‘रामचरितमानस’ की आलोचना पर विवाद व्यर्थ है

‘रामचरितमानस’ की जो आलोचना बिहार के शिक्षा मंत्री ने की है वह कोई नई नहीं और न ही उसमें किसी प्रकार की कोई ग़लती है. उन पर हमलावर होकर तथाकथित हिंदू समाज अपनी ही परंपरा और उदारता को अपमानित कर रहा है.

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(फोटो साभार: फेसबुक)

‘रामचरितमानस’ की जो आलोचना बिहार के शिक्षा मंत्री ने की है वह कोई नई नहीं और न ही उसमें किसी प्रकार की कोई ग़लती है. उन पर हमलावर होकर तथाकथित हिंदू समाज अपनी ही परंपरा और उदारता को अपमानित कर रहा है.

(फोटो साभार: फेसबुक)

बिहार के वर्तमान शिक्षा मंत्री ने एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में तुलसीदास लिखित ‘रामचरितमानस’ की कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर उसकी आलोचना की और यह कहा कि इस तरह के विचार से समाज में नफ़रत फैलती है. इसी क्रम में उन्होंने ‘मनुस्मृति’ तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर की किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ का भी उल्लेख किया.

उनके ऐसा कहने पर विवाद हो गया है. भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा हिंदू धर्म से अपने को जोड़कर देखने वाले साधु-संत से लेकर राजनेता और अन्य लोग भी उन को भला-बुरा कह रहे हैं. साथ ही ‘मीडिया’ में भी इस ख़बर को लेकर ‘खौखियाकर बहस’ की जा रही है.

‘रामचरितमानस’ अवधी भाषा में 1570 ई. के आसपास लिखा गया काव्य है. इस में राम कथा का वर्णन है.  इसे हिंदी साहित्य का ग्रंथ मानकर हिंदी के पाठ्यक्रमों में पढ़ाया भी जाता है. हिंदी की साहित्यिक आलोचना में इस ग्रंथ पर ख़ूब विचार-विमर्श हुआ है. तुलसीदास की असंदिग्ध कवित्व-शक्ति के होते हुए भी वैचारिक रूप से यह ग्रंथ वर्ण या जाति व्यवस्था को बनाए रखने के समर्थन में है. जैसा कि सभी साहित्यिक कृतियों में एक ही बात नहीं होती उसी तरह इस में भी यही एक बात नहीं है.

शिक्षा मंत्री ने बार-बार स्पष्ट किया है कि वे उन पंक्तियों के विरोधी हैं जिनमें जाति को लेकर टिप्पणी की गई है. या फिर नारियों को लेकर निंदापरक कथन हैं. बहुत पुराने समय से ‘रामचरितमानस’ की ऐसी पंक्तियों को लेकर रक्षा का भाव दिखता रहा है.

हिंदी के ही सर्वश्रेष्ठ आलोचक के रूप में समादृत रामचंद्र शुक्ल ने अपनी किताब ‘गोस्वामी तुलसीदास’ में लिखा था कि ‘वैरागी समझकर उनकी बात का बुरा न मानना चाहिए.’ हिंदी के एक और आलोचक डा. रामविलास शर्मा ने भी ‘तुलसी-साहित्य के सामंत विरोधी मूल्य’ लंबा लेख लिख कर तुलसीदास की प्रगतिशीलता सिद्ध की थी.

ठीक इसी  प्रकार ‘रामचरितमानस’ की वैचारिक सीमाओं को लेकर हिंदी तथा मैथिली के प्रसिद्ध कवि नागार्जुन ने भी लिखा था. तात्पर्य यह कि ‘रामचरितमानस’ की वैचारिक सीमाओं पर लगातार विचार-विमर्श होता रहा है. इतना ही नहीं, आज से करीब पच्चीस-तीस वर्ष पहले ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’ किताब भी प्रकाशित हो चुकी है जिसमें भी तुलसीदास की अत्यंत तीखी आलोचना है.

इन सब में सबसे हास्यास्पद और चिंताजनक है ‘रामचरितमानस’ की जातिसूचक तथा नारी-विरोधी पंक्तियों की रक्षा के लिए अतार्किक बहस. उदाहरण के लिए ‘रामचरितमानस’ के पंचम सोपान (विदित हो कि तुलसीदास ने अपने ‘रामचरितमानस’ को ‘कांड’ में विभाजित नहीं किया है. इस में ‘कांड’ वाल्मीकि रचित ‘रामायण’ के अनुकरण पर समाहित कर लिया गया है. यह प्रक्रिया भी गीता प्रेस, गोरखपुर से ‘रामचरितमानस’ के प्रकाशन के बाद अधिक ज़ोर पकड़ी क्योंकि गीता प्रेस का व्यापक व्यापार इस में सहायक सिद्ध हुआ.) जिसे ‘सुंदरकांड’ भी कहा जाता है, में निम्नांकित पंक्तियां आती हैं:

ढोल गंवार शूद्र पसु नारी. सकल ताड़ना के अधिकारी..

इस में ‘ताड़ना’ का अर्थ देखना किया जा रहा है जबकि ‘ताड़ना’ का सही अर्थ ‘दंड देना’ या ‘सुधार के उद्देश्य से दंड देना’ है. ‘रामचरितमानस’ के सभी मान्य हिंदी-भाष्य संस्करणों में ‘ताड़ना’ का यही अर्थ है. ‘ताड:’ शब्द संस्कृत में भी इसी अर्थ का वाचक है. संस्कृत का एक प्रचलित सुभाषित श्लोक जिसमें ‘पुत्र’ के साथ व्यवहार की बात की गई है उसमें भी आता है:

लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्

अर्थात पांच वर्ष तक पुत्र को प्यार करना चाहिए, दस वर्षों तक दंड देना चाहिए और सोलह वर्ष की उम्र हो जाने पर मित्रवत आचरण करना चाहिए. ध्यान जाता है कि यहां भी पुत्र की बात है पुत्री की नहीं. ऐसा इसलिए जाने-अनजाने होता है कि हिंदू समाज की अनेक वैचारिक निर्मितियां दलित (आज की शब्दावली में ) विरोधी और नारी विरोधी हैं. उनको स्वीकार कर उन्हें दूर करने की दिशा में आगे बढ़ा जाना चाहिए न कि वैसी बातों की रक्षा करने की कोशिश की जानी चाहिए.

इसी संदर्भ में ऊपर उद्धृत ‘रामचरितमानस’ पंक्तियों के बारे में कहा जाता है कि यह समुद्र का कथन है तुलसीदास का नहीं. आगे यह कहा जाता है कि तीन दिन तक समुद्र से राम लंका जाने के लिए रास्ता मांगते रहे और उस ने राह न दी तो वे क्रुद्ध हो गए. फिर राम ने समुद्र को सुखा डालने का निश्चय किया. तब डरा-सहमा समुद्र सामने आ कर उपर्युक्त पंक्तियां कहता है.

साहित्य का यह अत्यंत पेचीदा सवाल है कि किसी भी रचना में पात्रों के विचारों को लेखक का माना जा सकता है या नहीं? या फिर पात्र का विचार स्वतंत्र है? अगर वह स्वतंत्र है तो किस सीमा तक? इन प्रश्नों पर सैद्धांतिक चर्चा का अवकाश अभी यहां नहीं है. पर एक बात यह भी है कि यदि हम यहां समुद्र के कथन को मान कर इन में अभिव्यक्त शूद्र एवं नारी विरोध को नज़रअंदाज करेंगे तब ‘रामचरितमानस’ के ‘तीसरा सोपान’ (अरण्यकांड) की निम्नलिखित पंक्तियों का क्या किया जाएगा जो स्वयं राम के ‘मुखारविंद’ से प्रकट हुई हैं:

सापत ताड़त परुष कहंता. बिप्र पूज्य अस गावहि संता..
पूजिय बिप्र सील गुनहीना. सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रबीना..

यहां भी ‘ताड़त’ शब्द आया है. यहां ‘देखता है या देखने वाला’ अर्थ सटीक हो ही नहीं सकता है. इस से भी साफ है कि ‘ताड़ना’ पीटने के अर्थ में ही प्रयुक्त है. अत: इन पंक्तियों का स्पष्ट अर्थ है कि शाप देने वाला, मारने वाला, कठोर वचन कहने वाला भी विप्र यानी ब्राह्मण पूज्य है. यदि ब्राह्मण शील और गुण से हीन तब भी उसकी पूजा की जानी चाहिए और शूद्र यदि गुणों का समूह तथा ज्ञान प्रवीण हो तब भी उसकी पूजा नहीं करनी चाहिए.

अब इन पंक्तियों को जातिसूचक न माना जाए तो और क्या माना जा सकता है? इनके लिए तुलसीदास और ‘रामचरितमानस’ की रक्षा करने की कोई ज़रूरत नहीं है. इन पंक्तियों के ठीक ऊपर राम यह भी घोषणा करते हैं:

सुनु गंधर्ब कहौं मैं तोही. मोहि न सोहाइ ब्रह्म कुल द्रोही..

मतलब यह कि ‘सुनो गंधर्व ! मैं तुम से कहता हूं. ब्राह्मण कुल से द्रोह करने वाला मुझे नहीं सुहाता है.’ यह गंधर्व भी कबंध नामक राक्षस है जिसे ‘रामचरितमानस’ के अनुसार राम अकारण ही मार देते हैं. मारे जाने के बाद वह कहता है कि वह गंधर्व था जिसे दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया था क्योंकि वह लोगों को डराता था.

यह भी एक शोध का विषय हो सकता है कि हिंदू मिथकीय एवं पौराणिक कथाओं में की गई अकारण हत्याओं को लेकर पूर्व जन्म के शाप या दुराचरण की कल्पना क्यों की गई है? ज़ाहिर है कि इस जन्म में मारा जाने वाला व्यक्ति कोई गड़बड़ आचरण तो कर नहीं रहा है इसलिए उसकी हत्या (जिसे वध कहा जाता है. याद किया जा सकता है कि महात्मा गांधी की हत्या को भी ‘वध’ कहा जाता रहा है, जिस पर किताबें भी लिखी गई हैं.) की वैधता पूर्व जन्म के पाप को सामने ला कर ही की जा सकती है!

वाल्मीकि रामायण में कबंध की कथा कुछ भिन्न रूप में है. राम जो ऊपर यह कह रहे हैं कि ब्राह्मण कुल से द्रोह करने वाला उन्हें नहीं सुहाता है उससे स्पष्ट है कि राम-कथा, ख़ासकर वाल्मीकि की परंपरा में आने वाली, वर्ण-व्यवस्था के समर्थन में ही लिखी गई है. वाल्मीकि रामायण की शुरुआत में ही यह स्पष्ट किया गया है कि राम चारों वर्णों को अपने-अपने धर्म यानी कर्तव्य में नियुक्त रखेंगे:

राजवंशान् शतगुणान् स्थापयिष्यति राघव:.
चातुर्वर्ण्यं च लोकेऽस्मिन् स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति..

यहीं पर वह बिंदु आता है जब हमें यह भी सोचने को मिलता है कि हिंदुओं की मिथकीय तथा पौराणिक कथाएं किस प्रकार एक वैचारिक वर्चस्व की ओर हमारा ध्यान ले जाती हैं! यही कारण है कि तमाम मिथकीय तथा पौराणिक कथाओं के अनेक रूप-प्रारूप हमें मिलते हैं. ऐसा इसलिए कि वर्चस्व के लिए यदि मिथकीय एवं पौराणिक कथाओं का इस्तेमाल किया गया है तो उस वर्चस्व के विरोध के लिए भी उसी मिथकीय और पौराणिक कथाओं का प्रयोग किया गया है. इसीलिए हमें एक ही कथा के ध्रुवांतों की तरह रूप मिलते हैं.

एक रूप यह कहता है कि राधा अखंड किशोरी हैं तो एक रूप यह कहता है कि राधा शादीशुदा थीं और रिश्ते में कृष्ण की मामी लगती थीं. (संदर्भ- चैतन्य संप्रदाय के रूपगोस्वामी रचित ‘विदग्धमाधवम्’ नाटक और शशिभूषण दासगुप्त लिखित ‘श्रीराधा का क्रम-विकास’ पुस्तक )  यही भारत की बहुलता है जिसे आज एक रूप करने का सुनियोजित अभियान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग अनेक स्तरों पर चला रहे हैं.

राम-कथा की ही बात की जाए तो जैनियों की राम कथा बिल्कुल भिन्न है. हिंदी के आदिकाल के एक कवि स्वयंभू की रचना ‘पउम चरिउ’ है जिसमें वाल्मीकि की कथा से अनेक स्तरों पर अंतर है. वर्णाश्रम धर्म समर्थक राम-कथा के प्रति उस में एक आलोचनात्मक भाव हमें मिलता है. ‘पउम चरिउ’ की शुरुआत में ही राजा श्रेणिक अनेक प्रश्न पूछते हैं:

जगें लोएंहि ढक्करिवन्तएहिं. उप्पाइउ भंतिउ मन्तएहिं..
जइ कुम्में धरियउ धरणि-वीढु. तो कुम्मु पडन्तउ केण गीढु..
जइ रामहों तिहुअण उवरें माइ. तो रावणु कहिं तिय लेवि जाइ..

अर्थात् ‘दुनिया में चमत्कारवादी और भ्रांत लोगों ने भ्रांति उत्पन्न कर रखी है. यदि धरती की पीठ कछुए ने उठा रखी है तो तैरते कछुए की पीठ कौन उठाए है? यदि त्रिभुवन राम के पेट में समा जाता है तो रावण उन की पत्नी को कहां ले जाता है?’

स्पष्ट है कि यहां विष्णु के ‘दशावतार’ और उनके परम ब्रह्म रूप को प्रश्नांकित किया जा रहा है. इसी तरह जैन राम-कथा में हनुमान ब्रह्मचारी नहीं हैं. एक तो छोड़िए उन की दो-दो शादियां हुई हैं. उनकी एक पत्नी तो रावण की भगिनी ही है.

यदि मकरध्वज (हनुमान के पसीने से उत्पन्न) की कथा पर विचार करें तो यह लगता है कि लीपापोती कर हनुमान के स्त्री-संबंध पर पर्दा डाला गया है. इन सभी प्रसंगों में ध्यान देने की बात यह है कि उस समय ऐसी कथाएं रचने पर किसी ने भी स्वयंभू या ऐसे ही अनेक रचनाकारों को धर्म-विरोधी या ‘राष्ट्रद्रोही’ नहीं कहा.

इधर लगभग दस वर्षों में जब भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वर्चस्व हिंदू समाज पर बढ़ा है तभी से ऐसी घटनाएं अधिक होने लगी हैं कि किसी भी तरह की आलोचना को धर्म-विरुद्ध या देश-विरोधी बता दिया जा रहा है. एक आक्रामक और उग्र वातावरण का निर्माण किया जा रहा है.

‘रामचरितमानस’ की जो आलोचना बिहार के शिक्षा मंत्री ने की है वह कोई नई नहीं और न ही उसमें किसी प्रकार की कोई ग़लती है. वे शायद अपनी किसी बात पर बल देने के लिए ‘रामचरितमानस’ का प्रसंग लाए हों! उन पर हमलावर होकर तथाकथित हिंदू समाज अपनी ही परंपरा और उदारता को अपमानित कर रहा है.

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)