मानव-जीवन प्रकृति के नियमों का एक करिश्मा है. यह करिश्मा कहां और कब शुरू हुआ, इस तक पहुंचने की चाह पिछले सौ सालों से अधिक समय से चल रही है. निश्चित ही आने वाले दशकों में हम जवाब के और नज़दीक पहुंच सकेंगे.
1837 में चार्ल्स डार्विन ने अपनी एक कॉपी में एक चित्र बनाया. यह चित्र विज्ञान के इतिहास में एक प्रतिष्ठित चिह्न है- हम सोच सकते हैं कि इसमें डार्विन अपने विचारों मे डूबे, सालों के परिश्रम के बाद एक बहुत बड़ी बात बोल रहे हैं.
डार्विन चित्र में सोच रहे हैं कि प्रजातियां कहां से आती हैं? उनका शोध उन्हें इस निष्कर्ष पर लाया है कि कोई भी दो प्रजातियां अतीत में जाकर देखें तो एक प्रजाति से ही आई हैं. अगर ऐसा है तो डार्विन सोचते हैं कि धरती पर जीवन को अगर एक चित्र में वर्णित करना है, तो इसे ‘जीवन का वृक्ष’ यानी ‘ट्री ऑफ लाइफ’ कहना उचित रहेगा. डार्विन अपने चित्र में ऐसे ही एक पेड़ की कल्पना करते हैं और एक कोने लिखते हैं, ‘मेरे ख़याल से.’
उनका ऐसा लिखना एक मीठी और खूबसूरत बात है- वह सोच रहे हैं, अपने ख़यालों से जूझ रहे हैं, पर वह जानते हैं कि यह संघर्ष एक ऐसे सवाल से है, जिसका उत्तर मिलना बहुत कठिन है, शायद असंभव भी. लेकिन डार्विन के समय से हमने बहुत प्रगति कर ली है और आज की तारीख़ में उस प्रश्न का अब हमारे पास एक विस्तृत उत्तर है.
आज हम जानते हैं कि मनुष्य और चिम्पैंज़ी के सामान्य पूर्वज लगभग सत्तर लाख साल पहले धरती पर रहते थे. इस सामान्य पूर्वज से क्रमागत उन्नति दो दिशाओं में हुई- एक जो आज के चिम्पैंज़ी बने और दूसरे मनुष्य. इसी तरह हम किन्हीं भी दो प्रजातियों के सामान्य पूर्वज के बारे में पूछ सकते हैं. धरती पर जीवन इस तरह से एक पेड़ के रूप में देखा जा सकता है. जहां भी एक शाख दो में तब्दील हो रही है, वहां एक प्रजाति दो नई प्रजातियों को जन्म दे रही है.
पर ऐसा करने से एक सवाल हमारे मन में उठना चाहिए. क्रमागत उन्नति से हम एक प्रजाति से नई प्रजाति का जन्म तो समझ सकते हैं और इससे धरती पर जीवन को एक पेड़ के रूप में भी दिखा सकते हैं- पर अगर ऐसा सच है, तो जब हम पेड़ की जड़ तक पहुंचेंगे, वहां एक ऐसी प्रजाति का आविष्कार हमें समझाना पड़ेगा जो धरती पर पहला जीवन था.
इस पड़ाव पर हमें रसायन विज्ञान को जीवन में परिवर्तित होते समझाना पड़ेगा. ऐसा कब हुआ? और धरती के किस कोने पर हुआ? क्या धरती पर जीवन का ‘आविष्कार’ सरल था? या फिर, जीवन का धरती पर होना एक बहुत भाग्यशाली हादसा था? इन सवालों से मनुष्य प्रजाति हजारों सालों से जूझ रही है. समय के साथ-साथ हमारा ज्ञान बढ़ता जा रहा है और हम इस रहस्य से कुछ परदे हटाने में कामयाब भी हुए हैं. आज इस लेख में पिछले लगभग 100 सालों की तीन ऐसी ही कोशिशों की बात है.
1905 में इंग्लैंड की सबसे प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं मे एक कैवेंडिश में जॉन बटलर बुर्के नामक एक वैज्ञानिक काम कर रहे थे. उन्हें कैवेंडिश में आए छह साल हो गए थे और उन्होंने जीवन को समझने की ठान रखी थी. 1903 के एक लेख में उन्होंने लिखा था कि जीवित और मृत में कोई फर्क नहीं है और वैज्ञानिक ऐसा मान लें तो बेहतर होगा.
अपने प्रयोग में उन्होंने मांस के कुछ टुकड़े लिए और उसमें कुछ रसायन मिलाकर गर्म किया. ऐसा करने से सभी कोशिकाएं मृत हो गईं और केवल एक रासायनिक मिश्रण रह गया. इस मिश्रण में उन्होंने रेडियम नाम की धातु डाली और 1-2 दिन के लिए छोड़ दिया. ऐसा करने पर बुर्के ने देखा कि कोशिकाओं जैसी दिखने वाली आकृतियां मिश्रण में आईं.
यह कोशिकाएं कैसे आईं, उन्हें इसके बारे में कुछ नहीं पता था, पर उन्होंने इस प्रयोग से ‘कृत्रिम जीवन’ बनाने का दावा किया. कोशिकाओं को रेडियम के सम्मान में ‘रेडिओब’ का नाम दिया. यह प्रयोग सम्मानित पत्रिका ‘नेचर’ में मई 1905 में छापा गया. लेख छपने के बाद बुर्के को बहुत प्रतिष्ठा मिली- इस दौरान उन्होंने एक पत्रकार को बताया कि मुमकिन है कि धरती पर जीवन इसी तरह से शुरू हुआ था.
बुर्के ने इसके अगले ही साल इस बारे में एक किताब प्रकाशित की, पर यहां से बुर्के का पतन शुरू हुआ- उनकी वैज्ञानिक साख पर सवाल उठने लगे और उनकी प्रतिष्ठा को ऐसी चोट लगी जिस से वह जीवनभर उबर नहीं पाए. असल में जो बदलाव बुर्के ने देखे वह कोई कोशिकाएं नहीं, केवल कुछ रासायनिक तब्दीलियां थीं.
इसके लगभग 50 साल बाद 1953 में स्टैनले मिलर नामक एक युवक ने पत्रिका ‘साइंस’ में एक लेख छापा. लेख में मिलर अपना एक प्रयोग बताते हैं, जहां उन्होंने समंदर तक आती आकाशीय बिजली को प्रयोगशाला में तैयार किया. समंदर के लिए मिलर ने पानी में कुछ रसायन डाले, बिजली के लिए उन्होंने बिजली के तार डाले और वायुमंडल के लिए उन्होंने पानी के ऊपर वायुमंडल जैसी गैस डाली.
इसमें एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि पुराने वायुमंडल में ऑक्सीजन नहीं हुआ करती थी, इसलिए मिलर ने भी प्रयोगशाला के वायुमंडल में ऑक्सीजन नहीं डाली. प्रयोग शुरू करने के कुछ ही दिन बाद उन्होंने देखा कि पानी का रंग भूरा हो गया! ऐसा देखने से निश्चित था कि कुछ रासायनिक बदलाव हो रहा था. जांच करने पर पता चला कि इसमें बनने वाले रसायनों में एमिनो एसिड भी थे.
यह एक बहुत महत्वपूर्ण खोज थी क्योंकि मानव कोशिकाओं में सभी काम एमिनो एसिड की कड़ी ही करती हैं (इन कड़ियों को ही प्रोटीन कहा जाता है). उनके नतीजे से सबने यह निष्कर्ष निकाला कि यदि एमिनो एसिड कुछ दिन में ही बन सकते हैं तो बेशक मुमकिन है कि जीवन के लिए ज़रूरी सभी रसायन समंदर में ऐसे ही बने रहे होंगे. इसलिए मिलर के इस प्रयोग को पहली कोशिका बनने के रहस्य को सुलझाने के परिप्रेक्ष्य में बेहद महत्वपूर्ण माना गया.
प्रयोग को बाद में बहुत-सी प्रयोगशालाओं ने दोहराया और हमेशा मिलर के नतीजे को सही पाया गया. जीवन की शुरुआत की कहानी मिलर के दिखाए रास्ते पर बहुत दशक चलती रही, पर मिलर के नतीजों से आगे बढ़ने में कोई सफलता नहीं मिल रही थी. इसमें जो सबसे बड़ी चुनौती थी वह यह कि खुले सागर में रसायन कैसे एक साथ एकत्रित होते हैं जिससे जीवन की शुरुआत हो सकती है.
इस सरल से लगने वाले सवाल ने मिलर के दिखाए रास्ते को शायद गलत साबित किया. इस कारण से पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों ने पहली कोशिका की खोज को लेकर सागर से हटकर अन्य जगह के बारे में विचार करना शुरू किया.
इनमें एक प्रमुख दावेदार ‘एल्कलाइन हाइड्रोथर्मल वेंट‘ हैं. यह धरती पर सागर की सतह पर जगह-जगह पाए जाते हैं, (जो धरती की शुरुआत से हैं) जहां समुद्र तल के नीचे से गैस, तल पर बने कुछ 20-30 मीटर ऊंचे चीनी मिट्टी जैसे तत्व के बने पहाड़ों में से होते हुए, पानी में आती है. इस स्पर्श से जीवन को शुरुआत देने के लिए बहुत से अनिवार्य तत्व प्राप्त होते हैं.
मानव-जीवन प्रकृति के नियमों का एक करिश्मा हैं. यह करिश्मा कहां और कब शुरू हुआ इस तक पहुंचने की चाह हमें बुर्के से बहुत आगे ले आई है. आने वाले दशकों में निश्चित ही हम उत्तर के और नज़दीक पहुंचेंगे. तब तक, पहली कोशिका जिससे धरती पर जीवन आधारित हुआ, जिसका नाम ‘लूका’ ( LUCA = Last Universal Common Ancestor) है, के रहस्यों को जानने की खोज दुनियाभर में जारी रहेगी.
(अगर कोई पहली कोशिका पर विस्तार से पढ़ना चाहे तो निक लेन की ‘वाइटल क्वेश्चन‘ एक बेहतरीन किताब है.)
(लेखक आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर हैं.)