आज के राजनीतिक परिदृश्य में शरद यादव जैसे अनुभवी नेता की उपस्थिति महत्वपूर्ण होती

शरद यादव तकरीबन चार दशक के लंबे राजनीतिक दौर के महत्वपूर्ण किरदार और गवाह रहे हैं. काश, उन्होंने अपनी कोई सुसंगत आत्मकथा लिखी होती, जिससे राजनीति की नई पीढ़ी, ख़ासकर समता, सेकुलरिज़्म और सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे युवाओं को सीखने को मिलता कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं.

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शरद यादव तकरीबन चार दशक के लंबे राजनीतिक दौर के महत्वपूर्ण किरदार और गवाह रहे हैं. काश, उन्होंने अपनी कोई सुसंगत आत्मकथा लिखी होती, जिससे राजनीति की नई पीढ़ी, ख़ासकर समता, सेकुलरिज़्म और सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे युवाओं को सीखने को मिलता कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं.

शरद यादव. (फोटो साभार: फेसबुक/@sharadyadavforindia)

शरद यादव नहीं रहे. उनका आकस्मिक निधन बहुत दुखद और स्तब्धकारी है. अपनी लंबी अस्वस्थता से उबरकर वह धीरे-धीरे स्वस्थ और सक्रिय हो रहे थे. पिछले साल, मार्च में उन्होंने अपने दल-लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) का राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में विलय भी किया.

जनता दल (यू) से अलग होने के बाद उन्होंने 2018 में इस दल का गठन किया था. लेकिन यह राष्ट्रीय राजनीति में अपनी खास पहचान नहीं बना सका. शायद इस नए दल को शरद जी की अगुवाई में ठीक से काम करने का वक्त भी नहीं मिला. अपनी अस्वस्थता के चलते वह पहले की तरह सक्रिय भी नहीं हो सकते थे.

उनके निकटस्थ लोगों के मुताबिक इधर कुुछ समय से वह अपेक्षाकृत स्वस्थ और बेहतर महसूूस कर रहे थे. अपने मित्रों और निकटस्थ सहकर्मियों से उनका मिलना-जुलना भी जारी था. इसी बीच, बीती रात उनके निधन की दुखद खबर आई. उनकी बेटी सुभाषिनी की एक फेसबुक पोस्ट से यह सूचना मिली.

शरद जी का जन्म तो मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में हुआ था लेकिन उनकी वास्तविक कर्मभूमि बिहार और दिल्ली रही. पहला चुनाव उन्होंने सन 1974 में मध्य प्रदेश के जबलपुर से लड़ा और जीता. तब वह इंजीनियरिंग कॉलेज से निकले एक युवा छात्र नेता थे.

‘जेपी के प्रत्याशी’ के तौर पर उपचुनाव लड़ा और कांग्रेस प्रत्याशी को हराकर लोकसभा में पहली बार प्रवेश किया. आपातकाल में वह लगातार जेल में रहे. शरद जी ने अपने राजनीतिक जीवन में सबसे अधिक वक्त दिल्ली, बिहार और यूपी में बिताया. सन 1989 में यूूपी के बदायूं से वह सांसद भी बने. इसके बाद अगले कई चुनावों में वह बिहार के मधेपुरा से सांसद रहे. सन 1999 के मधेपुरा संसदीय चुनाव में तो लालू प्रसाद यादव और शरद यादव आमने-सामने हो गए. कांंटे की टक्कर में शरद जी ने लालू जी को हरा दिया.

अपने अनेक मित्रों और समकालीन नेताओं की तरह शरद जी भी जेपी आंदोलन से ही उभरे थे. सत्तर-अस्सी के दशक में इस आंदोलन से उभरे नेताओं में सोशलिस्ट-जनता दली धारा से जुड़े चार नेता नब्बे के दशक में राष्ट्रीय राजनीति के नए सितारे बनकर उभरे. इनमें तीन ठेठ बिहारी थे तो एक मध्य प्रदेश मूल के. यह चार नेता थे- शरद यादव, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार.

सन 1988 के फरवरी महीने में कर्पूरी ठाकुर का निधन हो चुका था. सन 1990 में बिहार विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस हार गई. सरकार जनता दल की बननी थी. उधर, केंद्र में जनता दल की अगुवाई वाली वीपी सिंह की सरकार 1989 में बन चुकी थी. वीपी सिंह चाहते थे कि बिहार के मुख्यमंत्री रामसुंदर दास बनें. लेकिन देवीलाल और शरद यादव सहित अन्य नेता लालू प्रसाद जैसे अपेक्षाकृत युवा नेता को नेतृत्व सौपने के पक्ष में थे. अंतत: लालू यादव ही नेता बने और 10 मार्च, 1990 को उन्होंने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

लालू यादव को मुख्यमंत्री बनवाने में देवीलाल और शरद यादव जैेसे नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई. हालांकि प्रकारांतर से चंद्रशेखर जी की भी इसमें बहुत अहम भूमिका थी. विधायक दल के नेता पद के चुनाव में वीपी सिंह समर्थित रामसुंदर दास को परास्त करने में अंतत: चंद्रशेखर समर्थित-रघुनाथ झा की उम्मीदवारी महत्वपूर्ण साबित हुई.

लालू यादव की सरकार बनने के बाद बिहार की सत्ता में तीन सर्वशक्तिमान नेताओं की तिकड़ी उभरी: लालू-शरद-नीतीश! इसी दौर में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की 40 सिफारिशों में सिर्फ एक- पिछड़ों (ओबीसी) के आरक्षण को अमली जामा पहनाने का फैसला किया. इसके लिए शरद, पासवान, लालू, नीतीश सहित अनेक नेताओं ने वीपी सिंह को हर तरह से समर्थन दिया.

उधर, बसपा प्रमुख कांशीराम का भी इस मुद्दे पर वीपी सिंह को समर्थन मिला. उसी दौर में शरद-लालू जैसे नेता देवीलाल का साथ छोड़कर वीपी सिंह से जुड़ गए. पार्टी का अंदरूनी समीकरण बिल्कुल बदल गया. मंडल आयोग की एक सिफारिश के लागू होने के ऐलान से बदली राजनीति पर आरएसएस-भाजपा की तीखी नजर थी. उन्होंने मंडल के खिलाफ ‘कमंडल’ का अस्त्र चलाया और सन 1992 में भगवा ब्रिगेड की अगुवाई में अयोध्या की पुरानी बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दी गई.

कुछ ही समय बाद ‘जनता दल परिवार’ का बिखराव और बढ़ गया. मुलायम सिंह यादव तो सन 1992 में ही समाजवादी पार्टी बनाकर जनता दल से अलग हो चुके थे. सन 1994 में जॉर्ज और नीतीश ने मिलकर समता पार्टी बना ली. बाद में शरद भी नीतीश कुुमार के साथ आ गए और जनता दल-यू बड़ा मंच बन गया.

लंबे समय तक शरद और नीतीश साथ रहे. फिर उनका साथ भी छूटा. समाजवादी धारा के जनता-दलियों की टूटने-बिखरने-जुड़ने और फिर बिखरने की दिलचस्प कहानी है. इसमें जितना रोमांच और रहस्य है, उससे ज्यादा निजी महत्वाकांक्षाओं का टकराव और वैचारिक-सतहीपन!

कांग्रेस के पतन और जनता-दलियों के बिखराव के बाद हिंदी-भाषी क्षेत्र में भाजपा के सामाजिक आधार और असर, दोनों में इजाफा होता रहा. अपनी गलतियों के चलते लगातार हारती कांग्रेस के हिंदू-उच्चवर्णीय आधार में भाजपा ने अपनी जगह बनाना शुरू किया. कांग्रेस का दामन छोड़कर मुस्लिम समुदाय बिहार में लालू प्रसाद यादव के साथ और यूपी में मुलायम सिंह यादव के साथ जाने लगा. इस तरह कांग्रेस के पतन से रिक्त हुई जगह पर भाजपा ने अपने हिंदुत्व आधार का भवन बनाना तेज किया.

लंबे समय तक शरद यादव, नीतीश कुुमार और जॉर्ज फर्नांडिस भाजपा के प्रबल सहयोगी और अटल बिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवाणी के दौर वाले एनडीए की केंद्र सरकार मे वरिष्ठ मंत्री भी रहे. बाद में शरद और नीतीश का भाजपा के गठबंधन से मोहभंग हुआ. फिर शरद और नीतीश भी अलग-अलग हो गए.

वक्त गुजरने के साथ गंगा-यमुना में बहुत सारा पानी बहा. सियासत का अंदाज बदल गया. भाजपा आज बहुत बड़ी ताकत है. सेकुलर-लोकतांत्रिक राजनीति के लिए यह बुरा दौर है. वामपंथियों का मोर्चा कमजोर हो चुका है और सामाजिक न्याय के आंदोलनकारियों का कुनबा भी खूब बिखरा है. इनके बिखराव का फायदा भाजपा को ही सबसे अधिक मिला है.

शरद जी तकरीबन चार दशक के इस लंबे राजनीतिक दौर के महत्वपूर्ण किरदार और गवाह भी रहे हैं. काश, उन्होंने अपनी कोई सुसंगत आत्मकथा लिखी होती! उससे राजनीति की नई पीढ़ी, खासकर समता, सेकुलरिज़्म और सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे आज के युवाओं को काफी कुछ मिलता कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए!

शायद, शरद जी अपनी आत्मकथा में आत्मालोचना का भी कोई अध्याय जोड़ते कि उनसे क्या क्या राजनीतिक गलतियां हुईं? एक प्रखर समाजवादी ने हिंदुत्व की शक्तियों से हाथ क्यों मिलाया? इस मामले में समाजवादी रुझान के जनता-दलियों में लालू प्रसाद यादव संभवत: एकमात्र अपवाद रहे जो भाजपा के साथ नहीं गए!

एक दौर में शरद जी से संसद भवन में मेरी मुलाकात होती रहती थी. सेंट्रल हाॅल में साथ बैठकर कभी-कभी गपबाजी भी हो जाती थी. उनके बंगले पर भी यदा-कदा जाना हुआ. संयुक्त मोर्चा के दौर में कई बार उनके दफ़्तर या घर पर मिलना हुआ. पर उनके साथ कभी मेरा नियमित तौर पर मिलना-जुलना या संवाद नहीं रहा. इसलिए उनको ज्यादा जानने-समझने का दावा नहीं कर सकता. पर जितना मैंने देखा-समझा, वह राजनीति में विचार और संगठन, दोनों को महत्वपूर्ण मानते थे.

हाल के कुछ वर्षों में वह अस्वस्थ रहे. अस्वस्थता और ढलती उम्र के चलते शायद ईमानदार आत्ममंथन, अफसोस और नई पीढ़ी को जरूरी संदेश देने के अलावा वह ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे. पर राजनीतिक परिदृश्य पर उन जैसे अनुभवी नेता की उपस्थिति महत्वपूर्ण होती.

संयोग देखिए, पिछले साल मार्च में ही शरद यादव ने अपनी पार्टी का विलय राष्ट्रीय जनता दल में किया. दूसरी तरफ, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी उसके कुछ ही महीने बाद भाजपा का साथ छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल से मिलकर बिहार में महागठबंधन (जद-यू, राजद और कांग्रेस आदि) की सरकार बनाई, जिसमें लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री हैं. यानी, जेपी आंदोलन से उभरे तीनों पुराने दोस्त लंबे अंतराल के बाद फिर एक साझा मंच की तरफ बढ़े. बड़ी घटना थी… इसलिए अभी शरद यादव का होना जरूरी था.

पर वह बीती रात चले गए. शरद जी को सादर श्रद्धांजलि.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

(मूल रूप से फेसबुक पर प्रकाशित)