नोटबंदी से अमीरों का काला धन गरीबों को देने का प्रधानमंत्री मोदी का महान वादा एक डरावने मज़ाक में बदल चुका है क्योंकि पिछले साल भर में देश के कमज़ोर तबके पर नोटबंदी की सबसे ज़्यादा मार पड़ी है.
नोटबंदी की पहली वर्षगांठ दो राजनीतिक पक्षों के बीच बड़े विवाद को जन्म देती दिख रही है. पूरे सरकारी प्रोपगेंडा तंत्र को अपनी मुट्ठी में रखनेवाली भाजपा ने इसे ‘काला धन विरोधी दिवस’ के तौर पर मनाने का फैसला किया है. दूसरी ओर, 18 विपक्षी पार्टियां इस दिन को पूरे देश में ‘काला दिवस’ के तौर पर मनाएंगी. राज्यसभा में कांग्रेस के नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद ने विपक्ष के कार्यक्रम की घोषणा करते हुए, इसे ‘सदी का सबसे बड़ा घोटाला’ करार दिया.
कांग्रेस पार्टी काफी चालाकी के साथ नोटबंदी और जीएसटी को लागू किए जाने के दुष्परिणामों को एक साथ जोड़कर ‘विकास के पगला जाने’ की अपनी बात को आगे बढ़ा रही है.
जहां तक अर्थव्यवस्था का सवाल है, तो नोटबंदी की पहली सालगिरह पर दो पक्षों के बीच इस संघर्ष में मोदी सरकार बचाव की मुद्रा में है. यहां तक कि संघ परिवार और भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और लघु उद्योग भारती जैसे इसके सहयोगियों ने सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार किया है कि अर्थव्यवस्था उम्मीद से काफी कमतर प्रदर्शन कर रही है और इसका सबसे ज्यादा असर किसानों और उनके साथ ही छोटे और लघु औद्योगिक इकाइयों पर पड़ा है. रोजगार विकास, अब तक के सबसे निचले स्तर पर है.
इस बात की ओर लोगों का ध्यान गया है कि किस तरह से प्रधानमंत्री ने ‘अच्छे दिन’ को बीच रास्ते मे छोड़कर भविष्य के ‘नए भारत’ के वादे की गाड़ी पर सवार हो गए हैं. यह और कुछ नहीं, मतदाताओं से थोड़ी सी और मोहलत मांगने वाली बात है.
नोटबंदी के बाद के शुरुआती महीनों में मोदी ने कामयाबी के साथ इस राजनीतिक विमर्श को आगे बढ़ाया कि नोटबंदी का असल मकसद एक ज्यादा स्वच्छ अर्थव्यवस्था का निर्माण करना था, जिसमें काला धन जमा करके रखनेवालों पर निशाना साधा जाएगा और उनकी संपत्ति को गरीबों के बीच बांट दिया जाएगा.
यह काम उन्होंने यूपी चुनावों में बखूबी किया. याद कीजिए कि मोदी ने पिछले नवंबर में गरीब जन-धन खाताधारकों से यह असाधारण वादा किया था कि अमीरों के द्वारा उनके खाते में अस्थायी तौर पर जो नकद पैसा जमा करवाया जा रहा है, उस पर वे कब्जा कर सकते हैं.
करीब चार से पांच करोड़ जन-धन खातों में दूसरों के बदले काफी पैसा जमा कराने के मामले सामने आए थे. अपने बैंक खातों में पैसा जमा करनेवाले वैसे 18 लाख लोग, जिन्हें आयकर विभाग ने नोटिस भेजा है, इनमें शामिल हो सकते हैं. ये बात बिल्कुल साफ है कि धनवान और ताकतवर लोग (इसमें राजनीतिक दल भी शामिल हैं) पूरे तंत्र को ठेंगा दिखाते हुए 500 और 1000 रुपए के लगभग सारे नोटों को बैंकिंग तंत्र में वापस लाने में कामयाब रहे.
आज भी, मोदी जिन्होंने काले धन के खिलाफ अभियान का नेतृत्व किया था, में यह साहस नहीं है कि वे देश को यह बता सकें कि एक पार्टी के तौर पर भाजपा ने कितना पैसा बैंकों में जमा किया. जाहिर तौर यह पूरी कवायद बेईमानी और पाखंड से भरी है.
मोदी ने नोटबंदी को राजनीतिक विमर्श का रूप देते हुए इसे ‘शुद्धि यज्ञ’ करार दिया था. नोटबंदी के बाद के शुरुआती महीनों में मोदी की यह कोशिश कुछ हद तक कामयाब भी रही. यूपी चुनाव के परिणामों को ‘आम लोगों के बलिदान’ के सबूत के तौर पर देखा गया, जिन्होंने कठिनाइयों को सहते हुए भी व्यवस्था को शुद्ध करने के यज्ञ को सफल बनाया.
भाजपा के विचारक राम माधव ने तो यहां तक दावा कर डाला कि लोग मोदी द्वारा ‘आत्म बलिदान’ के आह्वान में भागीदारी कर रहे हैं.
भाजपा और मोदी की विशुद्ध बेईमानी और नकलीपन का प्रमाण थोड़ा पीछे जाकर खोजा जा सकता है. यूपी चुनावों के वक्त, जब वे ‘शुद्धि यज्ञ’ का दम भर रहे थे, उस समय तक आरबीआई के पास इस बाबत काफी आंकड़े आ गए थे, जो ये बताते थे कि धनवान और ताकतवर लोगों ने व्यवस्था को ठेंगा दिखाते हुए चलन से बाहर की गई पूरी मुद्रा को काले से सफेद बना दिया है. भाजपा नेतृत्व ने जनता से इस तथ्य को छिपाए रखा. यह एक तरह की धोखाधड़ी और विश्वासघात था.
बाद की घटनाओं ने यह दिखाया है कि मोदी की कलई खुल गई है और काला धन को लेकर उनका तथाकथित अभियान एक हास्यास्पद कवायद बन कर रह गया है. अमीरों के पैसे को गरीबों को देने का महान वादा भी एक डरावने मजाक से ज्यादा कुछ नहीं है कि क्योंकि पिछले एक वर्षों में सबसे कमजोर तबके पर सबसे ज्यादा मार पड़ी है.
कृषि मंडियों के पास कम नकद होने के कारण कृषि आमदनी को काफी ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है. रबी की पिछली कटाई के मौसम में फसलों की कीमत में औसतन 35 से 40 प्रतिशत की गिरावट देखी गई. इसके चलते ही हाल में सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने पर मजबूर होना पड़ा.
हालांकि यह कदम एक मरहम पट्टी से ज्यादा नहीं है, क्योंकि 90 फीसदी से ज्यादा कृषि उत्पाद एक स्थिर न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली के अंतर्गत नहीं आते.
आरबीआई के आधिकारिक सर्वेक्षणों से ये बात निकल कर सामने आती है कि किस तरह से वर्ष 2017 के पहले तीन महीने में लघु औद्योगिक इकाइयों की बिक्री में करीब 58 प्रतिशत की गिरावट आई. एक प्रतिष्ठित डेटा रिसर्च एजेंसी सीएमआईई ने 2017 की पहली तिमाही में 15 लाख रोजगार के नुकसान का आकलन किया है.
विशेषज्ञों द्वारा सामने रखे गए हालिया आंकड़ों की मानें, तो नोटबंदी के दूसरे उद्देश्य, मसलन, जीडीपी में नकद का अनुपात कम करना या डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देना भी पूरा नहीं हुआ है. इसके साथ ही सोना और दूसरी संपत्तियों में छिपी हुई 95 प्रतिशत काली संपत्ति की समस्या से निपटने के लिए भी कोई ठोस कार्य योजना सामने नहीं रखी गई है.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी द्वारा वित्त मंत्री को सौंपी गई एक रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के मुताबिक बगैर हिसाब वाली संपत्ति का कुल मूल्य करीब 900 अरब अमेरिकी डॉलर (कुल जीडीपी का 40 प्रतिशत) है. इसमें यानी कुल काली संपत्ति में नकद का भाग महज 5 प्रतिशत यानी करीब 3 लाख करोड़ रुपये है.
यह आंकड़ा आयकर विभाग के इस दावे से मेल खाता दिखता है कि वह करीब 3 लाख करोड़ रुपये के बेहिसाबी नकद जमा को लेकर करीब 13 लाख बैंक खातों की जांच कर रहा है. लेकिन, पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने यह चेतावनी दी है कि इन 13 लाख बैंक खातों में बेहिसाबी नकद का बड़ा हिस्सा नहीं होगा क्योंकि इनमें से कई सरकार को कोर्ट में चुनौती देने के लिए तैयार हैं.
एक तरफ आयकर विभाग इन बैंक खाताधारकों के साथ सख्ती बरत रहा है, लेकिन संभावना ये है कि बेहिसाबी नकद के असली मालिक चैन की नींद सो रहे हैं. सिन्हा ने कहा कि यह एक गंभीर चिंता है और इसका असर अगले 2-3 साल में दिखेगा.
दूसरी तरफ, अन्य बड़ी नाकामियां भी रही हैं. 2016 में आय घोषणा की लंबी मियाद वाली योजना चलाने के बाद-जिसका एक हिस्सा नोटबंदी के दौर में भी चला- क्या सरकार के पास करदाताओं की बड़ी संख्या के तौर पर कुछ दिखाने के लिए है?
आंकड़ों के हिसाब से देखें, तो करदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी पिछले कुछ वर्षों से दिखनेवाले एक सामान्य रुझान को दिखाती है. और हालिया रुझान के हिसाब से देखें, तो करदाताओं की बढ़ी हुई संख्या में कुछ भी असामान्य नहीं है. न करदाताओं की कुल संख्या में, और न कुल कर संग्रह में.
वास्तव में, पिछले हफ्ते जीएसटी प्रणाली से एक काफी चिंताजनक आंकड़ा निकल कर सामने आया. इसके मुताबिक जीएसटी पोर्टल में रजिस्टर होने वालों में से सिर्फ 50 प्रतिशत से कुछ ज्यादा लोगों ने ही, संक्षिप्त (समरी) रिटर्न दाखिल किया था. 80 लाख रजिस्टर्ड सदस्यों में से सिर्फ 44 लाख ने अक्टूबर महीने में संक्षिप्त रिटर्न भरा था.
गौरतलब है कि संक्षिप्त रिटर्न को आपातकालीन तात्कालिक इंतजाम के तौर पर लाया गया था, जब तक कि पूर्ण एवं व्यवस्थित जीएसटी रिटर्न फाइलिंग प्रणाली काम करना न शुरू कर दे.
यह आयाम इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दावा किया गया था कि जीएसटी वैल्यू चेन के भीतर ज्यादा फर्मों को शामिल करने से आयकर भरनेवालों की संख्या में काफी बढ़ोतरी होगी. चूंकि जीएसटी डिजाइन और इसका क्रियान्वयन आज पूरी तरह से अस्त-व्यस्त पड़ा है, इसलिए नोटबंदी के नकारात्मक परिणाम और गहरे होते जा रहे हैं, खासतौर पर छोटे कारोबारियों के लिए.
इसलिए नोटबंदी और जीएसटी के विध्वंसक तरीके से खराब क्रियान्वन की रोशनी में मोदी राजनीतिक तौर पर अपने ‘शुद्धि यज्ञ’ वाले तर्क को बनाए रखने में मुश्किल महसूस करेंगे. उन्हें एक नई कहानी बुननी होगी.
अतीत में उन्होंने बिना किसी दिक्कत के एक रास्ता छोड़ कर दूसरे रास्ते पर चलने में महारत दिखाई है. इसका एक कारण शायद यह है कि जनता के मन में उनको लेकर धारणा दरकी नहीं है.
लेकिन, धीरे-धीरे इस पर भी सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं क्योंकि आर्थिक नीति के मोर्चे पर लड़खड़ाहट उनको परेशान करने लगी है. सार्वजनिक बैंकों का 10 लाख करोड़ अपने पास बकाया रखनेवाले 50 बड़े कॉरपोरेट समूहों को उबारने के लिए उनकी तरफ से दी गई मदद से ‘अमीर बनाम गरीब’ की उनकी कहानी पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं.
इनमें से कुछ कंपनियों को दिवालिया घोषित किया जा सकता है, लेकिन उनके प्रमोटर आज भी रक्षा क्षेत्र में मोदी के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट में प्रमुख पार्टनरों के तौर पर फल-फूल रहे हैं. इससे व्यापार भी कब्जे में रहेगा और भविष्य में गारंटीशुदा रिटर्न भी मिलेगा.
इस देश की जनता, अपने नाक के नीचे यह सब होते देख रही है. एक पुरानी अंग्रेज़ी कहावत का शुरूआती हिस्सा है कि आप कभी-कभार सभी लोगों को बेवक़ूफ़ बना सकते हैं या हर समय कुछ लोगों को, इसके हिसाब से अब मोदी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हर आदमी को हर वक्त मूर्ख बनाना मुश्किल होता है.
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