय उर्जा. आईसीएआर, सीएसआईआर, डीएसटी, डीबीटी और आईसीएमआर को बाकी बचे पैसे से ही काम चलाना पड़ा था. तब से लेकर इस बंटवारे में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है.

ज्यादा पैसे का मतलब यह नहीं है कि हर चीज के लिए ज्यादा पैसा उपलब्ध हो जाएगा. सीएसआईआर के खाते में 2014 में सिर्फ 9.5 प्रतिशत आरएंडडी का फंड गया था, जो 2015 की ‘देहरादून घोषणा‘ के बाद और कम होता गया है. 2017 में यह लगभग कंगाल हो चुका था. 2018 में केंद्रीय बजट में इसमें मामूली 3.3 फीसदी की बढ़ोतरी की गई, जबकि रक्षा रिसर्च एंड डेवेलपमेंट के बजट को 29 फीसदी बढ़ा दिया गया.

कम पैसे देना एक ऐसी स्थिति बनाता है, जहां वैज्ञानिकों को सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए संसाधनों से ही काम चलाना पड़ता है और एक लोकप्रिय विचार यह है कि उन्हें इन संसाधनों का इस्तेमाल विवेकपूर्ण तरीके से करना चाहिए. लेकिन सवाल है कि ‘विवेकपूर्ण’ को परिभाषित कैसे किया जाए?

यहां समस्या यह नहीं है कि सीबीआरआई में बैठे हुए लोग उन्हें उपलब्ध बहुत कम पैसे को फालतू चीजों पर खर्च कर रहे हैं, बल्कि यह है कि यह सीएसआईआर और शोध को सहारा देने वाले दूसरे विभागों के पास जरूरत मुताबिक फंड नहीं है.

जब तामझाम से एक मकसद पूरा होता है

यह सब सिक्के का एक पहलू है. दूसरे पहलू का संबंध खुद सरकार से है.

जैसा कि वैज्ञानिकों के समूह ने अपनी चिट्ठी में लिखा है, सीबीआरआई ने जो हल निकाला है, वह अपने आप में ओवरइंजीनियरिंग, दूसरे शब्दों में कहें तो चीटी को टैंक से मारने जैसा है – लेकिन शायद मंशा यही है.

कल्पना की कीजिए अगर कभी ऐसी कोई प्रणाली तैयार की जाती है और नागर वास्तुकला, प्रार्थनाओं, हिंदू प्रतीकवाद के उत्कर्ष से घिरे मंदिर जो निस्संदेह राजनीतिक शक्ति का प्रतीक है, में काम करने लगती है

अयोध्या के राम मंदिर में एक तारे को ट्रैक करने और इसकी रोशनी को देवता के माथे पर केंद्रित करने के लिए स्थापित यंत्र न सिर्फ एक कमाल का तमाशा, बल्कि इस चीज का भी प्रतीक होगा कि हिंदुत्व के कार्यक्रम ने वैज्ञानिक सोच और श्रम और प्राकृतिक शक्तियों को सफलतापूर्वक अपने हित में अपने अधीन बना लिया है. (इस दिशा में एक छोटे कदम के तौर पर @CSIR_IND के ट्विटर हैंडल से निर्माणाधीन मंदिर की तस्वीर के साथ सीबीआरआई द्वारा सुझाए गए समाधान को लेकर जी न्यूज की खबर के लिंक को ट्वीट किया गया. हालांकि, 23 नवंबर को 12 बजे दोपहर तक इसे डिलीट किया जा चुका था. टाइमलाइन का एक कैश वर्जन यहां देख सकते हैं.)

इस बड़े तामझाम वाली प्रणाली की तुलना वैज्ञानिक समूह द्वारा सुझाए गए विकल्प से कीजिए- रामनवमी वाले दिन मंदिर में लेंस को हाथों से मूर्ति की तरफ घुमा दिया जाए. यह कल्पना करना मुश्किल है कि उत्तर प्रदेश और केंद्र की भाजपा सरकार ऐसे साधारण समाधान से संतुष्ट हो जाएगी, जो न कि मंदिर की आधुनिक विशेषताओं का प्रदर्शन करता है, जिसे वे प्राचीन भारत की श्रेष्ठता के दावों के साथ मिलाकर एक अपने हित में पेश कर सकते हैं, और न ही यह मंदिर की उस विशेषता को ही सामने लाता है, जिसका यह प्रतीक है-  नफासत का मुखौटा पहने आभासी सत्य का.

मंदिर को लेकर अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट करते हुए सरकार ने मंदिर के लिए गुलाबी बलुआ पत्थरों के उत्खनन के लिए राजस्थान की एक वाइल्ड लाइफ सेंचुरी को डीनोटिफाई करने का फैसला किया और इसकी भरपाई के लिए दूसरे क्षेत्र में एक वन खंड जोड़ दिया.

यह पूरा प्रकरण, सरकार द्वारा सीबीआरआई की मदद लेने से लेकर समाधान के तौर पर एक बड़े तामझाम की स्थापना इस तथ्य की याद दिलाता है कि वर्तमान भारतीय सरकार संवैधानिक मर्यादा के हिसाब से काम नहीं करती है, बल्कि इस बात को ध्यान में रखकर काम करती है कि कौन-सी चीज उसे सत्ता में बनाए रखेगी.

ऐसा उसने बाकी चीजों के अलावा वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान की कुछ शाखाओं को अन्य शाखाओं की तुलना में ज्यादा आकर्षक बनाकर और शोध संस्थानों के ज्ञान और बीतते समय के साथ उनकी साख का इस्तेमाल अपने फायदे में करके किया है.

इस पूरे संदर्भ में देखें तो वैज्ञानिकों द्वारा काम करने के लिए चुनी जा रही परियोजनाओं (एक बार फिर से यह ध्यान में रखते हुए क्या उनके पास वास्तव में कोई विकल्प है) की आलोचना करना वास्तविक मसले पर ध्यान नहीं देने जैसा होगा- जो यह है कि यहां भारत सरकार जो कर रही है, वह 2014 से इसके आचरण के अनुरूप ही है, जिसमें विज्ञान ही नहीं मंदिरों के प्रति भी इसका बर्ताव एक साझे दृष्टिकोण से प्रेरित रहा है: वो यह की कुएं से जितना हो सके पानी निकाल लो और जो बचा रह जाए, उसमें जहर मिला दो.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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